यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

कर्माबाई का खिचड़ी भोग (सत्य घटना)

                            कर्मा बाई का खिचड़ी भोग




भगवान श्रीकृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी जगन्नाथ पुरी में रहती थी और भगवान को बचपन से ही पुत्र रुप में भजती थीं । ठाकुर जी के बाल रुप से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे ठाकुर जी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हों। 

एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि ठाकुर जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाऊँ । उन्होंने जगन्नाथ प्रभु को अपनी इच्छा बतलायी । भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं । प्रभु जी बोले - "माँ ! जो भी बनाया हो वही खिला दो, बहुत भूख लगी है ।"

कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी । ठाकुर जी को खिचड़ी खाने को दे दी । प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई ये सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे ठाकुर जी का मुँह ना जल जाये । संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को कर्मा बाई एक माता की तरह पंखा कर रही हैं और भगवान भक्त की भावना में भाव विभोर हो रहे हैं ।

भक्त वत्सल भगवान ने कहा - "माँ ! मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी । मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें । मैं तो यही आकर खाऊँगा ।"

अब तो कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं, बाकि सब कुछ बाद में करती थी । भगवान भी सुबह-सवेरे दौड़े आते । आते ही कहते - माँ ! जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ ।" प्रतिदिन का यही क्रम बन गया । भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते ।

एक बार एक महात्मा कर्मा बाई के पास आया । महात्मा ने उन्हें सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा - "माता जी, आप यह क्या कर रही हो ? सबसे पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए । लेकिन आपको तो पेट की चिन्ता सताने लगती है ।"

कर्मा बाई बोलीं - "क्या करुँ ? महाराज जी ! संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रहा होता है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं । उनके लिए ही तो सब काम छोड़कर पहले खिचड़ी बनाती हूँ ।"

महात्मा ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है । यह तो ऐसे बोल रही है जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के ही भूखे बैठे हुए हों ।

 महात्मा कर्मा बाई को समझाने लगे - "माता जी, तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो। फिर भगवान के लिए भोग बनाओ "। 

 अगले दिन कर्मा बाई ने ऐसा ही किया । जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले - "माँ ! मैं आ गया हूँ, खिचड़ी लाओ ।"

कर्मा बाई ने कहा - "प्रभु ! अभी में स्नान कर रही हूँ, थोड़ा रुको । थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई । जल्दी करो, माँ ! मेरे मन्दिर के पट खुल जायेंगे, मुझे जाना है ।"

वह फिर बोलीं - "अभी मैं रसोई की सफाई कर रही हूँ, प्रभु !" भगवान सोचने लगे कि आज माँ को क्या हो गया है ? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ । फिर जब कर्मा बाई ने खिचड़ी परोसी तब भगवान ने झटपट करके जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी ।

 परंतु आज खिचड़ी में भी रोज वाले भाव का स्वाद भगवान को नहीं लगा था । फिर जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिये ही मंदिर में भागे ।

भगवान ने बाहर महात्मा को देखा तो समझ गये - "अच्छा, तो यह बात है । मेरी माँ को यह पट्टी इसी ने पढ़ायी है ।"

अब यहां ठाकुर जी के मन्दिर के पुजारी ने जैसे ही मंदिर के पट खोले तो देखा भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी हुई है । पुजारी बोले - "प्रभु जी ! ये खिचड़ी आप के मुख पर कैसे लग गयी है ?"

भगवान ने कहा - "पुजारी जी, मैं रोज मेरी कर्मा बाई के घर पर खिचड़ी खाकर आता हूँ। आप माँ कर्मा बाई जी के घर जाओ और जो महात्मा उनके यहाँ ठहरे हुए हैं, उनको समझाओ । उसने मेरी माँ को गलत कैसी पट्टी पढाई है ?"

पुजारी ने महात्मा जी से जाकर सारी बात कही कि भगवान भाव के भुखे है । यह सुनकर महात्मा जी घबराए और तुरन्त कर्मा बाई के पास जाकर कहा - "माता जी ! माफ़ करो, ये नियम धर्म तो हम सन्तों के लिये हैं । आप तो जैसे पहले खिचड़ी बनाती हो, वैसे ही बनायें । आपके भाव से ही ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहेंगे ।"

 फिर एक दिन आया , जब कर्मा बाई के प्राण छूट गए । उस दिन पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो देखा - भगवान की आँखों में आँसूं हैं ।और प्रभु रो रहे हैं ।

 पुजारी ने रोने का कारण पूछा तो भगवान बोले - "पुजारी जी, आज मेरी माँ कर्मा बाई इस लोक को छोड़कर मेरे निज लोक को विदा हो गई है । अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा ?"

