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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

द्वारकाधीश के मंदिर में क्यों नहीं है रुक्मणीजी की मूर्ति...? कारण है एक श्राप

द्वारकाधीश के मंदिर में क्यों नहीं है रुक्मणीजी की मूर्ति...?

कारण है एक श्राप

द्वारकाधीश श्री कृष्ण को हम जब भी याद करते हैं तो हमारे मुंह से राधे-कृष्ण ही निकलता है।

कृष्ण के साथ राधा का नाम ऐसे जुड़ा हुआ है मानो ये दोनों नाम कभी अलग थे ही नहीं। लेकिन सत्य तो ये भी है कि राधा और कृष्ण कभी एक नहीं हो सके ये और बात है कि कुछ किवदन्तियों के अनुसार, दोनों की शादी हुई थी लेकिन ज्यादातर कथाओं के अनुसार, इन दोनों का प्रेम कभी पूरा नहीं हो सका था।

द्वारकाधीश कृष्ण का विवाह रूक्मणी से हुआ था इसके अलावा भी उनकी कई  रानियां और पटरानियां थीं। कृष्ण और रूक्मणी का रिश्ता भी आदर्श माना जाता है लेकिन क्या आप जानते हैं द्वारकाधीश के मंदिर में उनकी प्रिय रानी रूक्मणी की एक भी मूर्ति नहीं है। वास्तव में, इसका कारण एक श्राप है जिसके कारण कृष्ण और रूक्मणी को 12 साल तक अलग रहना पड़ा था और इसी कारण इस मंदिर में उनकी कोई प्रतिमा भी नहीं है।

द्वारकाधीश

द्वारकाधीश मंदिर से कुछ किलोमीटर दूर एक अलग हिस्से में रूक्मणी का मंदिर बना हुआ है। एक समय तक यहां आने वाले भक्तों को इस श्राप की कथा सुनाई जाती थी।

अगर धार्मिक मान्यताओं को आधार मानकर बात की जाए तो ये श्राप कृष्ण और रूक्मणी को दुर्वासा ऋषि ने दिया था।

विवाह के बाद रूक्मणी और कृष्ण दुर्वासा ऋषि के आश्रम पहुंचे और वहां जाकर उन्होने दुर्वासा ऋषि को उनके साथ महल चलकर भोजन करने का निमंत्रण दिया, दुर्वासा ऋषि ने ये निमंत्रण स्वीकारा तो लेकिन उसके लिए एक विचित्र सी शर्त रखी। उन्होने कहा कि वो उनके रथ में महल नहीं जाएंगे, वो केवल इसी शर्त पर उनके साथ चलेंगे अगर वो उनके लिए अलग से एक रथ का इतंज़ाम करेंगे, कृष्ण ने ये शर्त मान तो ली लेकिन दोनों ये इस बात से परेशान थे कि वो इस शर्त को पूरा कैसे करेंगे क्योकि उनके पास उस समय एक ही रथ था जिससे वो स्वंय वहां आए थे इसलिए उन्होने घोड़ों को उस रथ से अलग कर दिया और दोनों खुद रथ में जुट गए।

काफी दूर चलने के बाद जब देवी रूक्मणी को प्यास लगी तो कृष्ण ने पैर का अंगूठा ज़मीन पर मारा और उससे निकले गंगाजल से दोनों ने प्यास बुझा ली लेकिन दोनों में से किसी को भी ये ख्याल नहीं आया कि उन्होने ऋषिवर से भी इस बारे में पूछना चाहिए। इस बात पर दुर्वासा ऋषि को क्रोध आ गया और क्रोधित होकर उन्होने देवी रूक्मणी को 12 साल तक कृष्ण से अलग रहने का श्राप दिया और साथ ही ये भी कहा कि जिस स्थान से कृष्ण ने पानी निकाला है वो बंजर हो जाएगा।

इस श्राप से मुक्त होने के लिए देवी रूक्मणी ने भगवान विष्णु की तपस्या की और फिर उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हे इस श्राप से मुक्ति दी।

दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण इस मंदिर में आज भी जल का दान किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसा करने से पितरों को जल की प्राप्ति होती है।

।। जय श्री कृष्ण ।।

भगवान के ह्रदय की विशालता

                   भगवान के ह्रदय की विशालता


        एक बार नारद जी के मन में एक विचित्र सा कौतूहल पैदा हुआ।उन्हें यह जानने की धुन सवार हुई कि ब्रह्मांड में सबसे बड़ा और महान कौन है?

