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सोमवार, 27 सितंबर 2021

(संत वचनामृत) प्रभु की खुशी में ही हमारी खुशी है

               प्रभु की खुशी में ही हमारी खुशी होनी चाहिए।

सिद्धांत यह है कि प्रभु के दिए हुए धन में, परिवार में, शरीर में, हमको संतुष्ट रहना चाहिए। जो प्रभु ने दिया है, उसमें संतुष्ट ना होकर जब हम अपने मन में असंतोष व्यक्त करते हैं, तो प्रभु का अपमान होता है। हमको कृतज्ञ होना चाहिए। भगवान ने कृपा करके जो कुछ दिया है वह ठीक है। प्रभु को धन्यवाद है इतना सब कुछ दिया है। यदि हम को और अधिक आवश्यक होगी, तो प्रभु हमको और देंगे। ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा को, प्रभु की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता को मिला देना चाहिए जो कुछ सहज प्राप्त है उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिए। प्रभु के द्वारा दिए गए धन जन में संतुष्ट ना हो कर, हम तरह-तरह की कामना करते हैं उसके लिए देवी-देवताओं से विनय करते हैं, कामना की पूर्ण न होने पर अविश्वास हो जाता है। इसलिए यदि कामना हो तो अपने इष्ट देव के सामने निवेदन करना चाहिए। यदि कामना की पूर्ति में आप प्रसन्न रहे हो तब आप पूर्ण कर दीजिए। यह भाव रखना चाहिए। आप प्रसन्न न रहें, मेरा कल्याण भी ना हो, तो ऐसी कामना का अपूर्ण होना ही अच्छा है। जिस प्रकार प्रभु प्रसन्न है उसमें ही प्रसन्न रहना है।

 (वृंदावन के गोलोक वासी संत श्री गणेशदास भक्तमालीजी दादा गुरु के उपदेश परक पत्रों से)

सोमवार, 20 सितंबर 2021

श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं

      श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।

श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है।) भावार्थ यह है कि प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वही श्राद्ध है।

हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है।

पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों को प्राप्त होता है।

पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।

भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।

पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।

अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।

नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।

पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।

सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।

शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।

कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।

यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।

पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है।

पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।

मान्य स्थान:–

गया

जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है।


20 सितंबर 2021, सोमवार: पूर्णिमा श्राद्ध

21 सितंबर 2021, मंगलवार: प्रतिपदा श्राद्ध

22 सितंबर 2021, बुधवार: द्वितीया श्राद्ध

23 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: तृतीया श्राद्ध

24 सितंबर 2021, शुक्रवार: चतुर्थी श्राद्ध

25 सितंबर 2021, शनिवार: पंचमी श्राद्ध

27 सितंबर 2021, सोमवार: षष्ठी श्राद्ध

28 सितंबर 2021, मंगलवार: सप्तमी श्राद्ध

29 सितंबर 2021, बुधवार: अष्टमी श्राद्ध

30 सितंबर 2021, बृहस्पतिवार: नवमी श्राद्ध

1 अक्तूबर 2021, शुक्रवार: दशमी श्राद्ध

2 अक्तूबर 2021, शनिवार: एकादशी श्राद्ध

3 अक्तूबर 2021, रविवार: द्वादशी, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध

4 अक्तूबर 2021, सोमवार: त्रयोदशी श्राद्ध

5 अक्तूबर 2021, मंगलवार: चतुर्दशी श्राद्ध

6 अक्तूबर 2021, बुधवार: अमावस्या श्राद्ध

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्र –संग्रह––

       प्रतिदिन स्मरण योग्य शुभ सुंदर मंत्र जो आपके जीवन में अद्भुत परिवर्तन ले आएगा। 



प्रात: कर-दर्शनम्

कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥


पृथ्वी क्षमा प्रार्थना

समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।

विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्शं क्षमश्वमेव॥


त्रिदेवों के साथ नवग्रह स्मरण

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥


स्नान मन्त्र

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु॥


सूर्यनमस्कार

ॐ सूर्य आत्मा जगतस्तस्युषश्च

आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।

दीर्घमायुर्बलं वीर्यं व्याधि शोक विनाशनम्

सूर्य पादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम्॥

ॐ मित्राय नम:

