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शनिवार, 23 अप्रैल 2016

भक्तराज केवट


                              भक्तराज केवट 


क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेष शैय्या पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रही हैं। विष्णुजी के एक पैर  का अंगूठा शैय्या के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं।

क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार किया कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिह्वा से स्पर्श कर लूं तो मेरा मोक्ष हो जायेगा, यह सोच कर वह उनकी ओर बढ़ा। 

उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुंफकारा, फुंफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया।
कुछ समय पश्चात् जब शेषनाग जी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। इस बार लक्ष्मीदेवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया।
इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों बार प्रयास किया पर शेष नाग और लक्ष्मी माता जी के कारण उसे  सफलता नहीं मिली। यहां तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सतयुग बीत जाने के बाद त्रेतायुग आ गया।
इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लिया था।

कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का और वही शेषनाग लक्ष्मण का व वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। इसीलिये वह भी केवट बनकर वहां आ गया।

एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे, इसीलिये उसने रामजी से कहा था कि मैं आपका मर्म (भेद) जानता हूं।
सन्त श्री तुलसीदासजी भी इस तथ्य को जानते थे, इसीलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि 

"कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।

केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध करके फुंफकारते थे और मैं डर जाता था।

अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं, पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं। 

इसीलिये विद्वान सन्त श्री तुलसीदासजी ने लिखा है-

(हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगन्ध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूं। भले ही लक्ष्मणजी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूंगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूंगा)।

तुलसीदासजी आगे और लिखते हैं -

केवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे बचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्रजी जानकी और लक्ष्मण की ओर देख कर हंसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं- कहो, अब क्या करूं, उस समय तो केवल अंगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर मांग रहा है!

केवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। तुलसीदासजी लिखते हैं-

चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।

उस समय का प्रसंग है... जब केवट भगवान् के चरण धो रहे हैं।

बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकालकर कठौती से बाहर रख देते हैं, और जब दूसरा धोने लगते हैं तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है

केवट दूसरा पैर बाहर रखते हैं, फिर पहले वाले को धोते हैं, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते हैं।

फिर ये सब देखकर कहते हैं, प्रभु, एक पैर कठौती में रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो।

जब भगवान् ऐसा ही करते हैं तो जरा सोचिये ... क्या स्थिति होगी, यदि एक पैर कठौती में है और दूसरा केवट के हाथों में

भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले- केवट मैं गिर जाऊंगा?केवट बोला- चिन्ता क्यों करते हो भगवन्!

दोनों हाथों को मेरे सिर पर रखकर खड़े हो जाइए, फिर नहीं गिरेंगे।
जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी मां उसे स्नान कराती है तो बच्चा मां के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े हैं।

भगवान् केवट से बोले- भइया  केवट! मेरे अन्दर का अभिमान आज टूट गया।

केवट बोला- प्रभु! क्या कह रहे हैं?

भगवान् बोले- सच कह रहा हूं केवट, अभी तक मेरे अन्दर अभिमान था, कि.... मैं भक्तों को गिरने से बचाता हूं पर आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है।

          

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1)

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1): जीवन में सफलता के सूत्र  1 . जीवन का उद्देश्य निर्धारित करें - उद्दे श्य के बिना व्यक्ति  के  जीवन का कोई  महत्व नहीं रखता ।मनुष्...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

जीवन की कीमत

                                                                                                             कीमती जीवन



एक दीन हीन  लकड़हारे को राजा ने देखा तो उसके मन में दया आ गयी। उसने लकड़हारे को चन्दन का बगीचा दे दिया। सोचा कि  चन्दन बेच कर धनी हो जायेगा और सुखी हो जायेगा। परन्तु उस लकड़हारे ने चन्दन की महिमा को नहीं जाना और उसको जलाकर कोयला बना कर बेचने लगा। बगीचे के तीन भाग उसने इसी तरह बेच दिए। सयोगवश एक दिन उसे राजा मिला ,उस दिन लकड़हारा कोयला बेचने जा रहा था तो उसे राजा ने देखा वो पहले की तरह दुखी और गरीब था। राजा ने हैरान  हो कर पूछा कि मेने तुम्हे इतना कीमती चन्दन का बगीचा दिया था तुमने उसे जला कर कोयला क्यों कर दिया ,तो उसने माफ़ी मांगी और बोला  की उसे चन्दन के महत्व का पता ही नहीं था इसीलिए उसने ऐसा कर दिया तो राजा ने  चन्दन के महत्व को बताया और शेष बचे बगीचे  का सदुपयोग  करने  को कहा।

