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सोमवार, 6 अगस्त 2018

यमुना स्तुति भावार्थ के साथ(विनय पत्रिका)

                                यमुना स्तुति

जमुना ज्यों-ज्यों लागी बाढन। 
त्यों त्यों  सुकृत - सुभट कली भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न॥१॥ 
ज्यों ज्यों जल मलिन त्यों त्यों  जमगन मुखमलीन लहै आढ़ न। 
तुलसीदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न॥२॥ भावार्थ-
यमुना जी
जैसे जैसे बढने लगी, वैसे ही पुण्य रूपी योद्धागण कलयुग रूपी राजा का निरादर करते हुए उसे निकालने लगे। बरसात में यमुना जी का जल बढ़कर जो जो मैला होने लगा, त्यों त्यों यमदूतों का मुख भी काला होता गया, अंत में उन्हें कोई भी आसरा नहीं रहा, अब वह  किस को यमलोक में ले जाएं। तुलसीदास जी कहते हैं कि यमुनाजी के बढ़ते हुए पुण्य रूपी मेघ ने संसार के पाप रूपी जवासे को जलाकर भस्म कर डाला। 

गंगा स्तुति( विनय पत्रिका)

                                 गंगा स्तुति(विनय पत्रिका)

जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि चय चकोर - चंदनी,
नर - नाग- विबुध- बंदिनी जय जह्नु बालिका।
विष्णुपद सरोजजासी, ईस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुण्यराशि, पापछालिका॥१॥
विमल विपुल बहसि बारी, शीतल त्रयताप - हारी,
भंवर बर बिभंगतर तरंग मलिका।
पुरजन पूजाेपहार, शोभित शशि धवलदार,
भंजन भव भार, भक्ति कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पशु पतंग 
की, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तब तीर तीर सुमिरत रघुवंश बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥
 भावार्थ- हे भगीरथ नंदिनी! तुम्हारी जय हो ,जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य नाग, देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। यह जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो  शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीन मार्गो से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्य की राशि और पापों को धोने वाली हो। तुम आगाध निर्मल जल को धारण किए हो। वह जल शीतल और तीनों तापों को हरने वाला है  तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।नगर- निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्री भेंट चढ़ाई हैं, उनसे तुम्हारी चंद्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म - मरण रूप भार को नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हारूप है। तुम अपनी तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग की औल जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए काली का रूप गंगाजी ! मुझे ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करें। 

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

सब के सब सुखी हो जाए

       
           सभी लोग एक दूसरे के सुख की कामना करें
  गीता आश्रम में ऋषिकेश मे एक संत हुए स्वामी रामसुखदास जी उन्हीं के मुख से बोले गए ये प्रवचन हैं जिसमें वह बता रहे हैं कि यदि हमने ईश्वर को अपना मान लिया है तो इस संसार में रहने वाली प्रत्येक जीव और निर्जीव ईश्वर के ही हैं । तो हमें उन सब का भी आदर , प्यार और सहायता करनी चाहिए।
प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा। केवल हम ही भगवान से विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए। हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
(मानसअरण्य ११। २१)
मीराबाई इतनी ऊँची हुई, इसका कारण उसका यह भाव था कि ।‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा कोई मेरा नहीं है।
सज्जनो ! हम भगवान् के हो जाते हैं तो भगवान् की सृष्टिके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है। यह सब सृष्टि प्रभुकी है, ये सभी हमारे मालिक के हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा। त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा। इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही, हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा, हम संसारसे मुक्त हो जायँगे। अत: हम भगवान के होकर भगवान का काम करें। ये सब प्राणी भगवान के हैं, इन सबकी सेवा करें। अपना यह भाव बना लें—
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥
सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब नीरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मङ्गल-ही-मङ्गल हो, कभी किसीको दु:ख न हो— ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं।(स्वामी रामसुखदासजी के श्री मुख से ) 

देवि स्तुति भावार्थ के साथ (विनय पत्रिका)

                                 देवि स्तुति(विनय पत्रिका)