 पुजारी ने कहा - "प्रभु जी ! आपको माँ की कमी महसूस नहीं होने देंगे । आज के बाद आपको सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा ।" इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है ।

*भगवान और उनके भक्तों की ये अमर कथायें अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक हैं । ये कथायें प्रभु प्रेम के स्नेह को दरसाने के लिए अस्तित्व में आयीं हैं कि प्रभु सिर्फ सच्चे और पवित्र भाव के भुखे है । आप भी इन कथाओं के माध्यम से भक्ति के रस को चखते हुए आनन्द के सरोवर में डुबकी लगाएं । ईश्वर की शक्ति के आगे तर्कशीलता भी नतमस्तक हो जाती है । तभी तो चिकित्सा विज्ञान के लोग भी कहते हैं - "दवा से ज्यादा, दुआ काम आएगी ।"


प्रेम से बोलिये जय जगन्नाथ जी

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?

               भक्ति के 9 प्रकार हैं,आप की कौन सी भक्ति हैं?



प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार के बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥

इन्हें ही नवधा भक्ति के नाम से जाना जाता है ।

( १ ) -- श्रवण

           ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरंतर सुनना।

( २ ) --कीर्तन

            ईश्वर के गुण,चरित्र,नाम,पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

( ३ ) --स्मरण:

              निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके

महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

( ४ ) -पाद सेवन:

                ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

( ५ ) -अर्चन:

                 मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

( ६ ) -- वंदन

                 भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूपमें व्याप्त भक्तजन,आचार्य,ब्राह्मण,गुरूजन,माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

( ७ ) --दास्य

                ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

( ८ ) -- सख्य:

              ईश्वर को ही अपना परममित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे

समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन

करना।

( ९ ) -- आत्म निवेदन: 

                अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए

समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।

           यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

।।श्री राधे।।

बुधवार, 30 जून 2021

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

 भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

                       नरसीजी की कहानी



 एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था। वंशीधर ने नरसी जी से कहा- "कल पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना। बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।"

नरसी जी ने कहा- "पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।"

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले - "जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।"

नरसी जी ने कहा- "नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।" नगर-मंडली को मालूम हो गया कि दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नगर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे समाज से बाहर कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे परंतु किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार इस शर्त पर राजी हो गया नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा। बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है। अब नरसी मेहता जी भजन गाते गए और भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्री कृष्ण भगवान नरसी जी के भेस में श्राद्ध करवा रहे हैं।

 जय हो प्रभु, वाह क्या माया है, अद्भुत! भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं वेश धर लिए। वो कहते हैं ना कि-

"अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ।

प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा ।।" 

तो सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। दक्षिणा में एक-एक अशर्फी भी प्राप्त की। सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में स्वादिष्ट भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में। वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है। इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिकबाई जी भोजन कर रही है। नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले - "वो आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?"मानिकबाई जी ने कहा- "आपका दिमाग तो ठीक है? स्वयं खड़े होकर आपने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, अब आप भी खाना खा लो।"

 ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट देव स्वयं उनका मान रख गए। गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा लिया। नरसी जी मन ही मन में गाते रहे -

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी कहें तो उठो रे प्राणी।

कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी।। 

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

श्री कृष्ण भक्त शिरोमणी संत श्री नरसी मेहता की जय 

नामदेव जी की भागवत भक्ति

                              नामदेव जी की सच्ची सरकार



कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए नामदेव जी से पत्नि ने कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।

शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।भक्त नामदेव जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ जैसी विठ्ठल जीकी कृपा।अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

पत्नि बोली संत जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।

घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।पर बच्चे अभी छोटे हैं,उनके लिए तो कुछ ले ही आना।जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।ऐसा कहकर भक्त नामदेव जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।

तेरा परिवार बसता रहे।ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।दया करके रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त नामदेव जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,इतेफाक से भक्त नामदेव जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।

और भक्त नामदेव जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त नामदेव जी घर लौटने लगे तो उनके सामने परिजनो के भूखे चेहरे नजर आने लगे।

फिर पत्नि की कही बात,कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।दाम कम भी मिले तो भी बच्चो के लिए तो कुछ ले ही आना।

अब दाम तो क्या,थान भी दान जा चुका था।भक्त नामदेव जी एकांत मे पीपल की छाँव मे बैठ गए।

जैसी मेरे विठ्ठल की इच्छा।जब सारी सृष्टि की सार पूर्ती वो खुद करता है,तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।

और फिर भक्त नामदेव जी अपने हरिविठ्ठल के भजन में लीन गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।भक्त नामदेव जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।

नामदेव जी की पत्नी ने पूछा- कौन है?नामदेव का घर यही है ना?

