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बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

        श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

भक्त  श्री सनम साहब जी का पूरा नाम था- मोहम्मद याकूब साहब। आपका जन्म सन् 1883 ईस्वी के लगभग अलवर में हुआ था। इनके पिता अजमेर के सरकारी अस्पताल के प्रधान चिकित्सक थे। इनकी मां एक पठान की पुत्री थी, फिर भी पूर्व जन्म के संस्कार वश उन्हें गोस्वामी श्री तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस पढ़ने और गाने का शौक था। श्री राम जी की कृपा से उन्हें श्री रामचरितमानस के मूल ग्रंथ वाल्मीकि रामायण को पढ़ने की इच्छा हुई। किंतु पर्दे में रहने के कारण बाहर जाना नहीं हो सका। तो उन्होंने एक पंडित जी को घर बुलवाकर रामायण सुनने की इच्छा व्यक्त की। किंतु उसमें भी सफलता नहीं मिली । तब मां ने कहा- 'बेटे ,तुम संस्कृत पढ़ लो ।"पर कोई पंडित गोमांस तथा प्याज खाने वाले मुसलमान को संस्कृत पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। माता पुत्र  ने निश्चय पूर्वक मांस आदि का त्याग कर दिया। फिर मां के कहने पर सनम साहब ने पंडित गंगा सहाय शर्मा से सारी बात बताई और उनकी अनुमति मिलने पर पंडित जी से संस्कृत पढी। भागवत आदि ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात उनका चित्त श्री राधा माधव के प्रति आकृष्ट हो गया और उन्होंने अपने सुहृद्
भगवानदास भार्गव के माध्यम से ब्रिज के एक संत श्री सरस माधुरी- शरणजी से युगल मंत्र की दीक्षा प्राप्त की ।यद्यपि दीक्षा के उपरांत इनका नाम 'श्यामाशरण' हुआ फिर भी गुरुदेव इन्हें  स्नेहवश सनम कहते थे। सनम साहब के भगवत अनुराग तथा वैष्णवोचित वेश में क्रुद्ध धर्मांध मुसलमानों ने इनका भाँति-भाँति से अवकार किया। किंतु सर्वत्र यह भगवत कृपा से रक्षित होते रहे। इन्होंने श्री निकुंज लीलाओं के माधुरी से ओतप्रोत बहुत से पदों की रचना की तथा राधासुधानिधि एंव मधुराष्टकं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। सरस सद्गुरुविलास आदि इनके स्व प्रणीत ग्रंथ है। इन्होंने हिंदी, बृज भाषा तथा अंग्रेजी में ग्रंथों का वर्णन किया है ।प्रसिद्ध कृष्ण भक्त अंग्रेज रोनाल्ड निक्सनने कृष्ण प्रेम की स्फूर्ति इन्हीं से प्राप्त की थी। श्री मालवीय जैसे प्रख्यात महापुरुषों के साथ सनम साहब का अति सोहार्दपूर्ण संबंध था इन्होंने अलवर में श्री कृष्ण लाइब्रेरी की स्थापना की। जिसमें लगभग 1200 कृष्ण भक्ति परक ग्रंथ संगृहीत है ।यह राधा अष्टमी आदि के अवसर पर उल्लास पूर्वक महोत्सव का आयोजन करते थे ।सनम साहब के भक्तिप्रवण चित्त में समय-समय पर राधा माधव की निकुंज लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती थी। उन्हें दो बार राधा माधव का प्रत्यक्ष दर्शन भी हुआ था ।वे चाहते थे कि राधा माधव के श्री चरणों में ही उनका देहपात हो, वैसा हुआ भी,सन् 1945 में शरद पूर्णिमा के दिन उनकी इच्छा पूर्ण हुई। वृंदावन में एक स्थान पर रासलीला में सखियां गा रही थी- अनुपम माधुरी जोड़ी हमारे श्याम श्यामा की।
रसीली मद भरी अखियां हमारे श्याम श्यामा की।।
 कतीली भोंह अदा बाकी सुघर सूरत मधुर बतियां।
 लटक गर्दन की अनबँसिया हमारे श्याम श्यामा की।
*            *            *           *
 नहीं कुछ लालसा धन की, नहीं निर्वान की इच्छा ।
सखी श्यामा मिले सेवा हमारे श्याम श्यामा की।।
 उन्हीं सखियों के साथ स्वर मिलाकर गाते गाते सनम साहब ने श्याम श्यामा के श्री चरणों में सदा के लिए माथा टेक दिया। विस्मित अवाक् दर्शकों ने इनके भक्तिभाव एंव सौभाग्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और प्रेमाश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम विदा दी ।
।।जय श्री राधे ,जय श्री श्याम, जय श्री कृष्णा।।