 जय जय जग जननी देवी सुर- नर- मुनि - असुर सेवि, 
भुक्ति- मुक्ति- दायिनी, भय-हारणि कालिका। 
मंगल - मुद-सिद्धि- सदनि  पर्वशर्वरीश-वदनि, 
ताप-तिमिर- तरुण - तरणि- किरणमालिका॥१॥
 वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल- शैल- धनुषबाण,
 धरणि दलनि दानव दल, रण-करालिका।
 पूतना- पिशाच - प्रेत - डाकिनी- शाकिनी - समेत, 
भूत-ग्रह- बेताल खग- मृगाली- जालिका॥२॥
 जय महेश -भामिनी, अनेक रुप नामिनी ,
समस्त लोकस्वामनी, हिमशैल बालिका ।
रघुपति -पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम, 
देहु ह्वै प्रसन्न  पाहि प्रणत- पालिका॥३॥
 भावार्थ- हे जगत की माता! हे देवी!! तुम्हारी जय हो, जय हो देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम भोग और मोक्ष दोनों को ही देने वाली हो ।भक्तों का भय दूर करने के लिए तुम कालिका हो ,कल्याण सुख और सिद्धियों की शान हो, तुम्हारा सुंदर मुख पूर्णिमा के चंद्र के सदृश है। तुम आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक ताप रुपी अंधकार का नाश करने के लिए मध्याह्न के तरुण सूर्य की किरण माला हो॥१॥ तुम्हारे शरीर पर कवच है। तुम हाथों में ढाल ,तलवार ,त्रिशूल, सांगी और धनुष बाण लिए हो। दानवों के दल का संहार करने वाली हो ,रण में विकराल रूप धारण कर लेती हो। तुम पूतना, पिशाच, प्रेत और डाकिनी शाकनियों के सहित भूत ग्रह और बेताल रूपी पक्षी और मृर्गों के समूह को पकड़ने के लिए जागरूक हो॥२॥ हे शिवे! तुम्हारी जय हो।। तुम्हारे अनेक रूप और नाम है। तुम समस्त संसार के स्वामिनी और हिमाचल की कन्या हो। हे शरणागत की रक्षा करने वाली! में तुलसीदास श्री रघुनाथ जी के चरणों में परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूं, तो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो। 

शिव स्तुति (विनय पत्रिका)

                               शिव स्तुति
 श्री तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में भगवान शिव से विनय करके भगवान राम की कृपा पाने का अनुरोध किया है। उनका मानना है यदि शिव प्रसन्न हो जाएंगे तो ,वह भगवान राम से मेरी सिफारिश कर देंगे ,और भगवान राम मेरी और देख कर मुझ पर कृपा कर देंगे-

दानी कहूंँ शंकर सम- नाही।
दीन - दयालु दिबोई भावेै, जाचक सदा सोहाही॥१॥
मारिकै मार थप्यौ जग में, जाकी प्रथम रेख भट माही।
ता ठाकुर कोै रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाही॥२॥जोक कोटि करि जो गति हरिसों, मुनी मांगत सकुचाहीं।
वेद- विदित तेहि पद पूरारी-पुर, कीट-पतंग समाही॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनंत जे जाचन जाहीं। तुलसीदास थे मूढ़ मांगने, कबहुं ना पेट आघाही॥४॥
भावार्थ - शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वह दीन- दयालु है। देना ही उनके मन भाता है, मांगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं॥१॥ वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म कर के फिर बिना ही शरीर जगत में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु को प्रसन्न होकर कुछ कृपा करना मुझसे क्यों कर कहा जा सकता है। करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनिगण जिस परम गति को भगवान श्री हरि से मांगते हुए सकुचाते हैं। वही परमगति त्रिपुरारी शिव जी की पुरी काशी में कीट पतंगे भी पा जाते हैं, यह वेदों में प्रकट है॥३॥ ऐसे परम उदार भगवान पार्वतीपति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह मांगने जाते हैं, उन मुर्ख मांगने वालों का पेट भली-भांति कभी नहीं भरता॥४॥

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

सूर्य स्तुति

                                  सूर्य स्तुति

 यह स्तुति तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में कही है-

दीन- दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा॥१॥ हिम- तम- करी- केहरि करमाली। दहन दोष - दुख - दुरित - रुजाली॥२॥
 कोक- कोकनद- लोक- प्रकाश।तेज- प्रताप- रूप - रस -रासी॥३॥
सारथी- पंगु,दिव्य रथ- गामी।हरि-शंकर-बिधि-मूरति स्वामी॥४॥
वेद- पुराण, प्रगट जस जागे। तुलसी राम-भगति वर मांगे ॥५॥