भगवान जी ने पूछा।अंदर से आवाज हां जी यही आपको कुछ चाहिये? 

भगवान सोचने लगे कि धन्य है नामदेव जी का परिवार घर मे कुछ भी नही है फिर ह्र्दय मे देने की सहायता की जिज्ञयासा हैl

भगवान बोले दरवाजा खोलिये,लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?

जैसे नामदेव जी विठ्ठल के सेवक,वैसे ही मैं नामदेव जी का सेवक हूं।ये राशन का सामान रखवा लो।

पत्नि ने दरवाजा पूरा खोल दिया।फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।

इतना सामान! नामदेव जी ने भेजा है?मुझे नहीं लगता,पत्नी ने पूछा?

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज नामदेव का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।जो नामदेव का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।

जगह और बताओ।सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।समान रखवाते-रखवाते पत्नि थक चुकी थीं।

बच्चे घर में अमीरी आते देख खुश थे।वो कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।

कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।भक्त नामदेव जी अभी तक घर नहीं आये थे,पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान संत जी के आने के बाद ही आप ले आना।

हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गाँव के बाहर पीपल के नीचे बैठकर विठ्ठल सरकार का भजन-सिमरन कर रहे हैं।

अब परिजन नामदेव जी को देखने गये।सब परिवार वालों को सामने देखकर नामदेव जी सोचने लगे,जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले की संत नामदेव जी कुछ कहतेउनकी पत्नी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।अगर थान अच्छे भाव बिक गया था,तो सारा सामान संत जी आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त नामदेव जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।

फिर बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया,कि जरूर मेरे प्रभु ने कोई खेल कर दिया है।

पत्नि ने कहा अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे भैजने से रुकता ही नहीं था।

पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी संत जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त नामदेव जी हँसने लगे और बोले- ! वो सरकार है ही ऐसी।

जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।

वह सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।

मंगलवार, 29 जून 2021

भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--

                      भगवान विष्णु का नाम नारायण क्यों हैं:--


भगवान विष्णु के परम भक्त हर समय नारायण-नारायण का ही नाम जपते रहते हैं।

लेकिन बहुत ही कमलोग विष्णु को नारायण कहने के पीछे का कारण जानते हैं।

पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पैरों से बहने वाली गंगा नदी को ‘विष्णुपदोदकी’ भी कहा जाता हैऔर इसी में छिपी है विष्णु को नारायण कहने के पीछे की कहानी।

पानी को नर या नीर भी कहा जाता है,और भगवान विष्णु भी पानी के भीतर ही रहते हैं,

इसलिए विष्णु को नारायण अर्थात पानी के भीतर रहने वाले ईश्वर का दर्जा दिया गया।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।।

हरी का अर्थ:-- हरी का अर्थ होता है चुराने या लेने वाला, भगवान विष्णुदुखियों के दुख और पापियों के पाप हर लेते हैं।

इसलिए उन्हें हरी के नाम से भी संसार जानता है.

।।जय श्री हरि।।

सुंदरकाण्ड को पढ़ने से क्या लाभ होगा?

                   सुन्दरकाण्ड का इतना महत्व क्यों है?


तुलसीदासजी रामकथा लिख रहे थे ...

हनुमानजी, भगवान श्रीराम को अपने आत्मज से ज़्यादा प्रिय है। प्रभु ने सोचा कि भक्त के मान में मेरा सम्मान है। हनुमानजी के माहात्म्य से संसार को परिचित कराने का ऐसा अवसर कहाँ मिलेगा!

प्रभु ने अपना प्रभाव दिखाया ...

रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड को लिखते-लिखते तुलसी, हनुमानजी को श्रीराम के समान सामर्थ्यवान लिख गए। 

तुलसीबाबा जितनी भी रामकथा लिखते, उसे हनुमानजी को सौंप देते। कथा देखने के बाद हनुमानजी अनुमोदन करते थे।

कहते हैं सुंदरकांड देखने के बाद बजरंग बली भड़क गए कि भक्त को स्वामी के सामान प्रतापी कैसे लिख दिया? आगबबूले होकर वह इसे फाड़ने ही वाले थे कि श्रीराम ने उन्हें दर्शन दिए और कहा-

यह अध्याय मैंने स्वयं लिखा है पवनपुत्र, क्या मैं मिथ्या कहूँगा?

इस विप्र का क्या दोष?

हनुमानजी नतमस्तक हो गए-

प्रभु आप कह रहे हैं तो यही सही है। मुझे मानस में सुंदरकांड सर्वाधिक प्रिय रहेगा।

इसलिए सुंदरकांड के पाठ का इतना माहात्म्य हैं।

अगर संभव हो तो प्रतिदिन इसका पाठ करना चाहिए और अगर समय का अभाव हो तो प्रत्येक शनिवार और मंगलवार को सुबह इसका पाठ करना चाहिए शुभ रहता है।

।।जय सिया राम।।


Why is Sundarkand so important?


 Tulsidasji was writing Ram Katha...

 Hanumanji is dear to Lord Shri Ram more than his soulmate.  The Lord thought that I have respect in the honor of the devotee.  Where will you get such an opportunity to introduce the world to the greatness of Hanumanji!

 The Lord showed his influence...

 While writing the Sunderkand of Ramcharitmanas, Tulsi wrote Hanumanji as powerful as Shri Ram.

 Whatever Ram Katha would have been written by Tulsibaba, he would have handed it over to Hanumanji.  Hanumanji used to approve after seeing the story.

 It is said that after seeing the Sundarkand, Bajrang Bali got furious that how did he write the devotee as glorious as Swami?  Being furious, he was about to tear it when Shri Ram appeared to him and said-

 I myself have written this chapter Pawanputra, shall I say false?

 What's wrong with this vipra?

 Hanumanji bowed down

 Lord, what you are saying is correct.  Sunderkand will be most dear to me in my mind.

 That is why the text of Sunderkand has so much importance.

 If possible, it should be recited daily and if there is a lack of time, then every Saturday and Tuesday morning it should be recited.


 jay Siya Ram..


सोमवार, 28 जून 2021

सुंदरकांड का सरल अर्थ

                      सुंदरकांड भावार्थ शुद्ध हिंदी में



श्लोक– शांत सनातन अप्रमेय (प्रमाणों से परे) निष्पाप, मोक्षरूप परम शांति देने वाले, ब्रह्मा शंभू और शेष जी से निरंतर सेवित, वेदांत के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करूणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर कि मैं वंदना करता हूं। –१

हे रघुनाथ जी! मैं सत्य कहता हूं और फिर आप सब की अंतरात्मा ही हैं सब जानते ही हैं कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघु कुलश्रेष्ठ मुझे अपनी निर्भया पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए–२

अतुल बल के धाम सोने के पर्वत सुमेरू के समान कांतियुक्त शरीर वाले,दैत्यरूपी वन (को द्वंश करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूं–३

जामवंत के बचन सुहाए---------

जामवंत जी के सुंदर वचन सुनकर हनुमानजी के हृदय को बहुत ही भाया (वे बोले,) हे भाई तुम लोग तो दुख सहकर ,कंदमूल फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।।१।।

जब तक में सीता जी को देखकर लौट ना आऊं। काम अवश्य होगा क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथ जी को धारण करके हनुमान जी हर्षित होकर चले।।२।।

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान जी के से ही अनायास ही कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान हनुमान जी उस पर से बड़े वेग से उछले।।३।।

जिस पर्वत पर हनुमान जी पैर रखकर चले, जिस पर से उछले, वह तुरंत ही पाताल में धंस गया। जैसे श्री रघुनाथ जी का बाण चलता है, उसी तरह हनुमान जी चले।।४।।

समुंद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि यह मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो अथार्त अपने ऊपर इन्हें विश्राम दें।।५।।

 दोहा- हनुमान जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा भाई! श्री रामचंद्र जी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाॅं?।।१।।

 देवताओं ने पवन पुत्र हनुमान जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल बुद्धि को जानने के लिए परीक्षा हेतु उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान जी से यह बात कही-।।१।।

 आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवन कुमार हनुमान जी ने कहा श्री राम जी का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीता जी की खबर प्रभु को सुना दूं।।२।।

 तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता मैं सत्य कहता हूं,अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा तो फिर मुझे खा ले।।३।।

