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मंगलवार, 28 मई 2024

तुलसीदास जी को वृन्दावन में राम दर्शन

                   तुलसीदास जी को वृन्दावन में राम दर्शन 


तुलसीदास जी जब वृन्दावन आये। तुलसीदास जी जानते थे राम ही कृष्ण है,और कृष्ण ही राम है। वृन्दावन में सभी भक्त जन राधे-राधे बोलते है। तुलसीदास जी सोच रहे है कोई तो राम राम कहेगा। लेकिन कोई नही बोलता। जहाँ से देखो सिर्फ एक आवाज राधे राधे। श्री राधे-श्री राधे।

क्या यहाँ राम जी से बैर है लोगो का। देखिये तब कितना सुन्दर उनके मुख से निकला-

वृन्दावन ब्रजभूमि में कहाँ राम सो बेर

राधा राधा रटत हैं आक ढ़ाक अरू खैर।

जब तुलसीदास ज्ञानगुदड़ी में विराजमान श्रीमदनमोहन जी का दर्शन कर रहे थे। श्रीनाभाजी एवं अनेक वैष्णव इनके साथ में थे।

इन्होंने जब श्रीमदनमोहन जी को दण्डवत प्रणाम किया तो परशुरामदास नाम के पुजारी ने व्यंग किया-

अपने अपने इष्टको, नमन करे सब कोय।

बिना इष्ट के परशुराम नवै सो मूरख होय।।

श्रीगोस्वामीजी के मन में श्रीराम—कृष्ण में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण आपने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से कहा। हे ठाकुर जी! हे राम जी! मैं जनता हूँ की आप ही राम हो आप ही कृष्ण हो लेकिन आज आपके भक्त में मन में भेद आ गया है।

आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी आप राम बन जाइये ना!

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ।

तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ।।

ये मन की बात बिहारी जी जान गए और फिर देखिये क्या हुआ-

कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ।

अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ।।

देखिये कहाँ तो कृष्ण जी बांसुरी लेके खड़े होते है गोपियों और श्री राधा रानी के साथ लेकिन आज भक्त की पुकार पर कृष्ण जी साक्षात् रघुनाथ बन गए है। और हाथ में धनुष बाण ले लिए है।

।।जय श्री राधे।।

तुलसीदास जब वृन्दावन गए,और खीर के प्रसाद के लिए उनके पास कोई भी पात्र नहीं था तो उन्होंने किसमें खीर खानी चाही?

                         तुलसीदास जब वृन्दावन गए,और खीर के प्रसाद के लिए उनके पास कोई भी पात्र नहीं था तो उन्होंने किसमें खीर खानी चाही?


तुलसीदास उस समय वृन्दावन में ही ठहरे थे। वे भंडारों में विशेष रुचि नहीं रखते थे लेकिन भगवान शंकर ने गोस्वामीजी को नाभा जी के भंडारे में जाने की आंतरिक प्रेरणा दी।

तुलसीदास जी ने भगवान शंकर की आज्ञा का पालन किया और नाभा जी के भंडारे में जाने के लिए चल दिए। लेकिन थोड़ी देर हो गई। जब गोस्वामी जी वह पहुंचे तो वह संतो की बहुत भीड़ थी उनको कही बैठने की जगह नहीं मिली तो जहा संतो के जूते-चप्पल(पनहियाँ) पड़े थे वो वही ही बैठ गए। अब सभी संत जान भंडारे का आनंद ले रहे थे और अपने अपने पात्र साथ लए थे जिसमे प्रशाद डलवा रहे थे। आज भी वृन्दावन की रसिक संत भंडारे में अपने-अपने पात्र लेकर जाते है। तुलसीदास जी कोई पात्र(बर्तन) नही लाये।

अब भंडारा भी था तो खीर का था क्योकि हमारे बांकेबिहारी को खीर बहुत पसंद है आज भी राजभोग में 12 महीने खीर का ही भोग लगता है, अब जो प्रसाद बाँट रहा था वो गोस्वामी जी के पास आये और कहा बाबा -तेरो पात्र कहा है तेरो बर्तन कहा है। बर्तन हो तो कुछ जवाब दे। उसने कहा की बाबा जाओ कोई बर्तन लेकर आओ, मै किसमें तोहे खीर दूँ। इतना कह कर वह चला गया थोड़ी देर बाद फिर आया तो देखा बाबा जी वैसे ही बैठे है ,फिर उसने कह बाबा मैंने तुमसे कहा था की बर्तन ले आओ मै तोहे किसमें खीर दूँ ?


