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बुधवार, 31 दिसंबर 2014

bhakt himmtdas





भक्त  हिम्मतदास 

भगवान सदा अपने भक्तो का ध्यान रखते हैं। उनके बड़े से बड़े कष्टो को पलमात्र में नष्ट कर देते हैं, परन्तु वह उन्ही भक्तो का साथ देते हैं जो पूर्णरूप से प्रभु के चरणो में समर्पित हो जाते हैं। ऐसे ही प्रभु  के कृपापात्र हुए हैं -भक्त हिम्मतदास।

    हिम्मतदास और उनकी पत्नी में अगाध प्रेम था। दोनों ही भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित थे। एकबार लक्ष्मीजी ने भगवान से पूछा कि महाराज  क्या आपसे बड़ा भी कोई हैं ? भगवान विष्णु ने सरल भाव से कहा -हाँ हैं , वह हैं हमारा भक्त। लक्ष्मीजी ने कहा -तब तो वे रिश्ते में मेरे जेठ हुए। जेठ अथवा ससुर से नारियो में पर्दे का विधान हैं अत:मैं भी आपके भक्तो से पर्दा करती रहूंगी। आप देखते हैं कि  जो भगवान का सच्चा भक्त होता हैं वह लक्ष्मीजी की कृपा से तो वंचित रहता हैं परन्तु प्रभु  की कृपा का पात्र बन जाता हैं , और प्रभु उसके सभी कष्टो को दूर करने के लिए वैसा ही रूप धारण कर लेते हैं , जिससे उसके कष्ट दूर हो।
इसी प्रकार भक्त हिम्मतदास भी अपनी पत्नी के साथ प्रभु चरणो में लीन होकर राम नाम जपते थे तथा साधु संतो को भगवान का रूप मानकर उनकी सेवा में दिन रात तल्लीन रहते थे। परन्तु लक्ष्मीजी की कृपा से वंचित थे।
                 एक दिन संत हिम्मतदास के घर में कुछ संत आगए , और उन्होंने भोजन की इच्छा  प्रगट की। उस समय संत हिम्मतदास के पास स्वंय के खाने के लिए कुछ नहीं था, तो वह संतो को कहा से खिलाते परन्तु फिर भी संतो को बड़े आदर सत्कार के साथ आसन दिया। संतो को बिठाकर भक्त अंदर गया और अपनी पत्नी से सलाह करने लगा कि संतो की भोजन की व्यवस्था कैसे हो। पत्नी बोली -आप चिंता क्यों करते हो ? दुकानवाले सेठ आपके व्यवहारी हैं। आप उनसे आटा -दाल उधार ले  आइये , जिससे संतो की सेवा हो जाएगी। भक्त हिम्मतदास सेठ के पास आटा -दाल  उधार  लेने चले गए।
        सेठ को अपनी व्यथा सुनाई , परन्तु सेठ ने उधार देने से मना कर दिया और पहले वाली उधारी चुकाने के लिए बोला। निराश होकर भक्त घर आ गया , और पत्नी को सब बात बताई। भक्त की पत्नी कमरे में गई और बक्से में खोजने लगी कि कुछ मिल जाए तभी उन्हें अपने मायके की नथ  दिखी उन्होंने उस नथ को अपने पति को दिया और भोजन की सामग्री लाने को कहा।
भक्त ने वह नथ  गिरवी रख कर समान ला दिया। भक्त ने अपनी पत्नी से कहा तुम आँगन लीप देना इतने मैं संतो को स्नान करवा कर लाता हूँ। उनकी पत्नी आँगन लीपने लगी। उधर ठाकुरजी को अपने भक्त की दशा देखकर दुःख हुआ और वह संत हिम्मतदास का रूप बना कर सेठ के पास पहुंचे और अपने भक्त की उधारी चुकाई और नथ  लेकर  अपने भक्त के घर आये। संत हिम्मतदास की पत्नी को नाथ देने लगे , संत की पत्नी ने कहा कि मेरे हाथो में मिटटी लगी हैं अत :तुम ही पहना दो ठाकुरजी ने अपने हाथों से पहना दी और बोले तुम भोजन तैयार करो ,मैं संतो को लेकर आता हूँ और रस्ते में ही अंतर्धान हो गए। उधर संत हिम्मतदास संतो को लेकर आया , पत्नी को नथ पहने देख हैरान हो गया और बोला यह नथ तो मैं सेठ को गिरवी रख कर आया था  तुम्हारे पास कहाँ से आ गई। उनकी पत्नी ने कहा की अभी आपने ही तो पहनाई हैं और आटा , दाल , चावल की बोरियां रखकर गए थे। संत हिम्मतदास हैरान हो गया। संतो को भोजन करवा कर अंत में सेठ के पास गया और सेठ से नथ के बारे में पूछा तो सेठ ने कहाँ कि तुम ही तो आये थे। भक्त हिम्मतदास समझ गया कि आज फिरसे नरसी का भात भरने वाला फिर से हिम्मतदास बन गया। धन्य हो प्रभु आपसे अपने भक्तो की कठनाई नहीं देखी  जाती। अब तो भक्त हिम्मतदास और उनकी पत्नी संतो की सेवा करते हुए प्रभु भक्ति में लीन रहने लगे और अंत में प्रभु की कृपा से सदगति को प्राप्त हुए। 

