
इस ब्लॉग में परमात्मा को विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं में एक अद्वितीय, अनन्त, और सर्वशक्तिमान शक्ति के रूप में समझा जाता है, जो सृष्टि का कारण है और सब कुछ में निवास करता है। जीवन इस परमात्मा की अद्वितीयता का अंश माना जाता है और इसका उद्देश्य आत्मा को परमात्मा के साथ मिलन है, जिसे 'मोक्ष' या 'निर्वाण' कहा जाता है। हमारे जीवन में ज्यादा से ज्यादा प्रभु भक्ति आ सके और हम सत्संग के द्वारा अपने प्रभु की कृपा को पा सके। हमारे जीवन में आ रही निराशा को दूर कर सकें।
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बुधवार, 27 फ़रवरी 2019
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019
श्री रुद्राष्टकम (हिंदी अनुवाद)
श्री रुद्राष्टकम( हिंदी अनुवाद)
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
हे ईशान मैं मुक्ति स्वरूप ,समर्थ, सर्व व्यापक, ब्रह्म, वेद स्वरूप ,निज स्वरूप में स्थिति, निर्गुण ,निर्विकल्प ,निरीह, अनंत ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूं।।1
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
जो निराकार हैं ,ओंकाररूप आदि कारण है ,तुरीय है, वाणी ,बुद्धि और इंद्रियों के पथ से परे हैं, कैलाश नाथ हैं, विकराल और महाकाल के भी काल, कृपाल ,गुणों के आगार और संसार से तारने वाले हैं ,उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूं।।2
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
जो हिमालय के समान श्वेत वर्ण ,गंभीर और करोड़ों काम देवों के समान कांतिमान् शरीर वाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गंगाजी लहरा रही है, भालदेश में बाल चंद्रमा सुशोभित है और गले में सर्पों की माला शोभा देती है।।3।।
जो प्रचंड ,सर्वश्रेष्ठ ,प्रगलभ, परमेश्वर ,पूर्ण ,अजन्मा ,कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान ,त्रिभुवन के शूल नाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले हैं उन भवानी पति का मैं भजन करता हूं।।5।।
हे प्रभु! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अंत करने वाले हैं ,आप सर्वदा सत्पुरुषों को आनंद देते हैं और आप ने त्रिपुरासुर का नाश किया था, आप मोहनाशक और ज्ञानानन्दधन परमेश्वर हैं, कामदेव के शत्रु हैं, आप मुझ पर प्रसन्न हो ,प्रसन्न हो।।6।।
।।इस प्रकार श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव रुद्राष्टक संपूर्ण हुआ।।
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥
हे ईशान मैं मुक्ति स्वरूप ,समर्थ, सर्व व्यापक, ब्रह्म, वेद स्वरूप ,निज स्वरूप में स्थिति, निर्गुण ,निर्विकल्प ,निरीह, अनंत ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूं।।1
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥
जो निराकार हैं ,ओंकाररूप आदि कारण है ,तुरीय है, वाणी ,बुद्धि और इंद्रियों के पथ से परे हैं, कैलाश नाथ हैं, विकराल और महाकाल के भी काल, कृपाल ,गुणों के आगार और संसार से तारने वाले हैं ,उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूं।।2
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥
जो हिमालय के समान श्वेत वर्ण ,गंभीर और करोड़ों काम देवों के समान कांतिमान् शरीर वाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गंगाजी लहरा रही है, भालदेश में बाल चंद्रमा सुशोभित है और गले में सर्पों की माला शोभा देती है।।3।।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥
जिनके कानों में कुंडल हिल रहे हैं ,जिनके नेत्र एवं भृकुटी सुंदर और विशाल है ,जिनका मुख प्रसन्न और कंठ नील है, जो बड़े ही दयालु है, जो बाघ के चर्म का वस्त्र और मुंडो की माला पहनते हैं ,उन सर्वाधिश्वर प्रियतम शिव का भजन करता हूं।।4।।प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥
जो प्रचंड ,सर्वश्रेष्ठ ,प्रगलभ, परमेश्वर ,पूर्ण ,अजन्मा ,कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान ,त्रिभुवन के शूल नाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले हैं उन भवानी पति का मैं भजन करता हूं।।5।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥
हे प्रभु! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अंत करने वाले हैं ,आप सर्वदा सत्पुरुषों को आनंद देते हैं और आप ने त्रिपुरासुर का नाश किया था, आप मोहनाशक और ज्ञानानन्दधन परमेश्वर हैं, कामदेव के शत्रु हैं, आप मुझ पर प्रसन्न हो ,प्रसन्न हो।।6।।
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥
मनुष्य जब तक उमाकांत महादेव जी के चरणारविंदुओं का भजन नहीं करते, उन्हें इस लोक या परलोक में कभी भी सुख शांति की प्राप्ति नहीं होती और ना उनका संताप ही दूर होता है ,हे समस्त भूतों के निवास स्थान भगवान शिव ,आप मुझ पर प्रसन्न हो।।7।।न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥
हे प्रभु ,हे शंभू है, हे ईशान, मै योग, जप और पूजा कुछ भी नहीं जानता ,हे शंभू मै सदा सर्वदा आपको नमस्कार करता हूं। जरा ,जन्म और दुख समूह से संतप्त होते हुए ,मुझ दुखी की दुख से आप रक्षा कीजिए ।।8।रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
जो मनुष्य भगवान शंकर की तुष्टि के लिए ब्राह्मण द्वारा कहे हुए इस रुद्राष्टक का भक्ति पूर्वक पाठ करते हैं, उन पर शंकर जी प्रसन्न होते हैं ।।।इस प्रकार श्री गोस्वामी तुलसीदास रचित शिव रुद्राष्टक संपूर्ण हुआ।।
शिव स्त्रोत
भगवान शिव को नमस्कार है
नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।।--------रूद्राय नमो अस्तु।
हिन्दी में भावार्थ -
कल्याण एवं सुख के मूल स्त्रोत भगवान शिव को नमस्कार है। कल्याण के विस्तार करने वाले तथा सुख के विस्तार करने वाले भगवान शिव को नमस्कार है। मंगल स्वरूप और मंगलमयता की सीमा भगवान शिव को नमस्कार है।
जो संपूर्ण विद्याओं के ईश्वर, समस्त भूतों के अधीश्वर, ब्रह्म वेद के अधिपति ,ब्रह्मा -बल-वीर्य के प्रतिपालक तथा साक्षात ब्रह्मा एवं परमात्मा है, वह सच्चिदानंदमय शिव मेरे लिए नित्य कल्याण स्वरूप बने रहे।
परमेश्वर रूप अंतर्यामी पुरुष को हम जाने ,उन महादेव का चिंतन करें ,वह भगवान रूद्र हमें संद्धर्म के लिए प्रेरित करें।
जो अघोर हैं घोर हैं घोर से भी घोरतर है और जो सर्व संहारो रूद्र रूप है, आपके उन सभी स्वरूपों को मेरा नमस्कार है।
प्रभु आप ही वामदेव, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, रुद्र, काल, कलविकरण, बलविकरण ,बल, बलप्रमथन, सर्वभूतदमन तथा मनोन्मन आदि नामों से प्रतिपादित होते हैं इन सभी नाम रूपों में आपके लिए मेरा बारंबार नमस्कार है ।
हे रूद्र आपको सांय- काल, प्रातः काल, रात्रि और दिन में भी नमस्कार है। मैं भवदेव तथा रूद्रदेव दोनों को नमस्कार करता हूं।
वेद जिनके निःश्वास हैं, जिन्होंने वेदों से सारी सृष्टि की रचना की है और जो विद्याओं के तीर्थ हैं, ऐसे शिव कि मैं वंदना करता हूं ।
