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बुधवार, 30 जून 2021

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

 भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

                       नरसीजी की कहानी



 एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था। वंशीधर ने नरसी जी से कहा- "कल पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना। बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।"

नरसी जी ने कहा- "पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।"

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले - "जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।"

नरसी जी ने कहा- "नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।" नगर-मंडली को मालूम हो गया कि दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नगर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे समाज से बाहर कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे परंतु किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार इस शर्त पर राजी हो गया नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा। बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है। अब नरसी मेहता जी भजन गाते गए और भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्री कृष्ण भगवान नरसी जी के भेस में श्राद्ध करवा रहे हैं।

 जय हो प्रभु, वाह क्या माया है, अद्भुत! भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं वेश धर लिए। वो कहते हैं ना कि-

"अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा ।।" 

तो सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। दक्षिणा में एक-एक अशर्फी भी प्राप्त की। सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में स्वादिष्ट भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में। वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है। इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिकबाई जी भोजन कर रही है। नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले - "वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?"मानिकबाई जी ने कहा- "आपका दिमाग तो ठीक है? स्वयं खड़े होकर आपने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, अब आप भी खाना खा लो।"

 ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट देव स्वयं उनका मान रख गए। गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा लिया। नरसी जी मन ही मन में गाते रहे -

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।

कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी।। 

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

श्री कृष्ण भक्त शिरोमणी संत श्री नरसी मेहता की जय 

नामदेव जी की भागवत भक्ति

                              नामदेव जी की सच्ची सरकार



कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।

शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।

घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।पर बच्चे अभी छोटे हैं,उनके लिए तो कुछ ले ही आना।जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।

तेरा परिवार बसता रहे।ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया करके रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।

और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे।

फिर पत्नि की कही बात,कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या,थान भी दान जा चुका था।भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है,तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।

और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।

नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?नामदेव का घर यही है ना?

भगवान जी ने पूछा।अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये? 

भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये,लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?

जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक,वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूं।ये राशन का सामान रखवा लो।

पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।

इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?मुझे नहीं लगता,पत्नी ने पूछा?

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।

जगह और बताओ।सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं।

बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे।वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।

कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे,पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।

हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।

अब परिजन नामदेव जी को देखने गये।सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे,जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहतेउनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।अगर थान अच्छे भाव बिक गया था,तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।

फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया,कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था।

पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।

जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।

वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।

मंगलवार, 29 जून 2021

भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--

                      भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--


भगवान विष्णु के परम भक्त हर समय नारायण-नारायण का ही नाम जपते रहते हैं।

लेकिन बहुत ही कमलोग विष्णु को नारायण कहने के पीछे का कारण जानते हैं।

पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पैरों से बहने वाली गंगा नदी को ‘विष्णुपदोदकी’ भी कहा जाता हैऔर इसी में छिपी है विष्णु को नारायण कहने के पीछे की कहानी।

पानी को नर या नीर भी कहा जाता है,और भगवान विष्णु भी पानी के भीतर ही रहते हैं,

इसलिए विष्णु को नारायण अर्थात पानी के भीतर रहने वाले ईश्वर का दर्जा दिया गया।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।।

हरी का अर्थ:-- हरी का अर्थ होता है चुराने या लेने वाला, भगवान विष्णुदुखियों के दुख और पापियों के पाप हर लेते हैं।

इसलिए उन्हें हरी के नाम से भी संसार जानता है.

।।जय श्री हरि।।

सुंदरकाण्ड को पढ़ने से क्या लाभ होगा?

                   सुन्दरकाण्ड का इतना महत्व क्यों है?


तुलसीदासजी रामकथा लिख रहे थे ...

हनुमानजी, भगवान श्रीराम को अपने आत्मज से ज़्यादा प्रिय है। प्रभु ने सोचा कि भक्त के मान में मेरा सम्मान है। हनुमानजी के माहात्म्य से संसार को परिचित कराने का ऐसा अवसर कहाँ मिलेगा!

प्रभु ने अपना प्रभाव दिखाया ...

रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड को लिखते-लिखते तुलसी, हनुमानजी को श्रीराम के समान सामर्थ्यवान लिख गए। 

तुलसीबाबा जितनी भी रामकथा लिखते, उसे हनुमानजी को सौंप देते। कथा देखने के बाद हनुमानजी अनुमोदन करते थे।

कहते हैं सुंदरकांड देखने के बाद बजरंग बली भड़क गए कि भक्त को स्वामी के सामान प्रतापी कैसे लिख दिया? आगबबूले होकर वह इसे फाड़ने ही वाले थे कि श्रीराम ने उन्हें दर्शन दिए और कहा-

यह अध्याय मैंने स्वयं लिखा है पवनपुत्र, क्या मैं मिथ्या कहूँगा?