ॐ रवये नम:

ॐ सूर्याय नम:

ॐ भानवे नम:

ॐ खगाय नम:

ॐ पूष्णे नम:

ॐ हिरण्यगर्भाय नम:

ॐ मरीचये नम:

ॐ आदित्याय नम:

ॐ सवित्रे नम:

ॐ अर्काय नम:

ॐ भास्कराय नम:

ॐ श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीदमम् भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥


संध्या दीप दर्शन

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।

शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते॥

दीपो ज्योति परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।

दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोऽस्तु ते॥


गणपति स्तोत्र

गणपति: विघ्नराजो लम्बतुन्ड़ो गजानन:।

द्वै मातुरश्च हेरम्ब एकदंतो गणाधिप:॥

विनायक: चारूकर्ण: पशुपालो भवात्मज:।

द्वादश एतानि नामानि प्रात: उत्थाय य: पठेत्॥

विश्वम तस्य भवेद् वश्यम् न च विघ्नम् भवेत् क्वचित्।

विघ्नेश्वराय वरदाय शुभप्रियाय।

लम्बोदराय विकटाय गजाननाय॥

नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय।

गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं।

प्रसन्नवदनं ध्यायेतसर्वविघ्नोपशान्तये॥


आदिशक्ति वंदना

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥


शिव स्तुति

कर्पूर गौरम करुणावतारं,

संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।

सदा वसंतं हृदयार विन्दे,

भवं भवानी सहितं नमामि॥


विष्णु स्तुति

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥


श्री कृष्ण स्तुति

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम।

नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम॥

सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम, कंठे च मुक्तावलि।

गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी॥

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥


श्रीराम वंदना

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।

कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥


श्रीरामाष्टक

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशवा।

गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा॥

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते।

बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम्॥


एक श्लोकी रामायण

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम्।

वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीवसम्भाषणम्॥

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम्।

पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि श्री रामायणम्॥


सरस्वती वंदना–

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।

या वींणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपदमासना॥

या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।

सा माम पातु सरस्वती भगवती

निःशेषजाड्याऽपहा॥


हनुमान वंदना–

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।

दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥


स्वस्ति-वाचन


ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः

स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥


शांति पाठ–

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष (गुँ) शान्ति:,

पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,

सर्व (गुँ) शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥


॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति।

बहुत ही सुंदर संग्रह है।

सच्चा मित्र हमारे कर्म हैं।

                               सच्चा मित्र कौन है ? 




एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे।_

 एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।_

 दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।_

 और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।_

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।_

 अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?_

 वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।_

 उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।_

 अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है।_

 फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।_

 दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।_

 वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।_

 फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।_

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।_

 अब आप सोच रहे होंगे कि... वो तीन मित्र कौन है...?

 तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।_

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे *हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं।

 सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर'* हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

 दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी'" जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

 और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।_

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता।* जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।_

 दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

 और तीसरा मित्र आपके कर्म हैं।

 कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।

और धर्मराज भी हमारे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल देगा।  रामचरित मानस की पंक्तियां हैं कि..._

"काहु नहीं सुख-दुःख कर दाता।   निजकृत कर्म भोगि सब भ्राता।।"

श्री गणेश स्तुति(विनय पत्रिका)