इतना सुनते ही तुलसी दास मुस्कराने लगे और वही पास में एक संत का जूता पड़ा था वो जूता परोसने वाले के सामने कर दिया और कहा इसमें खीर डाल दो।

तो वो परोसने वाला तो क्रोधित को उठा बोला – बाबा! पागल होए गयो है का-इसमें खीर लोगे? उलटी सीधी सुनाने लगा संतो में हल चल मच गई श्री नाभा जी वहाँ दौड़े आये।

तो गोस्वामी जी के आँखों में आशू भर आये और कहा की ये जूता संत का है और वो भी वृन्दावन के रसिक संत का , और इस जूते में ब्रजरज पड़ी हुई है और ब्रजरज जब खीर के साथ अंदर जाएगी तो मेरा अंतःकरण पवित्र हो जायेगा।

जैसे ही सबने गोस्वामी जी की ये बात सुनी तो उनके चरणों पर गिर पड़े। सर्व वन्ध महान संत के ऐसे दैन्य को देखकर सब संत मंडली अवाक् रह गई सबने उठकर प्रणाम किया। उस परोसने वाले ने तो शतवार क्षमा प्रार्थना की।

ऐसे है तुलसीदास जी महाराज।(तुलसीदास और श्री राम मिलन कथा)

धन्य है वृन्दावन , धन्य है वह रज जहा पर हमारे प्यारे और प्यारी जू के चरण पड़े है, ये भूमि राधारानी की भूमि है यदि हम वृन्दावन में प्रवेश करते है तो समझ लेना की ये राधारानी की कृपा है जो हमें वृन्दावन आने का न्यौता मिला।


पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की एक दिव्यांग बालक पर कृपा

पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की एक दिव्यांग बालक पर कृपा 

पूज्य डोंगरे जी महाराज भागलपुर मध्यप्रदेश में भागवत कथा कर रहे थे सन् १९७१ में , वहाँ माता रुक्मणी बाई जी की संस्था थी जो गरीब असहाय, विधवा और पीड़ित महिलाओं को आश्रय देकर भजन कीर्तन प्रभु स्मरण में लगाती थी। पूज्य डोंगरे जी महाराज या तो स्वयं बनाकर पाते थे या कभी किसी गरीब वात्सल्यमयी माँ रूपी जन से।  वही जब एक दिवस कथा का विश्राम हुआ तो एक गरीब माँ ने आग्रह किया कि आज इस माँ के हाथ से बनाया हुआ पा लीजिए।  पूज्य डोंगरे जी महाराज किसी भी स्त्री को दृष्टि ऊपर कर के नहीं देखते थे ; हमेशा चरणों में दृष्टि रखते थे और कथा भी नीचे दृष्टि रख कर ही करते थे ।
माता का अधिक आग्रह और वात्सल्य देखकर दया कृपा भाव से पूज्य महाराज जी ने मंच से ही कहा कि अपने बालक के हाथों भेज दो यहाँ । माता का बालक दिव्यांग था । उसकी बाईं टांग  बचपन से ही पोलियो ग्रस्त थी और बालक की उम्र ११-१२ वर्ष थी और इसी लाइलाज रोग और ग़रीबी के कारण ही उसके पति ने उसे छोड़ दिया था और वे पूज्य रुक्मणी बाई जी के आश्रम में ही रह रही थी । माता ने रोते हुए कहा कि महाराज जी इसकी टाँग ख़राब है ; ये घिसट घिसट कर आयेगा तो भोजन प्रशाद गिरा देगा। पूज्य महाराज जी ने बालक को अपनी और आने का संकेत किया और उसको घिसटता देखकर पूज्य महाराज जी को दया आ गई और जैसे पूज्य डोंगरे जी महाराज एक बालकृष्ण का विग्रह सामने रखकर ही कथा करते थे उसकी और देखकर ही तो उस बालक को वही रोक कर कहा कि तेरी माता तेरी सारी सेवा करती है गोद में ले कर । अगर तू मुझे वचन दे कि तू भी अंतिम समय तक ऐसे ही सेवा करेगा तो इस बालकृष्ण के विग्रह की और देखकर शपथ कर। उस बालक ने रोते हुए कहा कि मैं अपनी माँ की हमेशा सेवा करूँगा और और जैसे ही पूज्य महाराज जी ने कहा कि अब खड़ा हो कर ये भोजन प्रशाद देने आ तो तभी उसमें चलने का सामर्थ्य आ गया और रोग हमेशा के लिए दूर हो गया और सुना ये भी जाता है कि बाद में उस आश्रम की उसी बालक ने ईमानदारी से देखभाल  की ।
ये आश्रम वही है जिसके लिये पूज्य राधा बाबा ने माता रुक्मिणी को आश्रम के निर्माण में आर्थिक सहयोग के लिय पूज्य डोंगरे जी महाराज जी की कथा कराने को कहा था और प्रथम दिवस ही दानपेटी में 24 लाख 90 या 91 हज़ार रुपये गुप्त दान के रूप  में प्राप्त हुए थे ।