इस विप्र का क्या दोष?

हनुमानजी नतमस्तक हो गए-

प्रभु आप कह रहे हैं तो यही सही है। मुझे मानस में सुंदरकांड सर्वाधिक प्रिय रहेगा।

इसलिए सुंदरकांड के पाठ का इतना माहात्म्य हैं।

अगर संभव हो तो प्रतिदिन इसका पाठ करना चाहिए और अगर समय का अभाव हो तो प्रत्येक शनिवार और मंगलवार को सुबह इसका पाठ करना चाहिए शुभ रहता है।

।।जय सिया राम।।


Why is Sundarkand so important?


 Tulsidasji was writing Ram Katha...

 Hanumanji is dear to Lord Shri Ram more than his soulmate.  The Lord thought that I have respect in the honor of the devotee.  Where will you get such an opportunity to introduce the world to the greatness of Hanumanji!

 The Lord showed his influence...

 While writing the Sunderkand of Ramcharitmanas, Tulsi wrote Hanumanji as powerful as Shri Ram.

 Whatever Ram Katha would have been written by Tulsibaba, he would have handed it over to Hanumanji.  Hanumanji used to approve after seeing the story.

 It is said that after seeing the Sundarkand, Bajrang Bali got furious that how did he write the devotee as glorious as Swami?  Being furious, he was about to tear it when Shri Ram appeared to him and said-

 I myself have written this chapter Pawanputra, shall I say false?

 What's wrong with this vipra?

 Hanumanji bowed down

 Lord, what you are saying is correct.  Sunderkand will be most dear to me in my mind.

 That is why the text of Sunderkand has so much importance.

 If possible, it should be recited daily and if there is a lack of time, then every Saturday and Tuesday morning it should be recited.


 jay Siya Ram..


सोमवार, 28 जून 2021

सुंदरकांड का सरल अर्थ

                      सुंदरकांड भावार्थ शुद्ध हिंदी में



श्लोक– शांत सनातन अप्रमेय (प्रमाणों से परे) निष्पाप, मोक्षरूप परम शांति देने वाले, ब्रह्मा शंभू और शेष जी से निरंतर सेवित, वेदांत के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करूणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर कि मैं वंदना करता हूं। –१

हे रघुनाथ जी! मैं सत्य कहता हूं और फिर आप सब की अंतरात्मा ही हैं सब जानते ही हैं कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघु कुलश्रेष्ठ मुझे अपनी निर्भया पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए–२

अतुल बल के धाम सोने के पर्वत सुमेरू के समान कांतियुक्त शरीर वाले,दैत्यरूपी वन (को द्वंश करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूं–३

जामवंत के बचन सुहाए---------

जामवंत जी के सुंदर वचन सुनकर हनुमानजी के हृदय को बहुत ही भाया (वे बोले,) हे भाई तुम लोग तो दुख सहकर ,कंदमूल फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।।१।।

जब तक में सीता जी को देखकर लौट ना आऊं। काम अवश्य होगा क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथ जी को धारण करके हनुमान जी हर्षित होकर चले।।२।।

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान जी के से ही अनायास ही कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान हनुमान जी उस पर से बड़े वेग से उछले।।३।।

जिस पर्वत पर हनुमान जी पैर रखकर चले, जिस पर से उछले, वह तुरंत ही पाताल में धंस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का बाण चलता है, उसी तरह हनुमान जी चले।।४।।

समुंद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि यह मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो अथार्त अपने ऊपर इन्हें विश्राम दें।।५।।

 दोहा- हनुमान जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाॅं?।।१।।

 देवताओं ने पवन पुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल बुद्धि को जानने के लिए परीक्षा हेतु उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान जी से यह बात कही-।।१।।

 आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवन कुमार हनुमान जी ने कहा श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीता जी की खबर प्रभु को सुना दूं।।२।।

 तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता मैं सत्य कहता हूं,अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा तो फिर मुझे खा ले।।३।।

 उसने योजन भर (4 कोस) मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उनसे दूना बढा़ लिया। उसने 16 योजन का मुख किया। हनुमान जी तुरंत ही 32 योजन के हो गए।।४।।

 जैसे जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती, हनुमान जी उसका दुगना रूप दिखाते थे। उसने 100 योजन यानी 400 कोस का मुख किया। तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।।५।।

और वे उसके मुख में घुसकर तुरंत फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे। सुरसा ने कहा मैंने तुम्हारे बुद्धि बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।।६।।

 दोहा- तुम श्री रामचंद्र जी के सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल बुद्धि के भंडार हो यह आशीर्वाद देकर चली गई। तब हनुमानजी हर्षित होकर चले।।१।।