भावार्थ- हे दीन दयालु भगवान सूर्य! मुनि ,मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं॥१॥आप पाले और अंधकार रुपी हाथियों को मारने वाले वनराज सिंह हैं। किरणों की माला पहन रहते हैं; दोष, दुख, दुराचार और रोगों को भस्म कर डालते हैं॥२।। रात के बिछड़े हुए चकवा चकवियों को मिलाकर प्रसन्न करने वाले, कमल को खिलाने वाले तथा समस्त लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं। तेज, प्रताप, रूप और रस कि आप खानी है॥३॥ आप दिव्य रथ पर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लूला है। हे स्वामी! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा जी के ही रूप हैं।।४॥ वेद- पुराणों में आपकी कीर्ति जगमगा रही है।तुलसीदास आपसे श्री राम भक्ति का वर मांगता है॥५॥ 

बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय का शेष

        श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय
          ( स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से)
 भगवान् 'विवस्वते प्रोक्तवान् पदोंसे साधकोंको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करनेपर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकोंको भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन स्वयं करते रहना चाहिये (गीता—तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और दूसरोंको भी कर्मयोगकी शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये।
 सृष्टिमें सूर्य सबके आदि हैं। सृष्टिकी रचनाके समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्पमें थे, वैसे ही प्रकट हुए—'सूर्याचन्द्रमसौ धातायथापूर्वमकल्पयत्’। उन (सबके आदि) सूर्यको भगवान्ने अविनाशी कर्मयोगका उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोगकी बात बता रहा हूँ, वह कोई आजकी नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टिके आदिसे अर्थात् सदासे है, उसी योगकी बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
 प्रश्नभगवान्ने सृष्टिके आदिकालमें सूर्यको कर्म- योगका उपदेश क्यों दिया?
 उत्तर(१) सृष्टिके आरम्भमें भगवान्ने सूर्यको ही कर्मयोगका वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस
योगका उपदेश दिया।
 (२) सृष्टिमें जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, उसे ही उपदेश दिया जाता है; जैसे—ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें प्रजाओंको उपदेश दिया (गीता—तीसरे अध्यायका दसवाँ श्लोक)। उपदेश देनेका तात्पर्य है—कर्तव्यका ज्ञान कराना। सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति हुई, फिर सूर्यसे समस्त लोक उत्पन्न हुए। सबको उत्पन्न करनेवाले१ सूर्यको सर्वप्रथम कर्मयोगका उपदेश देनेका अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टिको परम्परासे कर्मयोग सुलभ करा देना था।
 (३) सूर्य सम्पूर्ण जगत्के नेत्र हैं। उनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदित होनेपर प्राय: समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें लग जाते हैं। सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्य-परायणता आती है। सूर्यको सम्पूर्ण जगत्की आत्मा भी कहा गया है—'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।’ अत: सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगा, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वत: प्राप्त हो जायगा। इसलिये भगवान्ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया।
 वास्तवमें नारायणके रूपमें उपदेश देना और सूर्यके रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान्की एक लीला ही समझनी चाहिये, जो संसारके हितके लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर-ऋषिके अवतार थे; परन्तु लोकसंग्रहके लिये उन्हें भी उपदेश लेनेकी आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान्ने स्वयं ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसारका महान् उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा।