सोमवार, 27 मई 2024

भगवान को भेंट (भगवान को चढ़ावे की जरूरत नहीं होती वे तो केवल––)

  भगवान को भेंट (भगवान को चढ़ावे की जरूरत नहीं होती वे तो केवल––)


पुरानी बात है एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था। जो भी जरुरी काम हो सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था l वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था।

          एक दिन उस ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा- भाई ! "मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100 रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना।" भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया।

         कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा। मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है। संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा। 

             फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं। उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ। 

              उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े। उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा l

           जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा पैसे चढ़ा दिए। सेठ यह तो नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दिए मैं बोल दूंगा कि, पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा।

         भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं।

        उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए। सेठ जाग गया सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा ईमानदार है,

         पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए भगवान को कम चढ़ाए ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा।

         काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थे  ? भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए। सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए। 

        तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुरजी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए l

     भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए।

मेरी निजी सोच है कि भगवान को चढ़ावे की जरूरत नही होती। सच्चे मन से किसी जरूरतमंद की जरूरत को पूरा कर देना भी भगवान को भेंट चढ़ाने से भी कहीं ज्यादा अच्छा होता है ! मैं मानता हूं कि हम उस परमात्मा को क्या दे सकते हैं जिसके दर पर हम ही भिखारी हैं।

।।जय श्री राधे।।


शनिवार, 11 मई 2024

कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।

                कलयुग के दोषों से बचा जा सकता है।


कलयुग– के– दोषों– से –बचा– जा– सकता– है।


राम नाम का आश्रय लेने वाले ही कलयुग के दोषों से बचते हैं अन्यथा बड़े से बडा भी कोई बच नहीं सकता है। एक संत सुदामा कुटी में रहते हैं उन्होंने बताया कि मेरे सामने कलयुग आया और उसने यह बात कही। इस दिन से अब मैं समय से राम मंत्र जपता हूं भगवान का नाम, रूप, लीला, धाम यह चारों समान है। इनमें एकता रहती है। इनमें से एक का भी आश्रय यदि कोई लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है। इन चारों में से नाम सबसे ज्यादा सुलभ है। नाम लेने में कोई विधि विधान नहीं, अपवित्रता पवित्रता की भी आवश्यकता नहीं। यदि छल,कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि को छोड़कर नाम लेता है तो उसका अवश्य कल्याण हो जाता है। प्रभु के नाम में विश्वास रखकर उसके अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। उसके बदले में दूसरी कामना नहीं करनी चाहिए। हमारे भीतर बाहर की सारी बातों को परमात्मा जानता है। हमारे ऊपर प्रभु कृपा है स्वयं अनुभव करना चाहिए।

।।जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्तमाली श्री गणेशदास जी महाराज के श्री मुख से, परमार्थ के पुत्र पुष्प से लिया गया।