 उसने योजन भर (4 कोस) मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उनसे दूना बढा़ लिया। उसने 16 योजन का मुख किया। हनुमान जी तुरंत ही 32 योजन के हो गए।।४।।

 जैसे जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती, हनुमान जी उसका दुगना रूप दिखाते थे। उसने 100 योजन यानी 400 कोस का मुख किया। तब हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।।५।।

और वे उसके मुख में घुसकर तुरंत फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे। सुरसा ने कहा मैंने तुम्हारे बुद्धि बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।।६।।

 दोहा- तुम श्री रामचंद्र जी के सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल बुद्धि के भंडार हो यह आशीर्वाद देकर चली गई। तब हनुमानजी हर्षित होकर चले।।१।।

 समुंद्र में एक राक्षसी रहती थी वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाई देखकर,।।१।।

 उस परछाई को पकड़ लेती थी। जिससे वह उड़ नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे इस प्रकार बाद आकाश में उड़ने वाले जीवो को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान जी से भी किया, हनुमान जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया।।२।।

 पवन पुत्र धीर बुद्धि वीर श्री हनुमान जी ने उसको मार कर समुंद्र के पार गए, वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्परस) के लोभ से भोरे गुंजार कर रहे थे।।३।।

अनेकों प्रकार के वृक्ष फल फूल सुशोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को भी देखकर वह मन में बहुत प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान जी भय त्याग कर उस पर दौड़ कर जा चढ़े।।४।।

शिव जी कहते हैं- हे उमा ! इसमें वानर हनुमान की कुछ बड़ाई ही नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता।।५।।

 वह अत्यंत ऊंचा है, उसके चारों ओर समुंद्र है। सोने के परकोटे चारदीवारी का परम प्रकाश हो रहा है।।६।।

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है। उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियां हैं। सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूह को कौन गिन सकता है? अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं। उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।।१।।

 वन बाग, उपवन ,फुलवाड़ी ,तालाब, कुएं और बावलिया सुशोभित हैं। मनुष्य,नाग,देवताओं और गंधर्व की कन्याए अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मनो को मोंह लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान पहलवान गरज रहे हैं। अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक दूसरे को ललकारते हैं।।२।।

 भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यतन करके बड़ी सावधानी से नगर की चारों दिशाओं में सब और से रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों,मनुष्य,गायों,गधों और बकरे को खा रहे हैं। तुलसीदासजी ने इनकी कथा इसलिए कुछ थोड़ी ही कही है कि यह निश्चय ही श्री रामचंद्र जी के बाण रूपी तीर्थ में शरीर को त्याग कर परम गति पाएंगे।।३।।

दोहा–३

नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं।।३।।

हनुमान जी मच्छर के समान (छोटासा) स्वरूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान श्री रामचंद्र जी का स्मरण करके लंका को चले। लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली मेरा निरादर कर के बिना मुझसे पूछे कहां चला जा रहा है।।१।।

 हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहां तक जितने चोर हैं, वह सब मेरे आहार हैं।महाकपि हनुमान जी ने उसे एक घुसा मारा, जिससे खून की उल्टी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी।।२।।

 वह लंकनी फिर अपने को संभाल कर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। वह बोली रावण को जब ब्रह्मा जी ने वरदान दिया था तब चलते उन्होंने मुझे विनाश की पहचान बता दी थी कि।।३।।

 जब तू बंदर की मार से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य जो मैं श्री रामचंद्र जी के दूत (आपको) नेत्रों से देख पाई।।४।।

दोहा–४

 हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वह सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते ,जो लव यानी कि क्षण मात्र के सत्संग से होता है।।४।।

 अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथ जी को हृदय में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं,समुद्रू गाय के खुर के बराबर हो जाता है,अग्नि में शीतलता आ जाती है।।१।। 

और हे गरुड़ जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है। जिसे श्री रामचंद्र जी ने एक बार कृपा करके देख लिया। हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।।२।।

 उन्होंने हर एक महल की खोज की। जहां तहां असंख्य योद्धा देखें। फिर वह रावण के महल में गए, वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।।३।।

 हनुमान जी ने उस रावण को शयन किए देखा; परंतु महल में जानकी जी नहीं दिखाई दी। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहां उसमें भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था।।४।।

शेष कल:–


 



Featured Post

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

                    गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र   भावार्थ के साथ गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक ...