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मंगलवार, 21 जून 2016

शांति और परम आंनद चाहते हो तो?

                                                       अगर जीवन में शांति और परम आंनद चाहते हो तो क्या करो ?



उन मनुष्यो का संग करो , अधिक से अधिक उनके साथ रहने और उनके निकट होकर उनकी सेवा करने  में बिताओ जिनका हृदय परम शांति और परम आनंद के सागर रूपी भगवान  में डूबा हुआ हैं। उनके संग से , लगातार के सत्संग से तुम्हारे ह्रदय से भगवान का सम्बन्ध जुड़ जायेगा। फिर तुम्हारे ह्रदय के द्वार भी परम शांति और आनंद के लिए खुल जायेंगे। अगर ऐसे महापुरुष  से मिलना संभव न हो तो उनके द्वारा लिखे पुस्तक और लेख को पढो। चैनल  द्वारा सत्संग को अपनाओ। जो भी बात अच्छी लगे उसे जीवन में उतारने  का प्रत्यन करो। जरुरी नहीं कि  महापुरषो के द्वारा कही गयी सभी बातों को अपनाओ किसी भी एक विचार को अपनाने की कोशिश में लग जाओ। ऐसे महापुरुष जगत में सर्वत्र शांति और आनंद का प्रवाह ही बहाया करते हैं। उनको कोई लोभ नहीं होता, कोई लालच नहीं होता , स्वार्थ नहीं  होता। जब  ऐसे महापुरषो का आपको संग मिल जाता हैं तो फिर जहाँ शोक , अशांति , विषाद और भय होता हैं उसकी जगह शांति और आनंद  पहुंच जाने से अंधकार का नाश हो जाता हैं अत्युज्जवल आनंद और शांति की चांदनी फैल जाती हैं। 
पर यह निर्णय आपको करना होगा कि ऐसा महापुरुष कौन हैं जो आपको सही मार्ग दिखा सकता हैं। 

जय श्री राधे।।

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

भक्तराज केवट


                              भक्तराज केवट 


क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेष शैय्या पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रही हैं। विष्णुजी के एक पैर  का अंगूठा शैय्या के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं।

क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार किया कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिह्वा से स्पर्श कर लूं तो मेरा मोक्ष हो जायेगा, यह सोच कर वह उनकी ओर बढ़ा। 

उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुंफकारा, फुंफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया।
कुछ समय पश्चात् जब शेषनाग जी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। इस बार लक्ष्मीदेवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया।
इस प्रकार उस कछुवे ने अनेकों बार प्रयास किया पर शेष नाग और लक्ष्मी माता जी के कारण उसे  सफलता नहीं मिली। यहां तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सतयुग बीत जाने के बाद त्रेतायुग आ गया।
इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लिया था।

कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का और वही शेषनाग लक्ष्मण का व वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। इसीलिये वह भी केवट बनकर वहां आ गया।

एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे, इसीलिये उसने रामजी से कहा था कि मैं आपका मर्म (भेद) जानता हूं।
सन्त श्री तुलसीदासजी भी इस तथ्य को जानते थे, इसीलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि 

"कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।

केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध करके फुंफकारते थे और मैं डर जाता था।

अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं, पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं। 

इसीलिये विद्वान सन्त श्री तुलसीदासजी ने लिखा है-

(हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगन्ध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूं। भले ही लक्ष्मणजी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूंगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूंगा)।

तुलसीदासजी आगे और लिखते हैं -

केवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे बचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्रजी जानकी और लक्ष्मण की ओर देख कर हंसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं- कहो, अब क्या करूं, उस समय तो केवल अंगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर मांग रहा है!

केवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। तुलसीदासजी लिखते हैं-

चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।

उस समय का प्रसंग है... जब केवट भगवान् के चरण धो रहे हैं।

बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकालकर कठौती से बाहर रख देते हैं, और जब दूसरा धोने लगते हैं तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है

केवट दूसरा पैर बाहर रखते हैं, फिर पहले वाले को धोते हैं, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते हैं।

फिर ये सब देखकर कहते हैं, प्रभु, एक पैर कठौती में रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो।

जब भगवान् ऐसा ही करते हैं तो जरा सोचिये ... क्या स्थिति होगी, यदि एक पैर कठौती में है और दूसरा केवट के हाथों में

भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले- केवट मैं गिर जाऊंगा?केवट बोला- चिन्ता क्यों करते हो भगवन्!