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए

      जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए


जन्म जन्मांतर- के- अशुभ- संस्कारों- को- मिटाने- के- लिए

जन्म जन्मांतर के अशुभ संस्कारों को मिटाने के लिए निरंतर नाम जप आदि साधन आवश्यक है। श्रेष्ठ नाम स्मरण ही है। दूसरे साधनों की योग्य हम नहीं हैं। आवश्यक कामकाज करने के बाद या करते-करते भी नाम जप का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। नाम में प्रेम होना और भगवान में प्रेम होना एक ही बात है। नाम जप के साथ ही यह नहीं सोचना चाहिए कि हमें सिद्धि नही मिली, कोई अनुभव नहीं हो रहे हैं   नाम जप में एकाग्रता के बढ़ जाने पर विषयों से वैराग्य हो जाएगा, अंत:करण यानी मन, बुद्धि, चित् अहंकार की शुद्ध हो जाएगी। तब स्वयं दिव्य अनुभव होने लग जाएंगे। नाम जप को ध्यानपूर्वक करना चाहिए या बिना ध्यान के? ऐसा कोई प्रश्न करें तो उसका उत्तर यह है कि ध्यान सहित नाम का जप अतिश्रेष्ठ है, परंतु आरंभ में यदि ध्यान सहित नाम जप नहीं बने तो बिना ध्यान के भी नाम जप करना चाहिए पर जप करते समय मन को इधर-उधर अनिष्ट विषयों में नहीं जाना चाहिए। जाए तो रोकना चाहिए। लीला चिंतन या रूप चिंतन, शोभा चिंतन, धाम चिंतन जो भी संभव हो करना चाहिए। उसे नाम जप के साथ करना चाहिए। कीर्तन करते समय गाने में मन को एकाग्र करना चाहिए। नाम के अर्थ अथवा लिखे हुए नाम में भी मन लगाना चाहिए। कृपा करके जीव के ऊपर भगवान ही नाम के रुप में प्रकट होते हैं। अपने नाम जप का प्रचार ना करके उसे गुप्त रखना चाहिए।किसी साधक को नाम जप में लगाने के लिए अपना नाम जप भजन कहा, बताया जा सकता है। अहंकार ना हो, बड़प्पन ना आवे, इसका ध्यान रखना चाहिए।

।। जय श्री राधे।।

दादा गुरु भक्त माली श्री गणेश दास जी महाराज के श्री मुख से परमार्थ के पत्र पुष्प में से लिया गया।

गुरुवार, 9 मई 2024

रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं। का अर्थ

 गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बड़े मजे की बात कही है -

रवि- पंचक- जाके- नहीं , ताहि- चतुर्थी- नाहिं। का अर्थ


कृपया बहुत ध्यान से पढ़े एवं इन लाइनों का भावार्थ समझने की कोशिश करे-


" रवि पंचक जाके नहीं , ताहि चतुर्थी नाहिं।

तेहि सप्तक घेरे रहे , कबहुँ तृतीया नाहिं।।"


गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जिसको रवि पंचक नहीं है , उसको चतुर्थी नहीं आयेगी। उसको सप्तक घेरकर रखेगा और उसके जीवन में तृतीया नहीं आयेगी। मतलब क्या हुआ ? 

रवि -पंचक का अर्थ होता है - रवि से पाँचवाँ यानि गुरुवार ( रवि , सोम , मंगल , बुद्ध , गुरु ) अर्थात् जिनको गुरु नहीं है , तो सन्त सद्गुरु के अभाव में उसको चतुर्थी नहीं होगी।चतुर्थी यानी बुध ( रवि , सोम , मंगल, बुध ) अर्थात् सुबुद्धि नहीं आयेगी। सुबुद्धि नहीं होने के कारण वह सन्मार्ग पर चल नहीं सकता है। सन्मार्ग पर नहीं चलनेवाले का परिणाम क्या होगा ? ' तेहि सप्तक घेरे रहे ' सप्तक क्या होता है ? शनि ( रवि , सोम मंगल , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि ) अर्थात् उसको शनि घेरकर रखेगा और ' कबहुँ तृतीया नाहिं।' तृतीया यानी मंगल ( रवि , सोम , मंगल )। उसके जीवन में मंगल नहीं आवेगा । इसलिए अपने जीवन में मंगल चाहते हो , तो संत सद्गुरु की शरण में जाओ ।

।।जय श्री राधे।।

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