 'विवस्वान् मनवे प्राहमनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्— कर्मयोग गृहस्थोंकी खास विद्या है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—इन चारों आश्रमोंमें गृहस्थ- आश्रम ही मुख्य है; क्योंकि गृहस्थ-आश्रमसे ही अन्य आश्रम बनते और पलते हैं। मनुष्य गृहस्थ-आश्रममें रहते हुए ही अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर सकता है। उसे परमात्मप्राप्तिके लिये आश्रम बदलनेकी जरूरत नहीं है। भगवान्ने सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओंका नाम लेकर यह बताया है कि कल्पके आदिमें गृहस्थोंने ही कर्मयोगकी विद्याको जाना और गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही उन्होंने कामनाओंका नाश करके परमात्म-तत्त्वको प्राप्त किया। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गृहस्थ थे। इसलिये भगवान् अर्जुनके माध्यमसे मानो सम्पूर्ण गृहस्थोंको सावधान (उपदेश) करते हैं कि तुमलोग अपने घरकी विद्या 'कर्मयोग’ का पालन करके घरमें रहते हुए ही परमात्माको प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें दूसरी जगह जानेकी जरूरत नहीं है।
 गृहस्थ होनेपर भी अर्जुन प्राप्त कर्तव्य-कर्म-(युद्ध-) को छोड़कर भिक्षाके अन्नसे जीविका चलानेको श्रेष्ठ मानते हैं (गीता—दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) अर्थात् अपने कल्याणके लिये गृहस्थ-आश्रमकी अपेक्षा संन्यास- आश्रमको श्रेष्ठ समझते हैं। इसलिये उपर्युक्त पदोंसे भगवान् मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघरानेके श्रेष्ठ गृहस्थ हो, कर्मयोग तुम्हारे घरकी खास विद्या है, इसलिये इसीका पालन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। संन्यासीके द्वारा जो परमात्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है, वही तत्त्व कर्मयोगी गृहस्थाश्रममें रहकर भी स्वाधीनतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। अत: कर्मयोग गृहस्थोंकी तो मुख्य विद्या है, पर संन्यास
आदि अन्य आश्रमवाले भी इसका पालन करके परमात्म- तत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है। अत: कर्मयोगका पालन किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, काल आदिमें किया जा सकता है।
 किसी विद्यामें श्रेष्ठ और प्रभावशाली पुरुषोंका नाम लेनेसे उस विद्याकी महिमा प्रकट होती है, जिससे दूसरे लोग भी वैसा करनेके लिये उत्साहित होते हैं। जिन लोगोंके हृदयमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व है, उनपर ऐश्वर्यशाली राजाओंका अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिये भगवान् सृष्टिके आदिमें होनेवाले सूर्यका तथा मनु आदि प्रभावशाली राजाओंके नाम लेकर कर्मयोगका पालन करनेकी प्रेरणा करते हैं।
विशेष बात
 क्रियाओं और पदार्थोंमें राग होनेसे अर्थात् उनके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे कर्मयोग नहीं हो पाता। गृहस्थमें रहते हुए भी सांसारिक भोगोंसे अरुचि (उपरति अथवा कामनाका अभाव) होती है। किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है—यह नियम है। आरम्भमें भोगकी जितनी रुचि (कामना) रहती है, भोग भोगते समय वह उतनी नहीं रह जाती, प्रत्युत क्रमश: घटते-घटते समाप्त हो जाती है; जैसे—मिठाई खानेके आरम्भमें उसकी जो रुचि होती है, वह उसे खानेके साथ-साथ घटती चली जाती है और अन्तमें उससे अरुचि हो जाती है। परन्तु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचिको ही तृप्ति (फल) मान लेता है। परन्तु वास्तवमें अरुचिमें थकावट अर्थात् भोगनेकी शक्तिका अभाव ही होता है।
 जिस रुचि या कामनाका किसी भी समय अभाव होता है, वह रुचि या कामना वास्तवमें स्वयंकी नहीं होती। जिससे कभी भी अरुचि होती है, उससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता। जिससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध है, उस सत्-स्वरूप परमात्मतत्त्वकी ओर चलनेमें कभी अरुचि नहीं होती, प्रत्युत रुचि बढ़ती ही जाती है—यहाँतक कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी 'प्रेम’के रूपमें वह रुचि बढ़ती ही रहती है। 'स्वयं’ भी सत्-स्वरूप है, इसलिये अपने अभावकी रुचि भी किसीकी नहीं होती।
 कर्म, करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) और उपकरण (पदार्थ अर्थात् कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री)—ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं, फिर इनसे मिलनेवाला फल कैसे नित्य होगा? वह तो नाशवान् ही होगा। अविनाशीकी प्राप्तिसे जो तृप्ति होती है, वह नाशवान् फलकी प्राप्तिसे कैसे हो सकती है? इसलिये साधकको कर्म, करण और उपकरण—तीनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद करना है। इनसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा, जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा, अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं मानेगा; प्रत्युत अपने कहलानेवाले कर्म, करण और उपकरण—इन तीनोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये इन्हें संसारका ही मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देगा।