रविवार, 21 दिसंबर 2014

धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय

धीरे -धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय। 


                                             
धीरे. -धीरे एक- एक सीढ़ी  पर चढ़ने वाले को गिरने का भय  नहीं रहता। ऊपर चढ़ने में देर अवश्य लगती हैं पर वह अपनी मंजिल तक पहुचँ  ही जाता हैं। ज्ञानी पुरुष वह हैं  अपनी बुद्धि  से काम ले किसी भी काम को करनेसे पहले उसके परिणाम को सोच लेना चहिये, यही बुद्धिमानी की निशानी हैं। यदि तुम्हे अपनी बुद्धि  पर भरोसा नहीं तो अपने आपको भगवान  के चरणो में सौंप दो। जिस तरह नासमझ बच्चा माँ की गोद  में जाकर निर्भय हो जाता है।  माता अपने बच्चे के सुख -दुःख का भार अपने ऊपर लेकर उसकी रक्षा करती हैं। 
          तुम भी भगवान पर भरोसा करके निर्भय हो जाओ। सोच लो वो जो भी करेंगे तुम्हारे भले के लिए ही करेंगे। जो कुछ भी वह तुम्हे दे , उसे प्रसन्नता पूर्वक लो। दूसरे के सुख वैभव  देखकर मन मत ललचाओ। अपने भाग्य को मत धिक्कारो। सोच लो कि जितना तुम भोग सकते  हो , उतना ही भगवान ने तुम्हे दे रखा हैं। जिस तरह माँ के चार बच्चे हैं उनको वह समान ही प्यार करती हैं। अगर उसमे से एक बीमार हो जाता हैं  तो वह  समानता रखते हुए भी बीमार बच्चे कोकड़वी दवाई पिलाएगी। अगर वह मिठाई की चाह  करेगा तो वह उसकी जिद पूरी नहीं करेगी , क्योंकि माँ जानती हैं की उसके बच्चे के हित  के लिए क्या अच्छा हैं , और क्या नहीं। ऐसे ही हम दुसरो के सुख वैभव को देखकर अपने को दुखी करे , भगवान को भला -बुरा कहे , तो यह हमारी मूर्खता होगी। 
         दुःख  कड़वी दवा के सामान हैं , जिसे देखते ही हम अबोध बच्चे की तरह हाथ -पांव मारने लगते हैं , अपने भाग्य को कोसते हैं ;यह नहीं समझते दयालु प्रभु ने हमारी भलाई के लिए ही यह कड़वी दवाई भेजी हैं। तुम मानो  या न मानो हमारी  बढ़ती    
इच्छा ही हमारी  बीमारी का कारण हैं। यह जब बढ़ती जाती हैं तो हमे भले -बुरे का ज्ञान नहीं रहता। जिस पर प्रभु की कृपा 
दृष्टि हो जाती हैं उसे जल्द ही ठोकर लग जाती हैं और वह सँभल जाता हैं ,इसलिए  जितना जल्दी हो सके अपनी इच्छाओ का दमन करो और जहाँ तक हो सके उन से दूर रहने की कौशिश करो। 
           मानो या न मानो जितना तुम्हे जरूरत हैं तुम्हे उतना दे रखा हैं। छोटे -से -छोटे कीड़े का भी पेट भरते हैं वह। 
           शरीर में गर्मी का रहना जरुरी हैं यह कौन नहीं जानता ,जब यही गर्मी जरूरत से ज्यादा बड़ जाती हैं  तो लोग इसे बुखार कहने  लगते हैं। इसी प्रकार जितनी तुम्हारी शरीर की जरूरत हैं उससे अधिक की इच्छाए भी एक बुखार की तरह हैं। इनसे जितना दूर रहो उतना ही अच्छा हैं। नही तो यह इच्छाए  एक दिन तुम्हारे लिए मृत्यु का बहाना कर देंगी।