        नारद जी ने अपनी जिज्ञासा भगवान विष्णु के सामने ही रख दी। भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे।फिर बोले, नारद जी सब पृथ्वी पर टिका है। इसलिए पृथ्वी को बड़ा कह सकते हैं। और बोले परंतु नारद जी यहां भी एक शंका है।

       नारद जी का कौतूहल शांत होने की बजाय और बढ़ गया। नारद जी ने पूछा स्वयं आप सशंकित हैं फिर तो विषय गंभीर है। कैसी शंका है प्रभु ? विष्णु जी बोले, समुद्र ने पृथ्वी को घेर रखा है। इसलिए समुद्र उससे भी बड़ा है।

        अब नारद जी बोले, प्रभु आप कहते हैं तो मान लेता हूं कि समुद्र सबसे बड़ा है।यह सुनकर विष्णु जी ने एक बात और छेड़ दी, परंतु नारद जी समुद्र को अगस्त्य मुनि ने पी लिया था। इसलिए समुद्र कैसे बड़ा हो सकता है ? बड़े तो फिर अगस्त्य मुनि ही हुए।

        नारद जी के माथे पर बल पड़ गया। फिर भी उन्होंने कहा, प्रभु आप कहते हैं तो अब अगस्त्य मुनि को ही बड़ा मान लेता हूं।नारद जी अभी इस बात को स्वीकारने के लिए तैयार हुए ही थे कि विष्णु ने नई बात कहकर उनके मन को चंचल कर दिया।

          श्री विष्णु जी बोले, नारद जी पर ये भी तो सोचिए वह रहते कहां हैं।आकाशमंडल में एक सूई की नोक बराबर स्थान पर जुगनू की तरह दिखते हैं। फिर वह कैसे बड़े, बड़ा तो आकाश को होना चाहिए।

        नारद जी बोले, हां प्रभु आप यह बात तो सही कर रहे हैं। आकाश के सामने अगस्त्य ऋषि का तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है।आकाश ने ही तो सारी सृष्टि को घेर आच्छादित कर रखा है। आकाश ही श्रेष्ठ और सबसे बड़ा है।

        भगवान विष्णु जी ने नारद जी को थोड़ा और भ्रमित करने की सोची।श्रीहरि बोल पड़े, पर नारदजी आप एक बात भूल रहे हैं। वामन अवतार ने इस आकाश को एक ही पग में नाप लिया था  फिर आकाश से विराट तो वामन हुए।

        नारदजी ने श्रीहरि के चरण पकड़ लिए और बोले भगवन आप ही तो वामन अवतार में थे।फिर अपने सोलह कलाएं भी धारण कीं और वामन से बड़े स्वरूप में भी आए। इसलिए यह तो निश्चय हो गया कि सबसे बड़े आप ही हैं।

         भगवान विष्णु ने कहा, नारद, मैं विराट स्वरूप धारण करने के उपरांत भी, अपने भक्तों के छोटे हृदय में विराजमान हूं।*वहीं निवास करता हूं। जहां मुझे स्थान मिल जाए वह स्थान सबसे बड़ा हुआ न।

         इसलिए सर्वोपरि और सबसे महान तो मेरे वे भक्त हैं जो शुद्ध हृदय से मेरी उपासना करके मुझे अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।*उनसे विस्तृत और कौन हो सकता है। तुम भी मेरे सच्चे भक्त हो इसलिए वास्तव में तुम सबसे बड़े और महान हो।

         श्रीहरि की बात सुनकर नारद जी के नेत्र भर आए। उन्हें संसार को नचाने वाले भगवान के हृदय की विशालता को देखकर आनंद भी हुआ और अपनी बुद्धि के लिए खेद भी।

रविवार, 28 अप्रैल 2024

मन ही मन भगवान से क्या बातें करें क्या मांगे?

           मन ही मन भगवान से क्या बातें करें क्या मांगे?