दोनों हाथों को मेरे सिर पर रखकर खड़े हो जाइए, फिर नहीं गिरेंगे।
जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी मां उसे स्नान कराती है तो बच्चा मां के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े हैं।

भगवान् केवट से बोले- भइया  केवट! मेरे अन्दर का अभिमान आज टूट गया।

केवट बोला- प्रभु! क्या कह रहे हैं?

भगवान् बोले- सच कह रहा हूं केवट, अभी तक मेरे अन्दर अभिमान था, कि.... मैं भक्तों को गिरने से बचाता हूं पर आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है।

          

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1)

Parmatma Aur Jivan: जीवन में सफलता के सूत्र (भाग 1): जीवन में सफलता के सूत्र  1 . जीवन का उद्देश्य निर्धारित करें - उद्दे श्य के बिना व्यक्ति  के  जीवन का कोई  महत्व नहीं रखता ।मनुष्...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

जीवन की कीमत

                                                                                                             कीमती जीवन



एक दीन हीन  लकड़हारे को राजा ने देखा तो उसके मन में दया आ गयी। उसने लकड़हारे को चन्दन का बगीचा दे दिया। सोचा कि  चन्दन बेच कर धनी हो जायेगा और सुखी हो जायेगा। परन्तु उस लकड़हारे ने चन्दन की महिमा को नहीं जाना और उसको जलाकर कोयला बना कर बेचने लगा। बगीचे के तीन भाग उसने इसी तरह बेच दिए। सयोगवश एक दिन उसे राजा मिला ,उस दिन लकड़हारा कोयला बेचने जा रहा था तो उसे राजा ने देखा वो पहले की तरह दुखी और गरीब था। राजा ने हैरान  हो कर पूछा कि मेने तुम्हे इतना कीमती चन्दन का बगीचा दिया था तुमने उसे जला कर कोयला क्यों कर दिया ,तो उसने माफ़ी मांगी और बोला  की उसे चन्दन के महत्व का पता ही नहीं था इसीलिए उसने ऐसा कर दिया तो राजा ने  चन्दन के महत्व को बताया और शेष बचे बगीचे  का सदुपयोग  करने  को कहा।

हम भी अक्सर लकड़हारे की तरह गलती करते हैं और इस शरीर  रूपी चन्दन को व्यर्थ के कामनाओं ,इच्छाओं को पूरा करने के लिए जला कर कोयला कर देते हैं और फिर दुखी रहते हैं। किस्मत से राजा रूपी संत आकर इस जीवन की कीमत बता दे तो हम पहले सम्भल सकते हैं और इसका सदुपयोग  हो जाता हैं।

उसे मानकर बची हुई जो आयु हैं उसमे हम ईश्वर का भजन करे दुखियों की सहायता करे तो मनुष्य  जीवन सफल हो सकता हैं जिसमे हम प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न रख सके इसी में मनुष्य जीवन की सफलता हैं। बुरे कर्म करके मन कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। 

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                    संत भक्त महिमा एंव सत्संग

                                                     



सत्संग का लाभ मिलता हैं तो धीरे धीरे मन में शांति आती  हैं अन्यथा प्रत्येक प्राणी तन ,मन ,धन और जन से दुखी दिखाई पड़ता हैं। संसार के सारे कार्य किसी के भी अनुकूल नहीं होते हैं। एक न एक प्रतिकूलता रहती हैं। अपने इष्ट देव में दृढ़ विश्वास रखने वाला जो शरण में हैं और जो सन्मुख हैं वही निश्चिन्त हैं और सुखी हैं। सत्य ,दया ,क्षमा और चोरी न करना आदि धर्म सभी वर्णो के धर्म हैं। जो दुसरो के व्यवहार से परेशान नहीं होते और अपने व्यवहार से किसी को परेशान  नहीं 
करते हैं वही संत हैं। तन ,मन ,धन से उपकार क र ने  वाले गृहस्थ जन महान हैं। मन की शुद्धि और लोगो के साथ व्यवहार में शुद्धि होने से लोक परलोक में पूर्ण निर्भयता प्राप्त होती हैं। 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।