             एक लक्खुमल था -पता नही , माँ -बाप ने क्या सोचकर उनका यह नाम रख दिया पर लक्खू को यह लगता था कि यह नाम उसके लखपति बनने की निशानी हैं। भगवान ने खाने पीने को पर्याप्त दे रखा था दो जीव थे पति और पत्नी। मजे में गुजारा हो रहा था। पर लखपति बनने के चक्कर में खाना -पीना हराम हो गया।  इतना पैसा कैसे प्राप्त हो बस यही चिंता रहने लगी। धीरे -धीरे पैसा जमा करेंगे तो जीवन बीत जाएगा इसलिए  जल्दी लखपति बनने के चक्कर में सट्टे  सहारा लिया घर में जो जमा पूंजी थी वो लगा दी जीत गए , हौसला बढा तो जीती हुई रकम सारी  फिर लगा दी। लक्खू जी एक ही दिन में लखपति बन गए खुशी के मारे चीख उठे और ठंडे हो गए। लोगो ने संभाला  सेठ जी ठण्डे हो चुके थे। मृत्यु को उनकी दौड़ भाई नहीं। जो तुम्हारे पास हैं उसमे संतोष करो ,उसी में आनंद हैं। भगवान के कृपा -पात्र बने रहोगे और सुख का अनुभव करोगे।
                                                                                             श्री  राधे !

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

देवयानी कौन थी भाग 2

देवयानी कौन थी ?भाग २


कच  ने मृत संजीवनी विद्या को सीखकर जीवित होकर शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर निकल कर ,शुक्राचार्य को भी जीवित कर लिया। कच ने एक हजार वर्ष की तपस्या पूरी करने के पश्चात दीक्षा लेकर स्वर्ग जाने की अनुमति शुक्राचार्य से मांगी। गुरु से आज्ञा लेकर स्वर्ग को प्रस्थान करते हुए कच  के समक्ष देवयानी आई , देवयानी ने करबद्ध होकर प्राथर्ना की कि  मैं आपसेप्रेम करती हूँ एंव आपसे शादी करना चाहती हूँ। 
कच ने विन्रम भाव से कहा कि  मैं आपसे शादी नहीं कर सकता क्योंकि एक तो आप गुरु पुत्री हैं , दूसरा मेरा पुनर्जन्म आपके पिता के पेट से हुआ हैं इसलिए आप मेरी बहन हुई। आप ही विचार कीजिये आपका विवाह मेरे साथ धर्म मर्यादा के विरुद्ध हुआ कि  नहीं। 
वृहष्पति पुत्र के द्वारा ठुकराए जाने से आहत व अपमानित देवयानी ने क्रोधित होते हुए कहा -मेरे प्रेम का आपने निरादर किया हैं    
इसीलिए मैं आपको श्राप देती हूँ कि  मेरे पिता द्वारा सिखाई गई विद्या आपके किसी काम नहीं आएगी। 
कच बोले मैं आपके द्वारा दिए गए इस श्राप को शिरोधार्य करता हूँ , विद्या मैने स्वंय के लिए ग्रहण नहीं की , किन्तु मैं जिसे भी इस विद्या का ज्ञान दूंगा वह अवश्य ही लाभन्वित होगा। हे देवी ! आपने काम के वशीभूत होकर मुझे श्राप दिया हैं , अतः मैं आपको श्राप देता हूँ कि  कोई भी ब्रह्मण आपका वरण  नहीं करेगा। इतना कहकर कच  स्वर्ग को प्रस्थान कर गए। 