1 - हे मेरे स्वामी ! मेरी इच्छा कभी पूर्ण न हो... सदैव आपकी ही इच्छा पूर्ण हो... क्योंकि मेरे लिए क्या सही है... ये मुझसे बेहतर आप जानते हैं ।‼️

2 - हे नाथ ! मेरे मन, कर्म और वचन से.. कभी किसी को भी थोड़ा सा भी दुःख न पहुँचे... यह कृपा बनाये रखें ।‼️

3 - हे नाथ ! मैं कभी न पाप करूँ.. न होता देखूं.. न सुनू.. और न ही कभी किसी के पाप का बखान करूँ ।‼️

4 - हे नाथ ! शरीर के सभी इन्द्रियों से आठो पहर... केवल आपके प्रेम भरी लीला का ही आस्वादन करता रहूँ ।‼️

5 - हे नाथ ! प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी... आपके मंगलमय विधान देख सदैव प्रसन्न रहूँ ।‼️

6 - हे नाथ ! अपने ऊपर महान से महान विपत्ति आने पर भी... दूसरों को सदैव सुख ही दिया करूँ ।‼️

7 - हे प्रभु ! अगर कभी किसी कारणवश... मेरे वजह से किसी को दुःख पहुँचे... तो उसी समय उससे हाथ जोड़कर क्षमा माँग लूँ ।‼️

8 - हे प्रभु ! आठो पहर रोम रोम से... केवल आपके नाम का ही जप होता रहे ।‼️

9 - हे प्रभु ! मेरे आचरण श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के अनुकूल हों ।‼️

10 - हे मेरे प्रभु ! हर एक परिस्थिति में मुझे आपके ही दर्शन हों ।

जय जय श्री राधे

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

हमारा सफर - श्री राम से श्री कृष्ण और कलयुग में

 हमारा सफर - श्री राम से श्री कृष्ण और कलयुग में भी जारी

श्री राम का घर छोड़ना एक षड्यंत्रों में घिरे राजकुमार की करुण कथा है और कृष्ण का घर छोड़ना गूढ़ कूटनीति। राम जो आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते हैं, कृष्ण षड्यंत्रों के हाथ नहीं आते बल्कि स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं।

श्री राम से श्री कृष्ण हो जाना एक सतत प्रक्रिया है। श्रीराम को मारीच भ्रमित कर सकता है लेकिन कृष्ण को पूतना की ममता भी नहीं उलझा सकती। श्रीराम अपने भाई को मूर्छित देखकर ही बेसुध बिलख पड़ते हैं लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते।

राम राजा हैं

कृष्ण राजनीति

राम रण हैं

कृष्ण रणनीति।

श्री राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं श्री कृष्ण मानवता के लिए। 

श्री राम धर्म है तो श्री कृष्ण धर्म स्थापना 

हर मनुष्य की यात्रा राम से ही शुरू होती है और "समय" उसे कृष्ण बनाता है। व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है जितना राम होना लेकिन राम से प्रारंभ हुई यह यात्रा तब तक अधूरी है जब तक इस यात्रा का समापन कृष्ण पर न हो.!!

।।जय राम कृष्ण हरे।।

राम नाम की शक्ति क्या होती हैं

                    राम नाम की शक्ति क्या होती हैं


जब प्रभु राम जी को समुद्र देवता ने बतलाया, कि हे भगवन् आपकी ही सेना में नल और नील नाम का दो बानर है जो पुल निर्माण करने में अति कुशल है।आप उन दोंनों की सहायता से सेतु का निर्माण कराकर लंका तक आसानी से पहुँच जायेंगें। तब राम जी ने दोनों को बुलाकर सेतु निर्माण का आदेश दिया और सभी बानर पत्थर उठा उठकर लाने लगे। ,हनुमान जी उन पत्थरों पर राम राम लिखते जाते और नल तथा नील उसे ले जाकर समुद्र में गिराते जाते। इस प्रकार जो भी पत्थर समुद्र में गया सभी के सभी एक दुसरे से जुड़कर उपलाते हुए सेतु के रूप में बँधते रहे।सेतु निर्माण कार्य बहुत द्रुत गति से सुचारू रूप से चल रहा था।प्रभु राम को शाम की वेला में सेतु बंधन कार्य की प्रगति के बारे में बता दिया गया।हनुमान ने बताया कि भगवन ,सभी पत्थरें आपका नाम लिखकर समुद्र में डालने पर वे सभी आपस में जुड़कर सेतु के रूप में हो जा रहे हैं। इस प्रकार सेतु निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है।