तीन नेत्रों वाले, सुगंधयुक्त एवं पुष्टि के वर्धक शंकर का हम पूजन करते हैं। वह शंकर हमको दुखों से ऐसे छुड़ाएं जैसे खरबूजा पककर बंधन से अपने आप छूट जाता है। किंतु वह शंकर हमें मोक्ष से ना छुड़ाएं ।
जो रूद्र उमापति हैं वही सब शरीरों में जीव रूप से प्रविष्ट है, उनके निमित्त हमारा प्रणाम हो। प्रसिद्ध एक अद्वितीय रूद्र ही पुरुष है, वह ब्रह्मलोक में ब्रह्म रूप से हैं, प्रजापतिलोक में प्रजापति रूप से ,सूर्य मंडल में विराट रूप से हैं, तथा देह में जीवरूप से स्थित हुए हैं ;उस महान सचिदानन्दस्वरुप रूद्र को बारंबार प्रणाम है ।समस्त चराचर जगत जो विद्यमान है, हो गया है, तथा होगा, वह सब प्रपञ्च रुद्र की सत्ता से भिन्न नहीं हो सकता, यह सब कुछ रूद्र ही है,इस रूद्र के प्रति प्रणाम है।
बुधवार, 20 फ़रवरी 2019
प्रार्थना एक ओंकार का भावार्थ
सिख प्रार्थना एक ओंकार का भावार्थ-
एक ओंकार सतनाम कर्ता पुरूष निर्भऊ निर्वैर
अकाल मूरत अजूनी सैभं गुरुप्रसाद जप।
आदि सच, जुगादि सच, है भी सच ,
नानक होसी भी सच। वाहेगुरु।।
परमात्मा एक है।उसका नाम सत्य है, अर्थात वह सदा स्थिर और एक रस है ।सृष्टि का कर्ता है, निर्भय और निवैंर है, उसका स्वरूप काल से परे है, वह समय के चक्र में कभी नहीं आता - मृत्यु, रोग और बुढ़ापा उसके लिए नहीं है ।वह अजन्मा है, स्वयंभू है ,पथ-प्रदर्शक है और कृपा की मूर्ति है ।
हे मनुष्य ! तू उसे जप।
एक ओंकार सतनाम कर्ता पुरूष निर्भऊ निर्वैर
अकाल मूरत अजूनी सैभं गुरुप्रसाद जप।
आदि सच, जुगादि सच, है भी सच ,
नानक होसी भी सच। वाहेगुरु।।
परमात्मा एक है।उसका नाम सत्य है, अर्थात वह सदा स्थिर और एक रस है ।सृष्टि का कर्ता है, निर्भय और निवैंर है, उसका स्वरूप काल से परे है, वह समय के चक्र में कभी नहीं आता - मृत्यु, रोग और बुढ़ापा उसके लिए नहीं है ।वह अजन्मा है, स्वयंभू है ,पथ-प्रदर्शक है और कृपा की मूर्ति है ।
हे मनुष्य ! तू उसे जप।
दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है
दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई
परहित सरिस धर्म नहीं भाई
कविवर रहीम का प्रसिद्ध दोहा है -
यो रहीम सुख होत है उपकारी के संग
बाँटन वारे को लगे ज्यो मेहंदी के रंग।।
दूसरों की भलाई करने वाला उसी प्रकार से सुखी होता है जैसे दूसरों के हाथों पर मेहंदी लगाने वाले की उंगलियों खुद भी मेहंदी के रंग में रंग जाती है। जो इत्र बेचते हैं ,वह खुद उसकी खुशबू से महकती रहते हैं। जिस प्रकार एक फूल बेचने वाले के कपड़ों और बदन से फूलों की सुगंध नहीं जा सकती। उसी प्रकार दूसरों की भलाई करने वाले व्यक्ति का का भी अहित नहीं हो सकता। दूसरों की मदद अथवा परोपकार निःसन्देह बड़ा महत्व है ।प्रत्यक्ष रुप से ही नहीं, परोक्ष रूप से भी इसका बड़ा महत्व है।
एक बुढ़िया थी ,जो बहुत कमजोर , बीमार थी। रहती भी अकेली थी । उसके कंधों में दर्द रहता था ।लेकिन वह इतनी कमजोर थी कि खुद अपने हाथों से दवा लगाने में भी असमर्थ थी ,कंधों पर दवा लगाने के लिए कभी किसी से विनती करती तो कभी किसी से। एक दिन बुढ़िया ने पास से गुजरने वाले एक युवक से कहा कि बेटा जरा मेरे कंधे पर दवा मल दो भगवान तेरा भला करेगा । युवक ने कहा कि अम्मा मेरे हाथों की उंगलियों में तो खुद दर्द रहता है ,मैं कैसे तेरे कंधों की मालिश करूँ। बुढ़िया ने कहा कि बेटा दवा मलने की जरूरत नहीं, बस इस डिबिया में से थोड़ा मलहम अपनी उंगलियों से निकाल कर, मेरे कंधों पर फैला दो। युवक ने अनमने मन से मलहम लेकर 1 हाथ की उंगली से दोनों कंधों पर लगा दिया। दवा लगाते ही बुढ़िया की बेचैनी कम होने लगी और इसके लिए उस युवक को आशीर्वाद देने लगी । बेटा भगवान भी तेरी उंगलियों को जल्दी ठीक कर दे। बुढिया के आशीर्वाद पर युवक अविश्वास से हंस दिया लेकिन साथ ही उसे महसूस किया कि उसकी उंगलियों का दर्द भी गायब होता जा रहा है ।