 कर्म करते हुए भी कर्मयोगीकी कर्मोंमें कामना, ममता और आसक्ति नहीं होती, प्रत्युत उनमें प्रीति और तत्परता होती है। कामना, ममता तथा आसक्ति अपवित्रता करने- वाली हैं और प्रीति तथा तत्परता पवित्रता करनेवाली हैं। कामना, ममता तथा आसक्तिपूर्वक किसी भी कर्मको करनेसे अपना पतन और पदार्थोंका नाश होता है तथा उस कर्मकी बार-बार याद आती है अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध बना रहता है। परन्तु प्रीति तथा तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे अपनी उन्नति और पदार्थोंका सदुपयोग होता है, नाश नहीं; तथा उस कर्मकी पुन: याद भी नहीं आती अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।
 कोई भी मनुष्य क्यों न हो, वह सुगमतापूर्वक मान सकता है कि जो कुछ मेरे पास है, वह मेरा नहीं है, प्रत्युत किसीसे मिला हुआ है; जैसे—शरीर माता-पितासे मिला है, विद्या-योग्यता गुरुजनोंसे मिली है, इत्यादि। तात्पर्य यह कि एक-दूसरेकी सहायतासे ही सबका जीवन चलता है। धनी-से-धनी व्यक्तिका जीवन भी दूसरेकी सहायताके बिना नहीं चल सकता। हमने किसीसे लिया है तो किसीको देना, किसीकी सहायता करना, सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है। इसीका नाम कर्मयोग है। इसका पालन मनुष्यमात्र कर सकता है और इसके पालनमें कभी लेशमात्र भी असमर्थता तथा पराधीनता नहीं है।
 कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसे सुखपूर्वक कर सकते हैं, जिसे अवश्य करना चाहिये अर्थात् जो करनेयोग्य है और जिसे करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि अवश्य होती है। जो नहीं कर सकते, उसे करनेकी जिम्मेवारी किसीपर नहीं है और जिसे नहीं करना चाहिये, उसे करना ही नहीं है। जिसे नहीं करना चाहिये, उसे न करनेसे दो अवस्थाएँ स्वत: आती हैं—निर्विकल्प अवस्था अर्थात् कुछ न करना अथवा जिसे करना चाहिये, उसे करना।कर्तव्य सदा निष्कामभावसे एवं परहितकी दृष्टिसे किया जाता है। सकामभावसे किया गया कर्म बन्धनकारक होता है, इसलिये उसे करना ही नहीं है। निष्कामभावसे किया जानेवाला कर्म फलकी कामनासे रहित होता है, उद्देश्यसे रहित नहीं। उद्देश्यरहित चेष्टा तो पागलकी होती है। फल और उद्देश्य—दोनोंमें अन्तर होता है। फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है, पर उद्देश्य नित्य होता है। उद्देश्य नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवका होता है, जिसके लिये मनुष्यजन्म हुआ है। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे उस परमात्माका अनुभव नहीं होता। सकामभाव, प्रमाद, आलस्य आदि रहनेसे अपने कर्तव्यका पालन कठिन प्रतीत होता है।
 वास्तवमें कर्तव्य-कर्मका पालन करनेमें परिश्रम नहीं है। कर्तव्य-कर्म सहज, स्वाभाविक होता है; क्योंकि यह स्वधर्म है। परिश्रम तब होता है, जब अहंता, आसक्ति, ममता, कामनासे युक्त होकर अर्थात् 'अपने लिये’ कर्म करते हैं। इसलिये भगवान्ने राजस कर्मको परिश्रमयुक्त बताया है (गीता—अठारहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।
 जैसे भगवान्के द्वारा प्राणिमात्रका हित होता है, ऐसे ही भगवान्की शक्ति भी प्राणिमात्रके हितमें निरन्तर लगी हुई है। जिस प्रकार आकाशवाणी-केन्द्रके द्वारा प्रसारित विशेष शक्तियुक्त ध्वनि सब जगह फैल जाती है, पर रेडियोके द्वारा जिस नंबरपर उस ध्वनिसे एकता (सजातीयता) होती है, उस नंबरपर वह ध्वनि पकड़में आ जाती है। इसी प्रकार जब कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल संसारमात्रके हितके भावसे ही समस्त कर्म करता है, तब भगवान्की सर्वव्यापी हितैषिणी शक्तिसे उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मोंमें विलक्षणता आ जाती है। भगवान्की शक्तिसे एकता होनेसे उसमें भगवान्की शक्ति ही काम करती है और उस शक्तिके द्वारा ही लोगोंका हित होता है। इसलिये कर्तव्य-कर्म करनेमें न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रमका अनुभव ही होता है।
 कर्मयोगमें पराश्रयकी भी आवश्यकता नहीं है। जो परिस्थिति प्राप्त हो जाय, उसीमें कर्मयोगका पालन करना है। कर्मयोगके अनुसार किसीके कार्यमें आवश्यकता पडऩेपर सहायता कर देना 'सेवा’ है; जैसे—किसीकी गाड़ी खराब हो गयी और वह उसे धक्का देनेकी कोशिश कर रहा है; अत: हम भी इस काममें उसकी सहायता करें, तो यह 'सेवा’ है। जो जानबूझकर कार्यको खोज-खोजकर सेवा करता है, वह कर्म करता है, सेवा नहीं; क्योंकि ऐसा करनेसे उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है, जो परिस्थितिके अनुरूप की जाय। कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढ़ता है। वह तो प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है।

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