परन्तु ज्यों ज्यों रात होती गयी प्रभु राम जी की बैचेनी बढ़ती गयी।उन्हें आश्चर्य हो रहा था ,कि ऐसा कैसे हो सकता है। परन्तु अपनी आशंका किसी पर प्रकट न होने दी और बीते रात चुपके से उठे और कुटिया से निकल कर पहरे दारों की नजरों से बचते बचाते समुद्र किनारे पहुँच गये।

उन्होंने एक पत्थर उठाया और समुद्र में गिरा दिया। पत्थर समुद्र में डुब गया।

फि एक पत्थर लिया और उसपर अपना नाम "राम" लिखकर समुद्र में गिराया तो वह तैरने लगा। यह देख राम जी प्रभु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी हनुमान जी वहाँ प्रकट हो गये और मुस्कुराते हुए बोला," देख लिया भगवन ,आपमें और आपके नाम में से किसमें कितना सामर्थ्य हैं।

हनुमान को अचानक वहाँ पाकर और उनकी बात सुनकर भगवान राम सकपका गये।फिर आगे हनुमान जी ने कहा, "प्रभु ,आप जिसे छोड़ देंगें उसको तो डुबना ही पड़ेगा। हाँ,जिसे आपके नाम तक का भी सहारा मिल जायेगा, वह तो इस भव सागर से पार हो ही जायेगा।

तब श्री राम जी ने हनुमान से कहा," तुम ठीक कहते हो हनुमान। भबिष्य में खासकर कलियुग में तो इस नाम का अत्यधिक प्रभाव होगा।उस समय केवल मेरा नाम ही ऐसा आधार होगा जिसको लेकर भक्तजन संसार रूपी भवसागर से तर जायेंगें। यह सुनकर हनुमान ने अपना मस्तक प्रभु चरणों में झुका दिया और भगवान राम जी ने हनुमान को उठाकर अपने सीने से लगा लिया ।

रविवार, 28 जनवरी 2024

श्रीमद् भागवत गीता का 13 अध्याय का सरल अर्थ

    श्रीमद् भागवत गीता का 13 अध्याय का सरल अर्थ


संसार में एक परमात्मा तत्व ही जानने योग्य है। उसको जरूर जान लेना चाहिए। उसको तत्व से जानने पर जानने वाले की परमात्मा तत्व के साथ अभिन्नता हो जाती है।
 जिस परमात्मा को जानने से अमरता की प्राप्ति हो जाती है ,उसे परमात्मा के हाथ, पैर,सिर, नेत्र , कान सब जगह है।वह संपूर्ण इंद्रियों से रहित होने पर भी संपूर्ण विषयों को प्रकाशित करता है, संपूर्ण गुणों से रहित होने पर भी संपूर्ण गुणों का भोक्ता है और आसक्ति रहित होने पर भी  सबका पालन पोषण करता है। वह संपूर्ण प्राणियों के बाहर भी है और भीतर भी है, तथा चर अचर प्राणियों के रूप में भी वही है, संपूर्ण प्राणियों में विभक्त रहता हुआ भी वह विभाग रहित है। वह संपूर्ण ज्ञानो का प्रकाशक है वह संपूर्ण विषम प्राणियों में सम रहता है। गतिशील प्राणियों में गति रहित रहता है। नष्ट होते हुए  प्राणियों में अविनाशी रहता है। इस तरह परमात्मा का यथार्थ जान लेने पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

सूर्य को हनुमान जी कैसे निगल गये?

            सूर्य को हनुमान जी कैसे निगल गये?


पृथ्वी से 28 लाख गुना सूर्य हनुमान जी ने कैसे निगल लिया? क्या यह विज्ञान के साथ मजाक है ?


इस हिसाब से तो आपको हर उस चीज पर सवाल उठाने चाहिए जो की आसान नहीं है। जैसे कि हनुमान जी ने बिन थके इतना विशाल समुद्र कैसे पार कर लिया। अरे श्री हनुमान जी भगवान का अंश है उन्हे विभिन्न तरीके के वरदान प्राप्त हुए है। भगवान है।

हनुमान जी के पास अष्ट महासिद्धि और नौ निधि हैं. ये अष्ट महासिद्धि अणिमा, लघिमा, महिमा, ईशित्व, प्राक्रम्य, गरिमा और वहित्व हैं। इन्ही सिद्धि के सहारे उनका सूर्य के पास जाना और उसे निगलना संभव हैं लेकिन हनुमान जी निगलते नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी हनुमान चालीसा के इस 18वीं चौपाई में सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी का वर्णन है।

