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शुक्रवार, 19 मार्च 2021

भगवान की भक्ति और श्रद्धा पाने के लिए क्या करना चाहिए?

              भगवान की भक्ति के लिए क्या करना चाहिए?

केवल इच्छा करने मात्र से संसार का कोई काम नहीं बनेगा ,उसके लिए तन मन धन से मेहनत करनी पड़ेगी। परंतु श्री हरि की भक्ति, उत्कट इच्छा मात्र से प्राप्त हो जाएगी। प्रभु हमें हर जीव को सदा देखा करते हैं। मन की कामना को पूर्ण करने के लिए वाणी और शरीर से कर्म बनने लग जाएंगे। मन की कामनाओं को पूर्ण करने के लिए प्राणी परिश्रम करता है। मानसिक परिश्रम श्रेष्ठ है। उसी से प्रभु प्रसन्न होते हैं शारीरिक परिश्रम से संसारी संतुष्ट होते हैं। संसार प्रभु का स्वरूप है। ऐसा मानना भक्ति ही है। जो कुछ जीवो के भले के लिए किया जाएगा उससे भगवान संतुष्ट होंगे। भगवान के संतुष्ट होने पर सभी देवी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए सब कुछ करना चाहिए। शास्त्र का रहस्य यही हैं। भक्ति के साथ-साथ निष्ठा और श्रद्धा का होना भी बहुत जरूरी है। अगर हमारे अंदर भक्ति है लेकिन श्रद्धा नहीं है तो वह पूर्ण नहीं मानी जाएगी। यह ऐसे ही होगा जैसे कि हम ईश्वर की भक्ति में तो आनंद का अनुभव करते हैं लेकिन मंत्र जाप, दान पुण्य,आरती में श्रद्धा नहीं रखते हैं। ईश्वर को तो हम मानते हैं लेकिन श्रद्धा में कमी है। जब हमारी श्रद्धा में कमी होगी तो फिर धीरे-धीरे हमारी भक्ति लुप्त हो जाएगी, खत्म हो जाएगी। श्रद्धा का अभाव होगा इसलिए भक्ति के साथ श्रद्धा का भी परिपक्व होना बहुत जरूरी है।

मंगलवार, 2 मार्च 2021

श्रीराम और शिव में कभी मतभेद न कीजिए।

                     श्रीराम और शिव में कभी मतभेद न कीजिए।


'भगवान शिव' राम के इष्ट एवं 'राम' शिव के इष्ट हैं। ऐसा संयोग इतिहास में नहीं मिलता कि उपास्य और उपासक में परस्पर इष्ट भाव हो , इसी स्थिति को संतजन 'परस्पर देवोभव' का नाम देते हैं। 

 शिव का प्रिय मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' एवं 'श्रीराम जय राम जय जय राम' मंत्र का उच्चारण कर शिव को जल चढ़ाने से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होते हैं। 

भगवान राम ने स्वयं कहा है–

 शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा।'

 अर्थात्‌* :- जो शिव का द्रोह कर के मुझे प्राप्त करना चाहता है वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए शिव आराधना के साथ श्रीरामचरितमानस पाठ का बहुत महत्वपूर्ण होता है। 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम 14 वर्ष के वनवास काल के बीच जब जाबालि ऋषि की तपोभूमि मिलने आए तब भगवान गुप्त प्रवास पर नर्मदा तट पर आए। उस समय यह पर्वतों से घिरा था। रास्ते में भगवान शंकर भी उनसे मिलने आतुर थे, लेकिन भगवान और भक्त के बीच वे नहीं आ रहे थे। भगवान राम के पैरों को कंकर न चुभें इसीलिए शंकरजी ने छोटे-छोटे कंकरों को गोलाकार कर दिया। इसलिए कंकर-कंकर में शंकर बोला जाता है। ज

जबप्रभु श्रीराम रेवा तट पर पहुंचे तो गुफा से नर्मदा जल बह रहा था। श्रीराम यहीं रुके और बालू एकत्र कर एक माह तक उस बालू का नर्मदा जल से अभिषेक करने लगे। आखिरी दिन शंकरजी वहां स्वयं विराजित हो गए और भगवान राम-शंकर का मिलन हुआ। 

शिवप्रिय मैकल सैल सुता सी, सकल सिद्धि सुख संपति राशि..., रामचरित मानस की ये पंक्तियां श्रीराम और शिव के चरण पड़ने की साक्षी है।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

त्रिपुरारिसिरधामिनी (गंगा जी का यह नाम कैसे पडा़

                            त्रिपुरारिसिरधामिनी( शिव के मस्तक में निवास करने वाली)


जब महाराज भगीरथ ने ब्रह्मलोक से गंगा जी को प्राप्त कर लिया,तब यह कठिनाई सामने आई कि यदि गंगा जी की धारा वहां से सीधे भूलोक पर गिरेगी तो उससे भूलोक जलमग्न हो जाएगा। इसलिए उन्होंने भव भय हारी भगवान शंकर की स्तुति की और शंकर जी ने ब्रह्मलोक से अवतरित होती हुई गंगा की धारा को, अपनी जटा जाल में रोक लिया। इसी से श्री गंगा जी को त्रिपुरारी (शिव )के मस्तक में निवास करने वाली कहा जाता है।

जह्नु बालिका(गंगा जी)

                               जह्नु बालिका(गंगा जी)