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

devyani kaun thi ?



देवयानी कौन थी

राजस्थान में एक सरोवर हैं जिसका नाम हैं देवदानी। इसका असली नाम हैं देवयानी।देवयानी का नाम क्यों पड़ा तथा देवयानी कौन थी ? यह निश्चित रूप से जिज्ञासा का विषय हैं। प्राचीन समय की बात हैं देव और दानवो में युद्ध चल रहा था। देवताओ के गुरु वृहस्पतिजी और दानवो के गुरु शुक्राचार्य अपनी अपनी सेना का प्रतिनिधत्व कर रहे थे युद्ध में दोनों और से प्रतिदिन देव और दानवो का वध हो रहा था , किन्तु राक्षस सेना में कोई भी कमी न होते देख देवताओ को चिंता हुई। दैत्य गुरु अपनी मृत संजीवनी विद्या से तुरंत जीवित कर लेते थे। देव गुरु वृहस्पतिजी के पास ऐसी कोई विद्या नहीं थी , ऐसे में चिंतित देवता एकत्रित होकर वृस्पतिजी के पुत्र कच  के पास गए। उन्होंने प्राथर्ना की कि और कहा -हे गुरु पुत्र हम सब आपकी शरण में हैं , आपको विदित हैं की शुक्राचर्य पास मृत संजीवनी विद्या हैं जिसके कारण राक्षस दुबारा जीवित  जाते हैं। आपको देवताओ के सम्मान , प्रतिष्ठा और रक्षा हेतु उनकी शरण में जाकर यह विद्या सीखनी होगी। 
देवताओ के आग्रह को स्वीकार करते हुए कच  दैत्य गुरु की शरण में गए और विनती की-हे दैत्य गुरु मैं  वृहस्पति का पुत्र कच  हूँ , आपसे विद्या प्राप्ति का संकल्प लेकर उपस्थित हुआ हूँ। मैं एक हजार वर्ष तक ब्रह्मचार्य  का पालन करते हुए आपसे विद्या प्राप्त करने का संकल्प लेकर आया हूँ। शुक्राचर्य ने कच को अपने आश्रम में रहने व् विद्या प्राप्त करने की अनुमति  दे दी , कच शुक्राचार्य  के साथ घोर -साधना में लीन हो गए। 
लगभग ५०० वर्ष व्यतीत होने पर देत्यो को कच के आगमन  और  विद्या प्राप्ति का  पता चल गया। देत्यो ने गुरु के समक्ष अपने संदेह व कच के उद्देश्य  को उजागर किया पर दैत्य  गुरु मौन रहे। राक्षस कच  को मारने का षड्यंत्र रचने लगे। योजना के अनुसार  जब कच  जंगल में गाय चराने गए तो देत्यो ने उनकी हत्या करके उनके शव के टुकड़े करके भेडियो को खिला दिया 
संध्या के समय गाय  के साथ कच  को न देख शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी  चिंता व्यक्त की। पुत्री की चिंता को देखते हुए शुक्राचार्य ने तपस्या के द्वारा सब बातो का पता लगा लिया। शुक्राचार्य ने भेड़िये के पेट से कच के शरीर के टुकड़ो को निकाल कर  मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा उसको जीवित कर लिया। ऐसा छल देत्यो ने दो बार किया परन्तु गुरु की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए दोनों बार जीवित कर  दिया। 
एक बार फिर देत्यो ने षड्यंत्र के तहत कच के  शव को जला दिया और उसकी भस्म को शराब में मिलाकर गुरु शुक्राचर्य को ही पिला दिया। शुक्राचार्य ने कच को न पाकर उसका आव्हान किया तो कच ने बताया कि मैं आपके पेट में हूँ। तब शुक्राचार्य ने कहा कि तुम ध्यानपूर्वक यह विद्या सीखो और मेरे पेट को फाड़कर बाहर निकल कर मुझे भी जीवित कर देना। कच ने यही किया।शेष कल:–