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

यह दोहा अवधी भाषा में है इस दोहे का हिंदी भाषा में अर्थ है कि हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था (खाने ही वाले थे तभी देवराज इंद्र ने प्रहार कर दिया)। अगर आप यहां विज्ञान का तर्क देना चाहते है तो दे सकते है जैसे कि – अपनी लघिमा सिद्धि का उपयोग करके हनुमान जी अपना वजन सूक्ष्म मतलब न के बराबर कर सकते थे।

जैसा हमने विज्ञान में पड़ा है कि जिस पार्टीकल का वजन ना के बराबर होता है वह पार्टीकल ही प्रकाश की गति से ट्रैवल कर सकता है क्योंकि उस स्थिति में उस पार्टीकल पर गुरुत्वाकर्षण बल और सेंटर ऑफ ग्रेविटी का असर नहीं होता हैं। इस तरह हनुमान जी प्रकाश की गति से भी तेज उड़कर सूर्य को निगलने के लिए पहुचे थे।

और ये भी जानिए कि नासा के अनुसार सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी 149 मिलियन किलोमीटर हैं और यह बात पहले ही हनुमान चालीसा के 18 वीं चौपाई में धरती और सूरज की बीच की दूरी का वर्णन किया गया है।

हनुमान जी के अष्ट सिद्धि में से एक महिमा हैं। इस सिद्धि से वह अपने शरीर को जितना चाहे उतना बड़ा कर सकते थे।

इसलिए हनुमान जी के सामने पूरी पृथ्वी ही एक फल के सामान हैं। विज्ञान के अनुसार कोई भी ऐसी वस्तु जिसका वजन ज्यादा और उसमे बहुत ऊर्जा हो वह ब्लैक होल बना सकती हैं और ब्लैक होल सूर्य को निगलने की क्षमता रखता हैं।

जब ब्लैक होल सूर्य को निगल सकता है तो श्री हनुमान जी भगवान शिव के अवतार है। भगवान है। ब्रह्माण में कुछ भी असंभव नहीं हैं।

आज से 70–80 साल पहले अगर कोई कहता कि इंसान अंतरिक्ष में जा सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 40–50 साल पहले कोई कहता की इंसान हजारों किलोमीटर की दूरी चंद घंटों में पूरी कर सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 20–30 साल पहले कोई कहता कि इंसान दूर बैठे दूसरे इंसान से बातचीत कर सकता है तो लोग हंसते होंगे।

 15–20 साल पहले कोई कहता कि एक इंसान दूर बैठे दूसरे इंसान से फेस टू फेस देख सकता है तो लोग हंसते होंगे।

बदलाव – 2 हाल ही में चीन ने अपना खुद का एक कृत्रिम सूर्य बनाने में सफलता हासिल की है। आज हम लोग शहर में रहते है इसलिए इस खबर को सुन/पढ़ कर यकीन कर सकते है। लेकिन गांव में जाकर किसी से पूछोगे तो वह इस सवाल करने वाले की तरह आपका मजाक उड़ाएगा। और इस बात पर यकीन नही करेगा कि कोई देश (किसी देश के लोग) सूर्य को बना सकते है। 

आगे भी विज्ञान की मदद से हम लाइटिंग स्पीड से सफर करने पर रिसर्च कर रहे है (और अभी यह मजाक लग रहा होगा।)

लेकिन हमारी यह सोच अब तक सच साबित हुई है तो फिर हमारी संस्कृति के बारे में आप ऐसा क्यों सोचते है जैसे कि सब एक अंधविश्वास हो।

हमारी संस्कृति हमारे दिल–दिमाग, इतिहास, किताबो और वेदों में निहित है जबकि विज्ञान अभी शुरुआत ही है इसलिए हम आज तक भी विज्ञान को सही तरीक़े से नहीं समझ पाए है तो फिर अपनी संस्कृति को आप एक लिमिट तक सही लेकिन ज़्यादा विज्ञान से तुलना कैसे कर सकते है।

इसलिए कभी भी अपनी संस्कृति को विज्ञान से ज्यादा तुलना नही करनी चाहिए। कुछ चीजें ऐसी होती है जो अभी विज्ञान भी नही समझ सकता।

।।जय सिया राम।।

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