योग की प्राप्ति कर्म से ही हैं और जब मनुष्य विषय और वासनाओं से छूट जाता है तो योगी कहलाता है।मन को जीतना व मन के वश में होना –इस प्रकार मनुष्य अपना मित्र व शत्रु स्वयं ही है और मन जीतने वाले की आत्मा, शीत–उष्ण, दुख–सुख, मान –अपमान होने पर स्थिर रहती हैं और मिट्टी ,पत्थर, सोने को समान मानता है, मित्र और शत्रु, साधु और पापी के लिए समान दृष्टि रखता है।
योगी को किसी एकांत व नर्म व साफ स्थान पर बैठकर निरंतर ध्यान योग लगाना चाहिए और मन व इंद्रियों को एकाग्र कर,गर्दन को सीधा कर,ब्रह्मचर्य को पालन करते हुए ही ध्यान लगाना चाहिए।जो लोग अधिक उपवास या अधिक खाना या अधिक सोना व जागना करते हैं उनको योग प्राप्त नहीं होता, और जो नियम अनुसार जागते, सोते, खाते–पीते व कर्मों का सही पालन करते है वहीं योगी है,तथा परमानंद और मोक्ष प्राप्त करते है। इसके बाद कोई और बड़ा लाभ और सुख नहीं है।
जैसा कि मन बहुत चंचल है और इसे वश में रखना बहुत कठिन है परंतु अभ्यास और उपाय ही इसे वश में कर सकते है।
उत्तम काम करने वालो की कभी दुर्गति नहीं होती है और भले ही योग में असफल रहा हो और वह सुख भोगता हुआ पुनः किसी बुद्धिमान योगी व उत्तम व धनवान,पवित्र मनुष्य के घर जन्म लेता है और पूर्व जन्म की बुद्धि ,संस्कार, आत्मज्ञान को प्राप्त करता है।
।।जय श्री राधे।।