 समुंद्र में एक राक्षसी रहती थी वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाई देखकर,।।१।।

 उस परछाई को पकड़ लेती थी। जिससे वह उड़ नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे इस प्रकार बाद आकाश में उड़ने वाले जीवो को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान जी से भी किया, हनुमान जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया।।२।।

 पवन पुत्र धीर बुद्धि वीर श्री हनुमान जी ने उसको मार कर समुंद्र के पार गए, वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्परस) के लोभ से भोरे गुंजार कर रहे थे।।३।।

अनेकों प्रकार के वृक्ष फल फूल सुशोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को भी देखकर वह मन में बहुत प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान जी भय त्याग कर उस पर दौड़ कर जा चढ़े।।४।।

शिव जी कहते हैं- हे उमा ! इसमें वानर हनुमान की कुछ बड़ाई ही नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता।।५।।

 वह अत्यंत ऊंचा है, उसके चारों ओर समुंद्र है। सोने के परकोटे चारदीवारी का परम प्रकाश हो रहा है।।६।।

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है। उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियां हैं। सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूह को कौन गिन सकता है? अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं। उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।।१।।

 वन बाग, उपवन ,फुलवाड़ी ,तालाब, कुएं और बावलिया सुशोभित हैं। मनुष्य,नाग,देवताओं और गंधर्व की कन्याए अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मनो को मोंह लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान पहलवान गरज रहे हैं। अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक दूसरे को ललकारते हैं।।२।।

 भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यतन करके बड़ी सावधानी से नगर की चारों दिशाओं में सब और से रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों,मनुष्य,गायों,गधों और बकरे को खा रहे हैं। तुलसीदासजी ने इनकी कथा इसलिए कुछ थोड़ी ही कही है कि यह निश्चय ही श्री रामचंद्र जी के बाण रूपी तीर्थ में शरीर को त्याग कर परम गति पाएंगे।।३।।

दोहा–३

नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं।।३।।

हनुमान जी मच्छर के समान (छोटासा) स्वरूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान श्री रामचंद्र जी का स्मरण करके लंका को चले। लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली मेरा निरादर कर के बिना मुझसे पूछे कहां चला जा रहा है।।१।।

 हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहां तक जितने चोर हैं, वह सब मेरे आहार हैं।महाकपि हनुमान जी ने उसे एक घुसा मारा, जिससे खून की उल्टी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी।।२।।

 वह लंकनी फिर अपने को संभाल कर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। वह बोली रावण को जब ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था तब चलते उन्होंने मुझे विनाश की पहचान बता दी थी कि।।३।।

 जब तू बंदर की मार से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य जो मैं श्री रामचंद्र जी के दूत (आपको) नेत्रों से देख पाई।।४।।

दोहा–४

 हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वह सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते ,जो लव यानी कि क्षण मात्र के सत्संग से होता है।।४।।

 अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथ जी को हृदय में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं,समुद्रू गाय के खुर के बराबर हो जाता है,अग्नि में शीतलता आ जाती है।।१।। 

और हे गरुड़ जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है। जिसे श्री रामचंद्र जी ने एक बार कृपा करके देख लिया। हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।।२।।

 उन्होंने हर एक महल की खोज की। जहां तहां असंख्य योद्धा देखें। फिर वह रावण के महल में गए, वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।।३।।

 हनुमान जी ने उस रावण को शयन किए देखा; परंतु महल में जानकी जी नहीं दिखाई दी। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहां उसमें भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था।।४।।

शेष कल:–


 



शुक्रवार, 25 जून 2021

प्रारब्ध–destiny

                                           प्रारब्ध



एक व्यक्ति हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करता था। धीरे धीरे वह काफी बुजुर्ग हो चला था इसीलिए एक कमरे मे ही पड़ा रहता था।जबभी उसे शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वह अपने बेटो को आवाज लगाता था और बेटे ले जाते थे।धीरे धीरे कुछ दिन बाद बेटे कई बार आवाज लगाने के बाद भी कभी कभी आते और देर रात तो नहीं भी आते थे।इस दौरान वे कभी-कभी गंदे बिस्तर पर ही रात बिता दिया करते थे।अ

अबऔर ज्यादा बुढ़ापा होने के कारण उन्हें कम दिखाई देने लगा था एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही उन्होंने आवाज लगायी, तुरन्त एक लड़का आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ उनको निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है । अब ये रोज का नियम हो गया।ए

एकरात उनको शक हो जाता है कि, पहले तो बेटों को रात में कई बार आवाज लगाने पर भी नही आते थे। लेकिन ये  तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है।ए