               वृंदावन भाव..... वृंदावन वास चाहूं और कुछ ना चाहूं।



ब्रज की महिमा का बखान कैसे संभव है? प्रभु कृपा से ऐसा कोई तीर्थ नहीं; जो ब्रज में नहीं है। 

अपने बाबा और मैया यशोदा की इच्छापूर्ति हेतु कन्हैया ने सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया और उन्हें ब्रज चौरासी कोस में सभी तीर्थों के दर्शन कराये। यही कारण है कि "ब्रजवासी" जावे तो कहाँ ?

 ब्रज-चौरासी कोस की एक परिक्रमा 84 लाख योनियों के पाप-कर्मों के फ़ल से मुक्ति प्रदान कर श्रीश्यामा-श्याम के श्रीचरणों की भक्ति प्रदान करती है। 

एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे।  
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे॥  
कोटि बार काशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे।  
होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥ 
वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे..........

 बस, यहीं पड़ी रहूँ, कभी गिरिराज गोवर्धन की तलहटी में, कभी राधाकुन्ड और श्यामकुन्ड के मध्य, कभी श्रीलाड़लीजू के बरसाने और कभी कन्हैया के नन्दगाँव, कभी गोकुल, कभी मानसरोवर, बिहारवन, गहवरवन, मोरकुटि, चरण-पहाड़ी, कुन्ज-निकुन्जों में, यमुना पुलिन पर, वृन्दावन की कुन्ज गलियों में विचरती रहूँ। 

श्रीकिशोरीजू की कृपा से जिहवा पर, अंतर में राधे-राधे का उच्चारण हो रहा हो, कभी विरह में आर्तनाद हो तो कभी खिलखिलाकर अट्टाहास हो, नेत्रों के सामने श्रीयुगलकिशोर की लीलायें चल रही हों,

 यमुना पुलिन पर कभी उन्हें खेलते देखूँ तो कभी कुन्जों में श्रीजी का पुष्पों से श्रंगार करते अपने प्राणधन मोहन की अमृतमयी लीलाओं को निहारुँ, कभी श्रीजी के श्रीचरणों में बैठे नन्दनन्दन को मनुहार करते देखूँ।

 यह देखते-देखते दृष्टि ऐसी हो जाये कि एक श्रीयुगलकिशोर के अतिरिक्त इस संसार में कुछ भी न दिखाई दे। ब्रज हो, ब्रजवासी हों, प्रिय वृन्दावन हो और श्रीयुगलकिशोर ! 

और क्या चाहूँ, क्या माँगू ? हे किशोरीजी, इस दासी का ऐसा सौभाग्य कब होगा ! जब मुझे वृन्दावन बसाओगी, यह कृपा कब करोगी ! ये भी आपकी ही अहैतु की कृपा है जो आपके चरणों में चित्त लगा, यह कृपा भी तो कम नहीं तो ।

।। श्रीराधे ।।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है।

कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 



                  इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
                 रह न तेज तन बुधि बल लेसा।।

कुमार्ग़ पर पैर रखते ही बल और तेज़ जाता रहता हैं,

बात बिल्कुल सही है। कोई कितना भी बलवान एवं बुद्धिमान हो या फिर विद्वान ही क्यों न हो, जैसे ही उसकी प्रवृत्ति स्वयं को गर्हित कार्य में नियोजित करने की होती है सबसे पहले उसकी विवेकशक्ति का नाश हो जाता है। विवेकशून्य व्यक्ति जल्द ही काम, क्रोध और लोभ के अधीन कार्य कर अपना हीं अनिष्ट कर डालता है चाहे वह दशानन ही क्यों न हो। 