                             श्री गणेश स्तुति
 तुलसीदास जी द्वारा रचित पुस्तक विनय पत्रिका में तुलसीदास जी ने श्रीराम जी से विनय  शुुरू करने से पहले  सभी देवी देवताओंं की स्तुति की है -
जिस में सबसे पहले गणेश जी की वंदना की है-
 गाइए गणपति जगवंदन। शंकर - सुवन भवानी नंदन॥१॥
 सिद्धि- सदन गजबदन विनायक। कृपा सिंधु सुंदर सब लायक॥२॥
 मोदक प्रिय, मुद- मंगलदाता ।विद्या-वारिधि ,बुद्धि- विधाता ॥३॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बसहि रामसिय मानस मोरे॥४॥

भावार्थ - संपूर्ण जगत के वंदनीय, गणों के स्वामी श्री गणेश जी का गुणगान कीजिए, जो शिव पार्वती के पुत्र और उन को प्रसन्न करने वाले हैं ॥१॥जो सिद्धियों के स्थान हैं, जिनका हाथी का सा मुख है, जो समस्त विघ्नों के नायक हैं , यानी विघ्नों को हटाने वाले हैं, कृपा के समुंद्र हैं, सुंदर हैं, सब प्रकार से योग्य हैं॥२॥ जिन्हें लड्डू बहुत प्रिय हैं ,जो आनंद और कल्याण देने वाले हैं, विद्या के अथाह सागर हैं, बुद्धि के विधाता है॥३॥ऐसे श्री गणेश जी से यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर मांगता है कि मेरे मन मंदिर में श्री सीताराम जी सदा निवास करें॥४॥
श्री सीतारामाभ्यां नम:

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

क्रोध करने के नुकसान और परिणाम

                      क्रोध  करने के नुकसान और परिणाम


       जो व्यक्ति बदले की भावना रखता है दरअसल वो अपने ही घाव हरे रखता है। एक इंसान गुस्से में अपना मुंह खोल लेता है और आंखें बंद कर लेता है जिससे उसे कुछ दिखाई नहीं देता है और वो काले अंधेरे में कुछ भी कर बैठता है , लेकिन ध्यान रहें ये अंधेरा आपके साथ भी कुछ भी कर सकता हैं।

    गुस्सा एक तरह का पागलपन है जो बेवकूफों के दिल में ही बसता है ये एक ऐसी हवा है जो बुद्धि के दिया को बुझा देती है। कोई भी गुस्सा हो सकता है ये करना आसान है। लेकिन सही इंसान पर सही सीमा में सही समय पर और सही वजह से और सही तरीके के साथ क्रोधित होना आसान नहीं हैं।

     गुस्से के कारण की तुलना में उसके परिणाम ज्यादा जोखिम भरे होते है। क्रोध को पाले रखना किसी और पर फेकने की नियत से पकड़े रहने के जैसा है इससे आपका ही हाथ जलता हैं।

    गुस्से पर अगर काबू (control) न किया जाए तो वो जिस चोट के कारण आया हो उससे कही ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे माचिश की तिल्ली किसी दुसरे को जलाने से पहले खुद को जलाती है इसी तरह गुस्सा पहले आपको बर्बाद करता है उसके बाद दुसरे को।

        मतलब, क्रोध गुस्सा करने वाले को हमेशा ज्यादा नुकसान पहुंचाता है बजाय उसके जिस पर आप गुस्सा होते है। क्रोध आने पर चिल्लाने के लिए ताकत चाहिए लेकिन क्रोध आने पर चूप रहने के लिए उससे भी ज्यादा ताकत चाहिए।

     गुस्से में बोला गया हर एक शब्द इतना ज्यादा जहरीला बन जाता है की आपकी जिंदगी की हर प्यारी बातों को एक मिनट में खत्म कर सकता है ये एक बहुत चालाक चीज है और ये हमेशा कमजोर लोगों पर ही निकलता है।

        अगर आप सही है तो आपको क्रोधित होने की जरूरत नहीं है और अगर आप गलत है तो आपको गुस्सा होने का कोई हक़ नहीं है। क्रोध एक भयानक आग की तरह है जो इंसान इस आग को वश में कर लेता है वो इसे बुझा देता है। और जो इसे वश में नहीं कर पाता है वो इस आग में खुद जल जाता है। क्रोध एक ऐसी परिस्थिति है जिसमे जीभ दिमाग से ज्यादा तेज चलती है। गुस्से में किसी को कोई जवाब न दो, बहुत खुश होने पर किसी से कभी वादा मत करो और दु:खी मन से कोई फैसला मत करो।