एकरात वह व्यक्ति उसका हाथ पकड लेता है और पूछता है कि सच बता तू कौन है ? मेरे बेटे तो ऐसे नही हैं।

अभी अंधेरे कमरे में एक अलौकिक उजाला हुआऔर उस लड़के रूपी ईश्वर ने अपना वास्तविक रूप दिखाया।

वह व्यक्ति रोते हुये कहता है : हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है । यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना।

प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है । आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ।

व्यक्ति कहता है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है।

प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म नियम है । इसलिए आपके प्रारब्ध मैं स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।

ईश्वर कहते है: प्रारब्ध तीन तरह के होते है :

मन्द, तीव्र तथा तीव्रतम


मन्द प्रारब्ध,– मेरा नाम जपने से कट जाते हैं।

            तीव्र प्रारब्ध* किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है । 

पर तीव्रतम प्रारब्ध भुगतने ही पडते है।

।।श्री राधे।।

लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं; उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ।प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।

  तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर।।


                                              ... .                         ... .            

English translation-


                                     destiny

 A person always used to chant the name of God.  Slowly he had become very old, so he used to lie in one room only. Whenever he had to defecate;  Had to go for bath etc.;  He used to call his sons and take them away. Gradually, after a few days, the sons would sometimes come and not even late at night, even after making several sounds. During this time they sometimes spent the night on the dirty bed.  used to give.


 Now due to his old age, he had started seeing less, one day as soon as he made a sound to retire at night, immediately a boy comes and with a very soft touch, he is retired and makes him lie on the bed.  Now it has become a daily routine.


 One night they get suspicious that, earlier the sons did not come even after raising their voice several times in the night.  But it comes at the second moment as soon as the sound is raised and with a very soft touch makes everything retire.


 One night the person grabs her hand and asks who are you to tell the truth?  My sons are not like that.


 Just now a supernatural light appeared in the dark room and the boy in the form of God showed his true form.


 The person weeps and says: Oh Lord, you yourself are doing the work of my retirement.  If you are so pleased with me, then give me liberation.


 GOD says that whatever you are suffering is your destiny.  You are my true seeker;  Chanting my name all the time, that's why I am getting your destiny cut myself because of your true spiritual practice.


 The person says whether my destiny is bigger than your grace;  Can't your grace cut off my destiny?


 The Lord says that my grace is paramount;  It can definitely bite your destiny;  But then in the next life you will have to come again to suffer this destiny.  This is the law of karma.  Therefore, by getting your destiny cut with my own hands, I want to free you from this birth and death.

 God says: There are three types of destiny:

 slowest, sharpest and fastest

 Mild destiny, - by chanting my name, it is cut off.


 Intense destiny is cut off by chanting my name with faith and belief in association with a true saint.

 But the most intense destiny has to be suffered.

 ..Shree Radhe..

 *But those who chant Me with reverence and faith all the time;  I get their destiny cut by staying with myself and I do not allow the feeling of intensity.

 Lord is created first, body is created behind.


 * Why should Tulsi worry, please worship Shri Raghubir.


 Om Shanti 🙏


       



गुरुवार, 24 जून 2021

रोज कम से कम एक बार निम्नलिखित श्लोक पढे :-

 रोज तीन बार या कम से कम एक बार निम्नलिखित श्लोक पढे :-


                 गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरुपिणम |

              गोकुलोत्सवमिशानं गोविन्दं गोपिका प्रियं | |


हे प्रभु ! हे गिरीराज धर ! गोवर्धन को अपने हाथ में धारण करने वाले हे हरि ! 

मेरी भक्ति और विश्वास को भी आप ही धारण करना | 

प्रभु आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भक्ति बनी रहेगी, आपकी कृपा से ही मेरे जीवन में भी विश्वास रूपी गोवर्धन मेरी रक्षा करता रहेगा | 

हे गोवर्धनधारी आपको मेरा प्रणाम है आप समर्थ होते हुए भी साधारण बालक की तरह लीला करते थे | 

गोकुल में आपके कारण सदैव उत्सव छाया रहता था । 

मेरे ह्रदय में भी हमेशा उत्सव छाया रहे । साधना में, सेवा-सुमिरन में मेरा उसाह कभी कम न हो | मै जप, साधना सेवा, करते हुए कभी थकूँ नहीं | मेरी इन्द्रियों में संसार का आकर्षण न हो, मैं आँख से आपको ही देखने कि इच्छा रखूं, कानों से आपकी वाणी सुनने की इच्छा रखूं, जीभ के द्वारा आपका नाम जपने की इच्छा रखूं ! 

हे गोविन्द ! आप गोपियों के प्यारे हो ! ऐसी कृपा करो, ऐसी सदबुद्धि दो कि मेरी इन्द्रियां आपको ही चाहे, संसार की चाह न हो, आपकी ही चाह हो !

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