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

मनुष्य के कल्याण में सबसे बड़ा बाधक

मनुष्य के कल्याण में सबसे बड़ा बाधक


(ब्रह्मलीन परम श्रधेय श्री जय दयालजी गोयन्दका)
मनुष्य के कल्याण में सबसे प्रधान बाधक बुद्धि ,मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों में आसक्त होकर उन सबके आधीन हो जाना ही हैं |जब तक मन वश में नही होता ,तब तक परमात्मा की प्राप्ति होना बहुत ही कठिन हैं | भगवान कहते हैं -
जिसका मन वश में नहीं हुआ हैं ,ऐसे पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना मुश्किल हैं |
अत: मन को वश में करने के लिए शास्त्रों में बहुत से उपाय बताए हुए हैं ,उनमे से किसी भी एक को अपना कर मन को वश में करना चाहिए |मन की चंचलता तो प्रत्यक्ष हैं |अर्जुन ने भी चंचल होने के कारण मन को वश में करना कठिन बतलाया हैं |परन्तु श्री कृष्ण कहते हैं कि अभ्यास के द्वारा यह संभव हैं इस अभ्यास के अनेक प्रकार हैं :
1-जहाँ -जहाँ मन जाए ,वहाँ- वहाँ ही परमात्मा के स्वरूप का अनुभव करना और वहीं मन को परमात्मा में लगा देना ;क्योंकि परमात्मा सब जगह सदा ही व्यापक हैं ,कोई भी ऐसा स्थान या काल नहीं हैं ,जहाँ परमात्मा नहीं हो |

2-मन जहाँ -जहाँ संसार के पदार्थो में जाए ,वहां से उसको विवेक पूर्वक हटाकर परमात्मा के स्वरूप में लगाते रहना |


3-विधि पूर्वक एकांत में बैठकर सगुण भगवान का ध्यान करना |भगवान ने गीता में कहा हैं -शुद्ध भूमि में जिसके ऊपर कुशा ,या शुद्ध वस्त्र का आसन हो |जो न बहुत ऊँचा हो ,न बहुत नीचा हो |उस पर बैठकर इन्द्रियों और मन को वश में करते हुए अंत: करण की शुद्धी के लिए योग का अभ्यास करे |

4-एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही हैं -ऐसा द्रढ़ निश्चय करके तीक्ष्ण बुध्दि के द्वारा उस आनन्दमय परमात्मा का ध्यान करना|

dukho ka ant kese ho





दुखो का अंत कैसे हो 

मनुष्य की स्वभाविक इच्छा हैं ,दुखो से छुटकारा और सुख की प्राप्ति। 
जिस मार्ग पे सुख पाना चाहते हो प्राय: गलत मार्ग होता हैं जिससे दुःख अशांति बढ़ती हैं। आज मनुष्य के अंदर सदाचार नियम तथा नियम का आभाव हैं तथा कलुषित बुराइयो का भंडार हैं। सुखासक्ति इतनी तीव्र हें कि कोई कर्म कुकर्म करने में संकोच नहीं हैं | आज मानव धर्म और नीति का चोला पहन रखा हैं ,परन्तु व्यवहार में अधर्म और अनीति के कार्य करतेहैं |यदि मनुष्य सचमें दुखो का अंत और सुख की प्राप्ति चाहता हैं तो उसे सही मार्ग अपनाना पड़ेगा |उसका उपाय यह हैं कि वह दुसरो के दुखो को अपना ले ,स्वयं दुःख लेकर दुसरो को सुख देने लगे तो उसे निश्चय ही परम सुख की प्राप्ति होगी |
अपने आप से भिन्न दुसरो से सुख की आशा करना ही दुःख का मूल कारण हैं |परमात्मा से विमुख होना भी दुःख का कारण हैं |मनुष्य को यह मन में बिठा लेना चाहिय की ईश्वर ही मेरे हैं ,यह चिंता नहीं करनी चाहिय की मैं उनका हूँ कि नहीं ,वे मुझसे प्यार करते हैं या नहीं -यह संदेह तो संसार के जीवो से करना चाहिए |गीता में कहा हैं कि जो जीव जिस भाव से जितनी मात्रा में भगवान से प्यार करता हैं ,भगवान भी  उस जीव से उसी भाव में उतनी ही मात्रा में प्यार करते हैं |अत: हमे भगवान से जितना प्यार चाहिए हमे उतना ही प्यार उन्हें करना होगा |भगवान हमारे इतने निकट हैं जितना आखों में लगा काजल | लेकिन काजल को हम बिना दर्पण के नहीं देख सकते उसी प्रकार अपने भगवान को हम बिना संत सदगुरु रूपी दर्पण के बिना नहीं देख सकते |
ऐसे महान प्रभु के ह्रदय में होते हुए भी हम आज घोर दुखी व् अशांत हैं  क्यों ? मात्र न जानने के कारण |वस्तुत : ईश्वर तर्क के नहीं ,बल्कि श्रद्धा व् विश्वास के विषय हैं |जब तक विश्वास नहीं होगा ,तब तक सुख शांति भला केसे मिल सकती हैं |

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

मन की उलझन



एक बड़ी उलझन 


यदि तुममे सम्पूर्ण आस्था हैं ,तब कोई प्रश्न नहीं .यदि तुममे आस्था नहीं हैं , तो प्रश्न पूछने की कोई जरुरत नहीं , क्योंकि उसके उत्तर में तुम्हे आस्था कैसे होगी ?

उलझन - और उन प्रश्नो का क्या जो हम आपसे सम्पूर्ण आस्था से पूछते हैं ? 

उत्तर - अगर ईश्वर में तुम्हारी आस्था हैं , जब तुम जानते हो कोई तुम्हारी देख - रेख कर रहा हैं , तो फिर प्रश्न पूछने की क्या आव श्यकता हैं ? यदि तुम बेंगलोर जाने के लिए कर्नाटक एक्सप्रेस में बैठे हो , तो क्या हर स्टेशन पर यह पूछने की जरूरत हैं की यह रेलगाड़ी कहाँ जा रही हैं ?
और जब तुम्हारे पास कोई हैं जो तुम्हारी इच्छाओ का ध्यान रख रहा हैं तो ज्योतिषी के पास जाना ही क्यों हैं ?
उलझन - अंधी आस्था ( ब्लाइंड फेथ ) क्या हैं ? 
उत्तर - आस्था आस्था हैं ..... अंधी हो ही नहीं सकती .जिसे तुम अँधा कहते हो वह आस्था नहीं हैं .
अंधेपन और आस्था का कोई मेल नहीं .जब तुम आस्था खो देते हो तो , तब तुम अंधे हो जाते हो .

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