हम भी अक्सर लकड़हारे की तरह गलती करते हैं और इस शरीर  रूपी चन्दन को व्यर्थ के कामनाओं ,इच्छाओं को पूरा करने के लिए जला कर कोयला कर देते हैं और फिर दुखी रहते हैं। किस्मत से राजा रूपी संत आकर इस जीवन की कीमत बता दे तो हम पहले सम्भल सकते हैं और इसका सदुपयोग  हो जाता हैं।

उसे मानकर बची हुई जो आयु हैं उसमे हम ईश्वर का भजन करे दुखियों की सहायता करे तो मनुष्य  जीवन सफल हो सकता हैं जिसमे हम प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न रख सके इसी में मनुष्य जीवन की सफलता हैं। बुरे कर्म करके मन कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                    संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                     



सत्संग का लाभ मिलता हैं तो धीरे धीरे मन में शांति आती  हैं अन्यथा प्रत्येक प्राणी तन ,मन ,धन और जन से दुखी दिखाई पड़ता हैं। संसार के सारे कार्य किसी के भी अनुकूल नहीं होते हैं। एक न एक प्रतिकूलता रहती हैं। अपने इष्ट देव में दृढ़ विश्वास रखने वाला जो शरण में हैं और जो सन्मुख हैं वही निश्चिन्त हैं और सुखी हैं। सत्य ,दया ,क्षमा और चोरी न करना आदि धर्म सभी वर्णो के धर्म हैं। जो दुसरो के व्यवहार से परेशान नहीं होते और अपने व्यवहार से किसी को परेशान  नहीं 
करते हैं वही संत हैं। तन ,मन ,धन से उपकार क र ने  वाले गृहस्थ जन महान हैं। मन की शुद्धि और लोगो के साथ व्यवहार में शुद्धि होने से लोक परलोक में पूर्ण निर्भयता प्राप्त होती हैं। 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।

               वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।



ब्रज की महिमा का बखान कैसे संभव है? प्रभु कृपा से ऐसा कोई तीर्थ नहीं; जो ब्रज में नहीं है। 

अपने बाबा और मैया यशोदा की इच्छापूर्ति हेतु कन्हैया ने सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया और उन्हें ब्रज चौरासी कोस में सभी तीर्थों के दर्शन कराये। यही कारण है कि "ब्रजवासी" जावे तो कहाँ ?

 ब्रज-चौरासी कोस की एक परिक्रमा 84 लाख योनियों के पाप-कर्मों के फ़ल से मुक्ति प्रदान कर श्रीश्यामा-श्याम के श्रीचरणों की भक्ति प्रदान करती है। 

एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।  
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे॥  
कोटि बार काशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।  
होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥ 
वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे..........

 बस, यहीं पड़ी रहूँ, कभी गिरिराज गोवर्धन की तलहटी में, कभी राधाकुन्ड और श्यामकुन्ड के मध्य, कभी श्रीलाड़लीजू के बरसाने और कभी कन्हैया के नन्दगाँव, कभी गोकुल, कभी मानसरोवर, बिहारवन, गहवरवन, मोरकुटि, चरण-पहाड़ी, कुन्ज-निकुन्जों में, यमुना पुलिन पर, वृन्दावन की कुन्ज गलियों में विचरती रहूँ। 

श्रीकिशोरीजू की कृपा से जिहवा पर, अंतर में राधे-राधे का उच्चारण हो रहा हो, कभी विरह में आर्तनाद हो तो कभी खिलखिलाकर अट्टाहास हो, नेत्रों के सामने श्रीयुगलकिशोर की लीलायें चल रही हों,

 यमुना पुलिन पर कभी उन्हें खेलते देखूँ तो कभी कुन्जों में श्रीजी का पुष्पों से श्रंगार करते अपने प्राणधन मोहन की अमृतमयी लीलाओं को निहारुँ, कभी श्रीजी के श्रीचरणों में बैठे नन्दनन्दन को मनुहार करते देखूँ।

 यह देखते-देखते दृष्टि ऐसी हो जाये कि एक श्रीयुगलकिशोर के अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी न दिखाई दे। ब्रज हो, ब्रजवासी हों, प्रिय वृन्दावन हो और श्रीयुगलकिशोर ! 