श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

                   श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

 हमारे बांके बिहारी कोई -ना -कोई  अहेतु की लीला करते ही रहते हैं। उनकी माया का कोई पार नहीं पा सकता, ना जाने कब किस पर रीझ जायँ, ना जाने कब किस जीव पर कृपा हो जाए। बुलाने पर तो वह कभी आते नहीं ,चाहे सिर पटक पटक कर मर जाए। ना तप से मिलते हैं, ना जप से, न ध्यान से ।यदि इन्हें इस प्रकार मिलना हो तो योगी, यति, ऋषि, ध्यान करते रहते हैं, परंतु यह उनकी ओर देखते तक नहीं। जब कृपा करते हैं, तो अचानक करते हैं।
 कृष्ण के दीवाने रसखान जी एक मुसलमान थे। एक बार की घटना है  वे अपने उस्ताद के साथ मक्का मदीना जा रहे थे। उनके उस्ताद ने कहा- देखो, रास्ते में हिंदुओं का तीर्थ वृंदावन आएगा ,वहां एक काला नाग रहता है। तू आगे- पीछे मत देखना ,नहीं तो वह तुझे डस लेगा, तू मेरे पीछे-पीछे चला आ।अपने दाएं- बाएं भी मत देखना, वरना जब मौका दिखेगा तुझेडँस लेगा।  बस रसखान जी के मन में एक उत्कंठा सी जाग गई ,क्या मुझे वहां काला नाग दिखाई देगा। वह यही सोचते जा रहे थे उनके लो लग गई, हमारी श्री बांके बिहारी से। फिर क्या था जैसे ही आप वृंदावन आए ,उस्ताद ने पुणः कहाँ, रसखान अब सावधानी से चलना यह हिंदुओं का तीर्थ है, यही वह काला नाग रहता है। उस्ताद का इतना कहना था कि हमारी लीलाधारी ने अपनी लीला आरंभ कर दी। कभी दाएं, कभी बाएं, मीठी मीठी बांसुरी का धुन बजाने शुरू कर दी ।दूसरी और नूपुर की मधुर झंकार होने लगी -सुनकर बेचारे रसखान जी मुक्त हो गए। दोनों और मधुर तान तथा झंकार सुनकर बौरा से गए, उनसे दाएं बाएं देखे बिना न रहा गया ।अंत में जब यमुना किनारे पहुंचे तो एक और देख ही तो लिया। वहां प्रिया जी के साथ श्री बांके बिहारी जी की सुंदर छवि के दर्शन किये और वह मोहित हो गए।भूल गए अपने उस्ताद को और निहारते ही रहे उस प्यारी छवि को। अपनी सुध बुध खो बैठे, अपना ध्यान ही ना रहा कि मैं कहां हूं, वही ब्रज में लोटपोट हो गए। उनके मुख से झाग निकल रहा था, वह तो ढूंढ रहे थे उस मनोहर छवि को, पर अब तक तो प्रभु जी  अंतर्ध्यान हो चुके थे ।
थोड़ी दूर जाकर उस्ताद जी ने पीछे मुड़कर देखा, रसखान दिखाई नहीं दिए। वापस आए ,रसखान की दशा देखकर समझ गए इसे वही काला नाग डस गया, अभी हमारे मतलब का नहीं रहा ।उस्ताद आगे बढ़ गए। होश आया तो वह प्यारी मनमोहक छवि ढूंढ रहे थे अपने चारों ओर सबसे पूछा सांवरा सलोना मूर्ति वाला अपनी बेगम के साथ कहां रहता है? कोई तो बता दो किसी ने बिहारी जी के मंदिर का पता बता दिया। वहां गए किसी ने अंदर जाने नहीं दिया। 3 दिन तक भूखे प्यासे वहीं पड़े रहे। तीसरे दिन बिहारी जी अपना प्रिय दूध- भात, चांदी के कटोरे में लेकर आए और अपने हाथ से खिलाया। प्रातःकाल लोगों ने देखा कटोरा पास में पड़ा है। रसखान जी के मुख पर दूध भात लगा हुआ है।  कटोरे पर बिहारी जी लिखा है। रसखान जी को उठाया, लोग उनके चरणों की रज़, माथे पर लगाने लगे। गली-गली गाते फिरते -बंसी बजा के, सूरत दिखा कर, क्यों कर लिया किनारा.... आज भी रसखान जी की मजार पर बहुत से लोग जाकर उनके दिव्य कृष्ण प्रेम की याद करते हैं।[ श्रीमती भगवती जी गोयल]