जब महाराज भगीरथ गंगा जी को अपने रथ के पीछे पीछे भुलोक में ला रहे थे, उस समय गंगा का प्रवाह जह्नु मुनि के आश्रम से होकर निकला, मुनि ध्यानावस्थितथे, प्रवाह को आते देख उन्होंने उसे उठाकर पी लिया। पीछे महाराज भगीरथ ने उनकी स्तुति कर उनको प्रसन्न किया। तब मुनि ने जगत के हितार्थ गंगा जी को अपने जंघे से निकाल दिया। तभी से गंगा जी का नाम जह्नु सुता या जाह्नवी पड़ा।

कालकूट विष

                                 कालकूट विष




देवता और असुरों ने एक बार मेरु पर्वत की मथानी और शेषनाग का दण्ड बनाकर समुद्र का मंथन किया।उसमें सबसे पहले हलाहल विष निकला और उसने दसों दिशाओं को अपनी ज्वाला से व्याप्त कर दिया। फिर तो देवता और असुर सभी त्राहि-त्राहि करने लगे, सबों ने मिलकर विचारा कि बिना भक्तवत्सल भगवान शंकर के इस महाघातक वि‌ष से त्राण पाना कठिन है।इसलिए उन्होंने एक साथ आर्त स्वर से भगवान शंकर को पुकारा। भक्त आर्ति हर करुणामय भगवान शंकर जी प्रकट हुए और उनको भयभीत देखकर हलाहल विष को उठाकर पान कर गए। परंतु शीघ्र ही उन्हें स्मरण हुआ कि हृदय में तो ईश्वर अपनी अखिल सृष्टि के साथ विराजमान है। इसलिए उन्होंने इस विष को कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया गया और उस विघ्न के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और दोषपूर्ण वह विष भगवान का भूषण बन गया। तभी से शिव 'नीलकंठ' कहलाने लगे।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

काशी स्तुति(विनय पत्रिका)

                                 काशी स्तुति

इस कलयुग में काशी रूपी कामधेनु का प्रेम सहित जीवन भर सेवन करना चाहिए। यह शोक, संताप, पाप और रोग का नाश करने वाली तथा सब प्रकार के कल्याण की खानी है। काशी के चारों ओर की सीमा इस कामधेनु के सुंदर चरण है। स्वर्गवासी देवता इसके चरणों की सेवा करते हैं। यहां के शक्ति स्थान इसके शुभ अंग है और राष्ट्रहित अगणित शिवलिंग इसके रूप है अंतर्गत काशी का मध्य भाग इस कामधेनु का ऐन यानी के गद्दी है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों के चार थन है। वेद शास्त्रों पर विश्वास रखने वाले आस्तिक लोग इस के बछड़े हैं। विश्वासी पुरुषों को ही इस में निवास करने से मुक्ति रूपी अमृत में दूध मिलता है। सुंदर वरुणा नदी इसकी गल कंबल के समान शोभा बढ़ा रही है और असी नामक नदी पूछ के रूप में शोभित हो रही है। दंड धारी भैरव इसके सींग है, पाप में मन रखने वाले दुष्टों को उन सींगो से यह सदा डराती रहती है। लोलार्क कुंड और त्रिलोचन( एक तीर्थ) इसके नेत्र हैं और कर्ण घंटा नामक तीर्थ इसके गले का घंटा है। मणिकर्णिका  इसका चंद्रमा के समान सुंदर मुख है। गंगा जी से मिलने वाला पाप ताप नाश रूपी सुख इसकी शोभा है। भोग और मोक्ष रूपी सुखों से परिपूर्ण पंचकोशी की परिक्रमा इसकी महिमा है। दयालु ह्रदय विश्वनाथ जी इस कामधेनु का पालन पोषण करते हैं और पार्वती सरीखी स्मनेहमयी जगजननी इस पर सदा प्यार करती रहती हैं। आठों सिद्धियां सरस्वती और इंद्राणी शची उसका पूजन करती हैं ।जगत का पालन करने वाली लक्ष्मी सरीखी इसका रुख देखती रहती हैं। 'नमः शिवाय' यह पंचाक्षरी मंत्र ही इसके पांच प्राण है ।भगवान बिंदुमाधव ही आनंद है। पंच नदी पंचगंगा तीर्थ ही इसके पंचगव्य है। यह संसार को प्रकट करने वाले राम नाम के दो अक्षर र कार और मकार इस के अधिष्ठाता ब्रह्मा और जीव हैं। यहां मरने वाले जीवो का सब सुकर्म और कुकर्म रुपी  घास यह चार जाती है। जिससे उनको वही परम पद रूपी पवित्र दूध मिलता है, जिसको संसार के विरक्त महात्मा गण चाहा करते हैं। पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु ने संपूर्ण कला लगाकर अपने हाथों से इसकी रचना की है। हे तुलसीदास! यदि तू सुखी होना चाहता है तो काशी में रहकर श्री राम नाम का जप कर।।

शिव स्तुति 2(विनय पत्रिका)

                       शिव स्तुति-2

शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वे दीन दयालु है, देना ही उनके मन भाता है। मांगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं। वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु का प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है? करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनि गण जिस परम गति को भगवान हरि से मांगते हुए सकुचाते हैं, वही परम गति त्रिपुरारी शिवजी की पुरी काशी में कीट पतंगे भी पा जाते हैं। यह वेदों से प्रकट है। ऐसे परम उदार भगवान पार्वती पति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह मांगते मांगने जाते हैं, उन मूर्ख मांगने वालों का पेट भलीभांति कभी नहीं भरता।।

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