और क्या चाहूँ, क्या माँगू ? हे किशोरीजी, इस दासी का ऐसा सौभाग्य कब होगा ! जब मुझे वृन्दावन बसाओगी, यह कृपा कब करोगी ! ये भी आपकी ही अहैतु की कृपा है जो आपके चरणों में चित्त लगा, यह कृपा भी तो कम नहीं तो ।

।। श्रीराधे ।।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है।

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 



                  इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
                 रह न तेज तन बुधि बल लेसा।।

कुमार्ग़ पर पैर रखते ही बल और तेज़ जाता रहता हैं,

बात बिल्कुल सही है। कोई कितना भी बलवान एवं बुद्धिमान हो या फिर विद्वान ही क्यों न हो, जैसे ही उसकी प्रवृत्ति स्वयं को गर्हित कार्य में नियोजित करने की होती है सबसे पहले उसकी विवेकशक्ति का नाश हो जाता है। विवेकशून्य व्यक्ति जल्द ही काम, क्रोध और लोभ के अधीन कार्य कर अपना हीं अनिष्ट कर डालता है चाहे वह दशानन ही क्यों न हो। 

प्रसंग उसी दशानन रावण का ही लेते हैं जिसके पदचाप से धरती डोलती थी, जो अपने भुजाओं में स्थित बल को तौलने हेतु कौतुक से कैलाश पर्वत तक को तौल आनंदित होता था वही रावण जब सीताहरण जैसे गर्हित कर्म में प्रवृत्त हुआ तो उसका सारा तेज जाता रहा। 
राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण था बल्कि प्रकांड पंडित भी था तथा जिसके अतुलनीय बल से समस्त देव एवं मुनि समाज भयकम्पित रहता था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म जैसे उद्देश्य लेकर पहुंचता है तो उसकी मनोदशा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने मात्र दो चौपाई में जो किया है,वह अत्यंत रोचक होने के साथ ज्ञानवर्धक भी है। 

गोस्वामीजी ने तो ऐसे रावण की तुलना कुत्ते तक से कर डाली है~

चौपाई देखिये - 

सून बीच दसकंधर देखा। 
आवा निकट जती कें बेषा।। 
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। 
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।। 
सो दससीस स्वान की नाईं। 
इत उत चितइ चला भड़िहाईं।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। 
रह न तेज तन बुधि बल लेसा।। 

तुलसीदासजी कह रहे हैं - 

रावण सूना मौका देखकर यति(संन्यासी) के वेष में श्रीसीताजी के समीप आया। जिस रावण के डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि वे रात को सो नहीं पाते और दिन में डर के मारे भरपेट अन्न नहीं खा पाते वही दस सिर वाला रावण आज कुत्ते की तरह इधर उधर ताकता हुआ भड़िहाई(चोरी) के लिये चला। (सूना पाकर कुत्ता जब चुपके से बर्तन-भांडों में मुंह डालकर कुछ चुरा ले जाता है तो उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।)

पंचवटी में श्रीसीताजी को अकेला एवं सूना देख रावण आ तो रहा था संन्यासी वेष में किन्तु उसकी मनोदशा एक कुत्ते की सी हो गई थी जो चोरी-छिपे इधर उधर शंका से ताकता हुआ घर में रखे बर्तन-भांड में मुंह डालकर कुछ चुरा कर भागना चाहता है। 

देखिये प्रतापी रावण की दशा जिसकी तुलना भी की गई तो एक कुत्ते से। इसमें कवि का कोई दोष नहीं;दोष है तो उस कर्म का जिसने एक क्षण में दसकंधर जैसे की श्री एवं कीर्ति का नाश कर उसे स्वान बना डाला।
यह अतुलित बलशाली रावण का गर्हित कर्मजन्य दुर्भाग्य ही कहिये कि भरी सभा में उसे एक दूत से अपमानित होना पड़ा जब भगवान् राम के दूत बनकर दशानन की सभा में उपस्थित बालिकुमार अंगद ने उससे कहा-