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

अधिक चंचलता उचित नहीं है।

                     अधिक चंचलता उचित नहीं है

 प्राचीन काल की बात है सूर्यवंश  में शर्याती नाम के एक राजा थे ।उनके नगर के समीप ही मानसरोवर के समान एक सरोवर था । महर्षि भृगु का चयव्न  नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा, वह मुनि कुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर विरासन में बैठे रहा, धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर तृण और लताओं से ढक गया ।उस पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। ऋषि बांबी के रूप में दिखाई देने लगे ,वे चारों ओर से केवल मिट्टी का पिंड जान पड़ते थे। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आए उनकी 4 सहस्त्र सुंदर रानियां और एक सुंदर कन्या थी, उसका नाम सुकन्या था ।वह दिव्य गुणों से विभूषित कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरती   हुई उस चय्वन ऋषि के बांबी के पास पहुंच गई ,उसने उस बांबी के छिद्र में से चमकती हुई आंखों को देखा ,इससे उसे बड़ा कोतूहल हुआ, फिर बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसने उन्हें कांटों से छेद दिया। इस प्रकार आंखें फूट जाने पर ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने शरियाती की सेना के मल मूत्र बंद कर दिए । मल मूत्र रुक जाने से सेना को बड़ा कष्ट हुआ। यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां निरंतर तपस्या में रत रहते हैं, उनका जाने किसने अपराध किया है। जिससे भी ऐसा हुआ हो वह बिना विलंब के तुरंत बता दे। राजा के ऐसा पूछने पर दुख से व्याकुल सेना ने कहा हम लोगों के द्वारा मन वाणी क्रम से मुनि का कुछ भी अपकार हुआ हो- इसे हम लोग नहीं जानते। जब सुकन्या को यह सब बात मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती  एक बांबी के पास गई थी उसमें मुझे चमकता हुआ जीव दिखाई दिया था उसे मैंने बींध दिया। यह सुनकर शरियाती तुरंत उस बांबी के पास गए वहां उन्होंने  तपोवृद्ध और वयोवृद्ध चय्वन मुनि को देखा ,उन्होंने उनसे हाथ जोड़कर सेना को क्लेश मुक्त करने की प्रार्थना की और कहा कि भगवान अज्ञानवश इस बालिका से जो अपराध बन गया है उसे क्षमा करने की कृपा करें ।तब  भृगुनन्दन चय्वन ने राजा से कहा इस गवीली छोकरी ने अपमान करने के लिए ही मेरी आंख फोड़ी है अब मैं इसे पत्नी रुप में पाकर ही क्षमा कर सकता हूं ।अंधा हो जाने के कारण में असहाय हो गया हूं। इसे ही मेरी सेवा करनी होगी ।यह बात सुनकर राजा ने  बिना कोई विचार किए महात्मा चय्वन को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर प्रसन्न हो गए और उनकी कृपा से मुक्त हो राजा अपने नगर में लौट आए और राजकुमारी अपने पत्नि के नियमों का पालन करती हुई अपनी पति की सेवा करने लगी। इस प्रकार अपनी चंचलता के कारण सुकन्या को वन में निवास करना पड़ा और वृद्ध ऋषि से विवाह करना पड़ा ।अधिक चंचलता और बिना विचारी किया गया अविवेक पूर्ण कार्य दुखदाई होता है।

 (महाभारत वन- पर्व श्रीमद् देवी भागवत-सप्तम स्कन्ध)

सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

क्या है चरणामृत का महत्व ?

              क्या है चरणामृत का महत्व ?????



अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है,क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की कि चरणामृतका क्या महत्व है, शास्त्रों में कहा गया है।

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप -व्याधियों का शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।

जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता" जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता, जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है।

चरणामृत से सम्बन्धित एक पौराणिक गाथा काफी प्रसिद्ध है जो हमें श्रीकृष्ण एवं राधाजी के अटूट प्रेम की याद दिलाती है। कहते हैं कि एक बार नंदलाल काफी बीमार पड़ गए। कोई दवा या जड़ी-बूटी उन पर बेअसर साबित हो रही थी। तभी श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गोपियों से एक ऐसा उपाय करने को कहा जिसे सुन गोपियां दुविधा में पड़ गईं।

श्रीकृष्ण हुए बीमार,,,,दरअसल श्रीकृष्ण ने गोपियों से उन्हें चरणामृत पिलाने को कहा। उनका मानना था कि उनके परम भक्त या फिर जो उनसे अति प्रेम करता है तथा उनकी चिंता करता है यदि उसके पांव को धोने के लिए इस्तेमाल हुए जल को वे ग्रहण कर लें तो वे निश्चित ही ठीक हो जाएंगे।लेकिन दूसरी ओर गोपियां और भी चिंता में पड़ गईं। श्रीकृष्ण उन सभी गोपियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण थे, वे सभी उनकी परम भक्त थीं लेकिन उन्हें इस उपाय के निष्फल होने की चिंता सता रही थी।

उनके मन में बार-बार यह आ रहा था कि यदि उनमें से किसी एक गोपी ने अपने पांव के इस्तेमाल से चरणामृत बना लिया और कृष्णजी को पीने के लिए दिया तो वह परम भक्त का कार्य तो कर देगी। परन्तु किन्हीं कारणों से कान्हा ठीक ना हुए तो उसे नर्क भोगना पड़ेगा।

अब सभी गोपियां व्याकुल होकर श्रीकृष्ण की ओर ताक रहीं थी और किसी अन्य उपाय के बारे में सोच ही रहीं थी कि वहां कृष्ण की प्रिय राधा आ गईं। अपने कृष्ण को इस हालत में देख के राधा के तो जैसे प्राण ही निकल गए हों।जब गोपियों ने कृष्ण द्वारा बताया गया उपाय राधा को बताया तो राधा ने एक क्षण भी व्यर्थ करना उचित ना समझा और जल्द ही स्वयं के पांव धोकर चरणामृत तैयार कर श्रीकृष्ण को पिलाने के लिए आगे बढ़ी।

 राधा जानतीं थी कि वे क्या कर रही हैं। जो बात अन्य गोपियों के लिए भय का कारण थी ठीक वही भय राधा को भी मन में था लेकिन कृष्ण को वापस स्वस्थ करने के लिए वह नर्क में चले जाने को भी तैयार थीं।आखिरकार कान्हा ने चरणामृत ग्रहण किया और देखते ही देखते वे ठीक हो गए। क्योंकि वह राधा ही थीं जिनके प्यार एवं सच्ची निष्ठा से कृष्णजी तुरंत स्वस्थ हो गए।  अपने कृष्ण को निरोग देखने के लिए राधाजी ने एक बार भी स्वयं के भविष्य की चिंता ना की और वही किया जो उनका धर्म था।

इतिहास गवाह है इस बात का... राधा-कृष्ण का कभी विवाह ना हुआ लेकिन उनका प्यार इतना पवित्र एवं सच्चा था कि आज भी दोनों का नाम एक साथ लेने में भक्त एक क्षण भी संदेह महसूस नहीं करते। उनके भक्तों के लिए कृष्ण केवल राधा के हैं तथा राधा भी कृष्ण की ही हैं।

राधा-कृष्ण की इस कहानी ने चरणामृत को एक ऐतिहासिक पहलू तो दिया ही लेकिन आज भी चरणामृत को प्रभु का प्रसाद मानकर भक्तों में बांटा जाता है। पीतल के बर्तन में पीतल के ही चम्मच से, थोड़ा मीठा सा यह अमृत भक्तों के कंठ को पवित्र बनाता है।

जब भगवान का वामन अवतार हुआ, और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे में ऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत को वापस अपने कमंडल में रख लिया,वह चरणामृत गंगा जी बन गई, जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है, ये शक्ति उनके पास कहाँ से पात्र शक्ति है भगवान के चरणों की जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी।

जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है - "चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी"*

धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।

कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।

चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।

आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।

इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए । ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि,स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।

इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ का या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है।

इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं.?

दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।


रविवार, 6 अक्टूबर 2019

वृन्दावन आखिर है क्या?


                                 वृन्दावन क्या है?






 वृन्दावन आखिर है क्या? लोग क्यों यहां एक बार जाकर केवल तन से वापस आते हैं, मन वहीं छूट जाता है?

वृन्दावन का आध्यातमिक अर्थ है- "वृन्दाया तुलस्या वनं वृन्दावनं" तुलसी का विषेश वन होने के कारण इसे वृन्दावन कहते हैं। वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ भगवान श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलायें की हैं। इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े-बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते। ब्रह्मा जी का ज्ञान भी यहाँ के प्रेम के आगे फ़ीका पड़ जाता है। । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण रसमय है। रसिकों की राजधानी भी वृन्दावन को कहा जाता है। वृन्दावन श्री राधिका जी का निज धाम है। विद्वत्जन श्री धाम वृन्दावन का अर्थ इस प्रकार भी करते हैं "वृन्दस्य अवनं रक्षणं यत्र तत वृन्दावनं" जहाँ श्री राधारानी अपने भक्तों की दिन-रात रक्षा करती हैं, उसे वृन्दावन कहते हैं।

वृन्दावन तीर्थों का राजा है।
कृष्ण और वृन्दावन एक दूसरे का पर्याय हैं दोनों एक हैं अलग नही। जिस प्रकार श्रीमद भागवद गीता और भगवान की वाणी एक है उसी प्रकार कृष्ण और उनका यह प्रेममय, रसमय, चिन्मय धाम दोनों अभेद हैं ।
 सूरदास जी ने वृन्दावन धाम की रज की महिमा का गुण गान करते हुए यह पद भी लिखा कि-

हम ना भई वृन्दावन रेणु,
तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु।
हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु।
सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धे।

आप कभी भी अनुभव कर सकते  हैं कि वृन्दावन की भूमि पर कदम रखते ही शरीर मे एक रोमांच सा होने लगता है, जो वापिस वहां से दूर हटते ही समाप्त हो जाता है। किसी भी धाम में जाइये ऐसा अनुभव आपको नही होगा। हमारे श्रवण भी प्रत्येक क्षण राधे राधे का स्वर सुनते रहते हैं।
यहां आते ही भाव अपने आप प्रस्फुटित होने लगते हैं। बिहारीजी के समक्ष खड़े होकर उनको निहारते समय आपको कभी कुछ याद नही रहेगा कि आप कौन हैं, यहां क्यों आये। उनसे कुछ मांगना तो दूर की बात है। मंत्रमुग्ध, चित्रलिखित सी अवस्था!!
मैने आज तक धाम में जाकर कभी कुछ नही मांगा, ध्यान तक नही आता। जबकि मांगने को प्रभु की चरण सेवा और दर्शन की अभिलाषा सबको होती है।
वो केवल भाव के भूखे हैं, आपका भाव पढ़ते हैं। प्रेममय भाव हैं तो अवश्य दर्शन मिलेगा वरना कोई न कोई बाधा आ ही जाती है।
हम उनके दर्शन न कर पाने का ठीकरा भी उन्ही पर फोड़ते हैं कि हमे बुलाते नही। यह बिल्कुल असत्य, और गलत सोच है। वो सबकी राह देखते हैं, शर्त बस इतनी सी कि हमारे पांव प्रेम मय भक्ति  के साथ  उस राह पर कब पड़ते हैं!! राधा रानी ब्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं, अश्रुपूरित, प्रेममयी प्रार्थना उनको पिघला देती है। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी ब्रज भूमि पर पांव नही रख सकता।
हम सब राधा रानी से प्रार्थना करें कि हमे बारम्बार ब्रजदर्शन हों

शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

एसा न हो फिर देर हो जाऐ

                       ऐसा न हो फिर देर हो जाऐ



जब सारे शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है, उसका चलना फिरना, उठना बैठना --- सब दूभर हो जाता है । खटिया पर पड़े पड़े वह पश्चाताप करता रहता है कि हाय - हाय सारा जीवन बेकार चला गया । अब उसे ईश्वर का ध्यान आता है, उनसे प्रार्थना करता है, किंतु तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है ----
इतने पर भी करुणा वरुणालय प्रभू उस पर कृपा कर कहते है ---- वत्स! अभी भी कुछ नही बिगड़ा है, तुम्हारी जिभ्हा अभी भी काम कर रही है, तुम चाहो तो अभी भी  लोक - परलोक बना सकते हो ।
इसलिये तुम " नारायण " नाम रुपी अमृत का निरंतर पान करो ।

जीवन मे सफलता के लिए भगवान श्रीकृष्ण के ग्यारह सूत्र


जीवन मे सफलता के लिए भगवान श्रीकृष्ण के ग्यारह सूत्र!!!!!!!!"


भगवान कृष्ण ने गीता के माध्यम से संसार को जो शिक्षा दी, वह अनुपम है। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है ब्रह्मसूत्र और ब्रह्मसूत्र का सार है गीता। सार का अर्थ है निचोड़ या रस।

गीता में उन सभी मार्गों की चर्चा की गई है जिन पर चलकर मोक्ष, बुद्धत्व, कैवल्य या समाधि प्राप्त की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जन्म-मरण से छुटकारा पाया जा सकता है। तीसरे शब्दों में कहें तो खुद के स्वरूप को पहचाना जा सकता है। चौथे शब्दों में कहें तो आत्मज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और पांचवें शब्दों में कहें तो ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण के वे रहस्यमय सूत्र जिन्हें जानकर आपको लगेगा कि सच में यह बिलकुल ही सच है। निश्‍चित ही उनके ये सूत्र आपके जीवन में बहुत काम आएंगे। जीवन में सफलता चाहते हैं ‍तो गीता के ज्ञान को अपनाएं और निश्‍चिंत तथा भयमुक्त जीवन पाएं।

 पहला सूत्र,सफलता : - भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि यदि आप लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल रहते हैं, तो अपनी रणनीति बदलें, लक्ष्य नहीं। ...इस जीवन में न कुछ खोता है, न व्यर्थ होता है। ...जो इस लोक में अपने काम की सफलता की कामना रखते हैं, वे देवताओं की प्रार्थना करें।

दूसरा सूत्र,प्रसन्नता : - श्रीकृष्ण कहते हैं कि खुशी मन की एक अवस्था है, जो बाहरी दुनिया से नहीं मिल सकती है। खुश रहने की एक ही कुंजी है इच्छाओं में कमी।

तीसरा सूत्र,आत्मविनाश या नर्क के ये 3 द्वार हैं- वासना, क्रोध और लोभ। क्रोध से भ्रम पैदा होता है। भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है। जब बुद्धि व्यग्र होती है, तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट होता है, तब व्यक्ति का पतन हो जाता है। ...वह जो सभी इच्छाएं त्याग देता है और 'मैं' और 'मेरा' की लालसा और भावना से मुक्त हो जाता है, उसे शांति प्राप्त होती है।

 चौथा सूत्र, विश्वास क्या है? : - मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है। जैसा वो विश्वास करता है, वैसा वो बन जाता है। ...व्यक्ति जो चाहे बन सकता है यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करे। ...हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है। विश्‍वास की शक्ति को पहचानें।

पांचवां सूत्र,मित्र और शत्रु दोनों है मन : - जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है। मन की गतिविधियों, होश, श्वास और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है और लगातार तुम्हें बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है।

मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है। ...सर्वोच्च शांति पाने के लिए हमें हमारे कर्मों के सभी परिणाम और लगाव को छोड़ देना चाहिए। ...केवल मन ही किसी का मित्र और शत्रु होता है।

छठा सूत्र,निर्भीक बनो : - उससे मत डरो जो वास्तविक नहीं है, न कभी था न कभी होगा। जो वास्तविक है, वो हमेशा था और उसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। ...प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए, गंदगी का ढेर, पत्थर और सोना सभी समान हैं।

सातवां सूत्र,संशय न करो : - सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता न इस लोक में है, न ही कहीं और। आत्मज्ञान की तलवार से काटकर अपने हृदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो। अनुशासित रहो। उठो।

संदेह, संशय, दुविधा या द्वंद्व में जीने वाले लोग न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न ही परलोक में। उनका जीवन निर्णयहीन, दिशाहीन और भटकाव से भरा रहता है।

 आठवां सूत्र'आत्मा न जन्म लेती है और न ही मरती है : - जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है जितन‍ी कि मृत होने वाले के लिए जन्म लेना। इसलिए जो अपरिहार्य है, उस पर शोक मत करो।

न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं...। सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो?

यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मी, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी यह नष्ट नहीं होती है।

कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं, तुम या ये राजा-महाराजा अस्तित्व में नहीं थे, न ही भविष्य में कभी ऐसा होगा कि हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाए। ...हे अर्जुन! हम दोनों ने कई जन्म लिए हैं। मुझे याद हैं, लेकिन तुम्हें नहीं।

नौवां अमृत सूत्र' कर्मवान बनो : - निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। ...अपने अनिवार्य कार्य करो, क्योंकि वास्तव में कार्य करना निष्क्रियता से बेहतर है।

ज्ञानी व्यक्ति को कर्म के प्रतिफल की अपेक्षा कर रहे अज्ञानी व्यक्ति के दिमाग को अस्थिर नहीं करना चाहिए। ...अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है। ...किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े। ...बुद्धिमान व्यक्ति कामुक सुख में आनंद नहीं लेता। ...कर्मयोग वास्तव में एक परम रहस्य है।

 दसवां अमृत सूत्र,जो मेरे साथ हैं मैं उनके साथ हूं : -  संपूर्ण ब्रह्मांड मेरे ही अंदर है। मेरी इच्छा से ही यह फिर से प्रकट होता है और अंत में मेरी इच्छा से ही इसका अंत हो जाता है। ...मेरे लिए न कोई घृणित है न प्रिय, किंतु जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हैं, वो मेरे साथ हैं और मैं भी उनके साथ हूं। ...बुरे कर्म करने वाले, सबसे नीच व्यक्ति जो राक्षसी प्रवृत्तियों से जुड़े हुए हैं और जिनकी बुद्धि माया ने हर ली है वो मेरी पूजा या मुझे पाने का प्रयास नहीं करते।

हे अर्जुन! कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूं।

मैं उन्हें ज्ञान देता हूं, जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं।

मैं सभी प्राणियों को समान रूप से देखता हूं, न कोई मुझे कम प्रिय है न अधिक। लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते हैं वो मेरे भीतर रहते हैं और मैं उनके जीवन में आता हूं।

मेरी कृपा से कोई सभी कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी बस मेरी शरण में आकर अनंत अविनाशी निवास को प्राप्त करता है। ...हे अर्जुन! केवल भाग्यशाली योद्धा ही ऐसा युद्ध लड़ने का अवसर पाते हैं, जो स्वर्ग के द्वार के समान है।

 ग्यारहवां अमृत सूत्र,ईश्‍वर के बारे में : - भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी। ...प्रबुद्ध व्यक्ति सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नहीं करता। ...सभी काम छोड़कर बस भगवान में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो।

जो कोई भी जिस किसी भी देवता की पूजा विश्वास के साथ करने की इच्छा रखता है, मैं उसका विश्वास उसी देवता में दृढ़ कर देता हूं। ...हे अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूं, किंतु वास्तविकता में कोई मुझे नहीं जानता।

ईश्वर एक अदृश्य एवं अकथनीय शक्ति है जिससे संसार की उत्पत्ति, पालन एवं लय होता है। मानवीय रूप में उसकी ऐसी कल्पना की जा सकती है कि उसके सभी ओर से ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां हैं।

'सर्वत: पणिपादं तर्त्सतोsक्षिशिरोमुखम।'

वह समय-समय पर संसार में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए सगुण रूप में अवतरित होता है।

वह जो मृत्यु के समय मुझे स्मरण करते हुए अपना शरीर त्यागता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है। इसमें कोई संशय नहीं है। ...वे जो इस ज्ञान में विश्वास नहीं रखते, मुझे प्राप्त किए बिना जन्म और मृत्यु के चक्र का अनुगमन करते रहते हैं।

!!जय श्री कृष्ण!! जय श्री राधेकृष्ण!!

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