वास्तव में बुढ़िया को मलहम लगाने के बाद युवक की उंगलियों पर कुछ मलहम लगा रह गया था ,उसे दूसरे हाथ के उंगली से पूछने की कोशिश की तो सारी उंगलियों पर भी लग गया, उसका ही कमाल था कि जिससे युवक के दोनों हाथों का दर्द कम होता जा रहा था। अब तो युवक सुबह दोपहर शाम तीनों वक्त अम्मा के कंधे पर मलहम लगा था और उनकी सेवा करता । कुछ ही दिनों में बुढ़िया पूरी तरह से ठीक हो गई और साथ ही युवक के दोनों हाथों की उंगलियों का भी दर्द ठीक हो गया । तभी तो कहा गया है कि जो दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाता है उसके खुद के जख्म को भी भरने में देर नहीं लगती।
इस मुहावरे का अर्थ है कि किसी को सांत्वना देना ,किसी की पीड़ा को कम करना । जरूरी नहीं कि इसके लिए कोई दवाई या मरहम ही लगाया जाए क्योंकि यह पीड़ा भौतिक नहीं, मानसिक भी हो सकती है ।पीड़ा जो भी हो कष्टदायक होती है। यदि कोई किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा से मुक्त करता है ,तो पीड़ित को भी राहत मिलती है, और पीड़ा को कम करने वाला या कष्ट को समाप्त करने वाले के प्रति कृतज्ञता से भर उठता है, और आशीर्वाद या दुआएं देने लगता है । जब कोई उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करता है अथवा उसको धन्यवाद करता है। तो वह एकदम विनम्र होकर परमार्थ के भावों से भर उठता है। उसका मन करता है कि मैं सदैव लोगों के कष्ट दूर करने में लगा रहूं ।दुनिया के सभी लोगों को कष्ट मुक्त हो जाए ,ऐसी भावना मन में रख लेता है ।दूसरों की भलाई के समान कोई दूसरा धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई अधर्म अथवा पाप नहीं है। यही सभी पुराणों वेदों का सार है। विद्वान लोग यह जानते हैं कि मनुष्य का शरीर पाकर जो भी लोग दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं उन्हें महान संसार के महान कष्ट भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार स्वार्थ और अज्ञानता के वश हो कर भी जो अनेकानेक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं उनका परलक भी नष्ट हो जाता है। गोस्वामी जी कहते हैं जिसके मन में परहित तथा दूसरों की भलाई का भाव बना रहता है, उनके लिए संसार की कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो उसे ना मिल सके। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने वाले, सच्चे मन से लोगों की सेवा करने वाले, आध्यात्मिक , भौतिक और देविक तीनों प्रकार की व्याधियों से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन ही जीते हैं, बल्कि वह धर्म का सही पालन करते हैं ,स्वस्थ -प्रसन्न रहते हैं और उनका यही नहीं परलोक भी सँवर जाता है।
सोमवार, 26 नवंबर 2018
वाक् संयम- वाणी पर नियंत्रण का महत्व
वाक् संयम-वाणी पर नियंत्रण का महत्व
जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेद व्यास के मुख से गणेश जी के द्वारा भुज पत्र पर अंकित हो चुका, तब गणेश जी से महर्षि व्यास ने कहा,' विघ्नेश्वर! धन्य है आपकी लेखनी ।महाभारत का निर्माण तो इसी ने किया है ,पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है, वह है आपका मौन। लंबे समय तक आपका हमारा साथ रहा, इस अवधि में मैंने तो 15 -20 लाख शब्द बोल डाले ,परंतु आप के मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।'