प्रसंग उसी दशानन रावण का ही लेते हैं जिसके पदचाप से धरती डोलती थी, जो अपने भुजाओं में स्थित बल को तौलने हेतु कौतुक से कैलाश पर्वत तक को तौल आनंदित होता था वही रावण जब सीताहरण जैसे गर्हित कर्म में प्रवृत्त हुआ तो उसका सारा तेज जाता रहा। 
राक्षस होते हुए भी जो कुल परम्परा से न केवल ब्राह्मण था बल्कि प्रकांड पंडित भी था तथा जिसके अतुलनीय बल से समस्त देव एवं मुनि समाज भयकम्पित रहता था, जिसने खेल खेल में हीं कुबेर को जीत लिया हो और जिसने अपने बन्दीखाने में लोकपाल तक को कैद कर रखा हो वही रावण जब पंचवटी के पवित्र आश्रम में चौरकर्म जैसे उद्देश्य लेकर पहुंचता है तो उसकी मनोदशा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने मात्र दो चौपाई में जो किया है,वह अत्यंत रोचक होने के साथ ज्ञानवर्धक भी है। 

गोस्वामीजी ने तो ऐसे रावण की तुलना कुत्ते तक से कर डाली है~

चौपाई देखिये - 

सून बीच दसकंधर देखा। 
आवा निकट जती कें बेषा।। 
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। 
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।। 
सो दससीस स्वान की नाईं। 
इत उत चितइ चला भड़िहाईं।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। 
रह न तेज तन बुधि बल लेसा।। 

तुलसीदासजी कह रहे हैं - 

रावण सूना मौका देखकर यति(संन्यासी) के वेष में श्रीसीताजी के समीप आया। जिस रावण के डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि वे रात को सो नहीं पाते और दिन में डर के मारे भरपेट अन्न नहीं खा पाते वही दस सिर वाला रावण आज कुत्ते की तरह इधर उधर ताकता हुआ भड़िहाई(चोरी) के लिये चला। (सूना पाकर कुत्ता जब चुपके से बर्तन-भांडों में मुंह डालकर कुछ चुरा ले जाता है तो उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।)

पंचवटी में श्रीसीताजी को अकेला एवं सूना देख रावण आ तो रहा था संन्यासी वेष में किन्तु उसकी मनोदशा एक कुत्ते की सी हो गई थी जो चोरी-छिपे इधर उधर शंका से ताकता हुआ घर में रखे बर्तन-भांड में मुंह डालकर कुछ चुरा कर भागना चाहता है। 

देखिये प्रतापी रावण की दशा जिसकी तुलना भी की गई तो एक कुत्ते से। इसमें कवि का कोई दोष नहीं;दोष है तो उस कर्म का जिसने एक क्षण में दसकंधर जैसे की श्री एवं कीर्ति का नाश कर उसे स्वान बना डाला।
यह अतुलित बलशाली रावण का गर्हित कर्मजन्य दुर्भाग्य ही कहिये कि भरी सभा में उसे एक दूत से अपमानित होना पड़ा जब भगवान् राम के दूत बनकर दशानन की सभा में उपस्थित बालिकुमार अंगद ने उससे कहा-

रे त्रियचोर कुमारग गामी। 
खल मल रासि मंदमति कामी।। 

यदि कोई राजा एक दूत से सभा मध्य ऐसे वचन सुने और सहे तो वह निश्चय हीं श्रीहत एवं आत्मबलविहीन है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि  बल होते हुए भी रावण आत्मबल से उसी क्षण हीन हो गया था जिस क्षण उसने कुमार्ग पर चलने का निर्णय लिया। उसके बाद जो भी उसमें बलरूप में दिखा वह केवल और केवल उसका दम्भमात्र था। 
यह है कुमार्ग पर कदम रखने का परिणाम! यह ध्रुव सत्य है कि कुमार्गी अंततोगत्वा नाश को प्राप्त होता है; समय जो लगे। अनैतिक बल का आश्रय लेने का परिणाम कभी सुखमय नहीं हो सकता है। 

अस्तु:-

इसीलिए काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरूड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते हीं शरीर में तेज, बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता है। 

।।श्रीराम जय राम जय जय राम।।

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