रे त्रियचोर कुमारग गामी। 
खल मल रासि मंदमति कामी।। 

यदि कोई राजा एक दूत से सभा मध्य ऐसे वचन सुने और सहे तो वह निश्चय हीं श्रीहत एवं आत्मबलविहीन है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि  बल होते हुए भी रावण आत्मबल से उसी क्षण हीन हो गया था जिस क्षण उसने कुमार्ग पर चलने का निर्णय लिया। उसके बाद जो भी उसमें बलरूप में दिखा वह केवल और केवल उसका दम्भमात्र था। 
यह है कुमार्ग पर कदम रखने का परिणाम! यह ध्रुव सत्य है कि कुमार्गी अंततोगत्वा नाश को प्राप्त होता है; समय जो लगे। अनैतिक बल का आश्रय लेने का परिणाम कभी सुखमय नहीं हो सकता है। 

अस्तु:-

इसीलिए काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरूड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 

।।श्रीराम जय राम जय जय राम।।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

माता के 9 अवतारों का सरल वर्णन

          माता के 9 अवतारों का सरल वर्णन

                    ये हैं सती_पार्वती के 9 अवतार

कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी मां सती पार्वती को ही शैलपुत्री‍, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जाना जाता है।

इसके अलावा भी मां के अनेक नाम हैं जैसे दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेरांवाली आदि। इनके दो पुत्र हैं गणेश और कार्तिकेय।

प्रथम स्वरूप –शैलपुत्री
   
 प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु अपनी पुत्री सती और शिव को जान-बूझकर नहीं बुलाया। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में शिवजी ने उन्हें समझाया कि तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।

नवशक्ति का दूसरा स्वरूप 
ब्रह्मचारिणी

मां दुर्गा की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इस देवी को तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया।

यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। 

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू। 
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥ 

ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।

पूर्व जन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया। 

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। 

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं। 

दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है।

चंद्रघंटा

चंद्र घंटा अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति देवी चंद्रघंटा
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति हैं चंद्रघंटा। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा-आराधना की जाती है। देवी का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं। 

पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता। 
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥

इस देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चंद्र है। इसीलिए इस देवी को चंद्रघंटा कहा गया है। इनके शरीर का रंग सोने के समान बहुत चमकीला है। इस देवी के दस हाथ हैं। वे खड्ग और अन्य अस्त्र-शस्त्र से विभूषित हैं।

सिंह पर सवार इस देवी की मुद्रा युद्ध के लिए उद्धत रहने की है। इसके घंटे सी भयानक ध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य और राक्षस काँपते रहते हैं। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए। 

इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है। यह देवी कल्याणकारी है। इसलिए हमें चाहिए कि मन, वचन और कर्म के साथ ही काया को विहित विधि-विधान के अनुसार परिशुद्ध-पवित्र करके चंद्रघंटा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना करना चाहिए। इससे सारे कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परम पद के अधिकारी बन सकते हैं। 

नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इसीलिए कहा जाता है कि हमें निरंतर उनके पवित्र विग्रह को ध्यान में रखकर साधना करना चाहिए। उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए कल्याणकारी और सद्गति देने वाला है।

कूष्मांडा

ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कूष्मांड कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वह अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है, इसीलिए कूष्मां डा कहलाती है।
। माँ कूष्मांडा देवी ।।

चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में चतुर्थ दिन इसका जाप करना चाहिए।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

अपनी मंद, हल्की हँसी द्वारा अंड अर्थात ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के रूप में पूजा जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा को कुम्हड़ कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस कारण से भी माँ कूष्माण्डा कहलाती हैं।

चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों में निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु-यश में वृद्धि होती है। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। 

नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन 'अदाहत' चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और अचंचल मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अतः ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहाँ निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं।
इनके तेज और प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। माँ कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं। यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाए तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है।

विधि-विधान से माँ के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिए अत्यंत सुखद और सुगम बन जाता है। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है।

माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक, पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।

इस दिन जहाँ तक संभव हो बड़े माथे वाली तेजस्वी विवाहित महिला का पूजन करना चाहिए। उन्हें भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट करना चाहिए। जिससे माताजी प्रसन्न होती हैं। और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है।

स्कंदमाता

उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है इसीलिए वह स्कंद की माता कहलाती है।
शेष कल:

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