इस पर गणेश जी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा,'किसी दीपक में अधिक तेल होता है किसी में कम । परंतु तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता । उसी प्रकार देव, मानव ,दानव ,सभी देह धारियों की प्राणशक्ति सीमित है ,परंतु असीम किसी की नहीं है ।इस प्राणशक्ति का पूर्ण लाभ वही पा सकता है ,जो संयम से उसका उपयोग करता है । संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है, और संयम का प्रथम सोपान है वाणी का संयम । जो वाणी का संयम नहीं रखता उसकी जिव्हा बोलती रहती है ,बहुत बोलने वाली जिव्हा अनावश्यक बोलती है, और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह और वैमनस्य पैदा करते हैं अथार्त दूरियां और शत्रुता पैदा करते हैं। जो हमारी प्राणशक्ति को सोख डालते हैं। वाणी के संयम से यह समस्त अनर्थ परंपरा खत्म हो जाती हैं ।इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
(प्रेषक-श्री अरुण जी गुप्ता)
जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेद व्यास के मुख से गणेश जी के द्वारा भुज पत्र पर अंकित हो चुका, तब गणेश जी से महर्षि व्यास ने कहा,' विघ्नेश्वर! धन्य है आपकी लेखनी ।महाभारत का निर्माण तो इसी ने किया है ,पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है, वह है आपका मौन। लंबे समय तक आपका हमारा साथ रहा, इस अवधि में मैंने तो 15 -20 लाख शब्द बोल डाले ,परंतु आप के मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।'
इस पर गणेश जी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा,'किसी दीपक में अधिक तेल होता है किसी में कम । परंतु तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता । उसी प्रकार देव, मानव ,दानव ,सभी देह धारियों की प्राणशक्ति सीमित है ,परंतु असीम किसी की नहीं है ।इस प्राणशक्ति का पूर्ण लाभ वही पा सकता है ,जो संयम से उसका उपयोग करता है । संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है, और संयम का प्रथम सोपान है वाणी का संयम । जो वाणी का संयम नहीं रखता उसकी जिव्हा बोलती रहती है ,बहुत बोलने वाली जिव्हा अनावश्यक बोलती है, और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह और वैमनस्य पैदा करते हैं अथार्त दूरियां और शत्रुता पैदा करते हैं। जो हमारी प्राणशक्ति को सोख डालते हैं। वाणी के संयम से यह समस्त अनर्थ परंपरा खत्म हो जाती हैं ।इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
(प्रेषक-श्री अरुण जी गुप्ता)
बुधवार, 29 अगस्त 2018
कर्म कितने प्रकार के होते हैं?
कर्म की खोज(कर्म क्या है )
मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
२- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है- ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो भोगने पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है । कर्म ही प्राणियों के जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।
मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
२- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है- ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो भोगने पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है । कर्म ही प्राणियों के जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।
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