       जैसे उबलते हुए पानी में परछाई नहीं दिखती है वैसे ही गुस्से में कोई भी इंसान सच नहीं देख सकता। इसलिए 2 कोड़ी की बात पर 2 करोड़ का गुस्सा करना फायदे की बात नहीं ।

अगर आप क्रोध पर काबू पाना चाहते हैं तो जब हमे क्रोध आए तो क्या करें?इस पेज पर देख सकते हैं

    

सोमवार, 6 सितंबर 2021

सत्संग बड़ा है या तप

                     ------ सत्संग बड़ा है या तप ------


एक बार विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी में इस बात‌ पर बहस हो गई,

कि सत्संग बड़ा है या तप?

विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या करके ऋध्दी-सिध्दियों को प्राप्त किया था,

इसीलिए वे तप को बड़ा बता रहे थे।जबकि वशिष्ठ जी सत्संग को बड़ा बताते थे।

वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए।

उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूं।

आप विष्णु जी के पास जाइये।

विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देगें।अब दोनों विष्णु जी के पास चले गए।

विष्णु जी ने सोचा- यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे,

और यदि तप को बड़ा बताता हूं तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा।

इसीलिए उन्होंने भी यह कहकर उन्हें टाल दिया,कि मैं सृष्टि का पालन करने मैं व्यस्त हूं।

आप शंकर जी के पास चले जाइये।अब दोनों शंकर जी के पास पहुंचे।

शंकर जी ने उनसे कहा- ये मेरे वश की बात नहीं है।इसका फैसला तो शेषनाग जी कर सकते हैं।

अब दोनों शेषनाग जी के पास गए।

शेषनाग जी ने उनसे पूछा- कहो ऋषियों! कैसे आना हुआ।

वशिष्ठ जी ने बताया- हमारा फैसला कीजिए,कि तप बड़ा है या सत्संग बड़ा है?

विश्वामित्र जी कहते हैं कि तप बड़ा है,और मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं।

शेषनाग जी ने कहा- मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूं,

यदि आप में से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा ले,

तो मैं आपका फैसला कर दूंगा।

तप में अहंकार होता है,और विश्वामित्र जी तपस्वी थे।

उन्होंने तुरन्त अहंकार में भरकर शेषनाग जी से कहा- पृथ्वी को आप मुझे दीजिए।

विश्वामित्र ने पृथ्वी अपने सिर पर ले ली।अब पृथ्वी नीचे की और चलने लगी।

शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! रोको।पृथ्वी रसातल को जा रही है।

विश्वामित्र जी ने कहा- मैं अपना सारा तप देता हूं,पृथ्वी रूक जा।परन्तु पृथ्वी नहीं रूकी।

ये देखकर वशिष्ठ जी ने कहा- मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूं,

पृथ्वी माता रूक जा। पृथ्वी वहीं रूक गई।

अब शेषनाग जी ने पृथ्वी को अपने सिर पर ले लिया,और उनको कहने लगे- अब आप जाइये।

विश्वामित्र जी कहने लगे- लेकिन हमारी बात का फैसला तो हुआ नहीं है।

शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! फैसला तो हो चुका है।

आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रूकी,

और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रूक गई।

फैसला तो हो गया है कि तप से सत्संग ही बड़ा होता है। 

----- इसीलिए ------

हमें नियमित रूप से सत्संग सुनना चाहिए।कभी भी या जब भी, आस-पास कहीं सत्संग हो,उसे सुनना और उस पर अमल करना चाहिए।

------ सत्संग की आधी घड़ी ------

------ तप के वर्ष हजार ------

------ तो भी नहीं बराबरी ------

------ संतन कियो विचार ------

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