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सोमवार, 27 अप्रैल 2015

 भागवत धर्म केसे अपनाये

                         भागवत धर्म को अपनाने के लिए क्या करे !




जहाँ -जहाँ भगवान ने भगवत प्राप्ति के लिए अपने श्री मुख से जो भी उपाय बताये हैं ,उन्ही का नाम हैं भागवत धर्म । भागवत धर्म माने भगवान की भक्ति ।ये ऐसा सरल मार्ग हैं कि  इस पर कमजोर से कमजोर ,अनपढ़ से अनपढ़  आदमी आँख मुंद कर चल पड़ेगा तो गिरेगा नहीं और वो रास्ता भी नहीं भूलेगा ।वो भटकने वाला नहीं हैं ।गो स्वामीजी कहते हैं -

तुलसी सीताराम भजु दृढ़ राखहु विश्वास ।
कबहुं  बिगड़त न सुने श्री रामचन्द्र के दास ।।

इसमें कुछ विशेष नहीं करना पड़ता ।जो कुछ आप करते रहे हो वो सब आप कर सकते हो ।खाना -पीना ,बाल -बच्चे ,घर ,मकान । लेकिन यह समझ करके कि यह प्रभु का काम हैं और प्रभु के लिए हैं ।मैं जो कुछ कर रहा हूँ अपने प्रभु के लिए कर रहा हूँ ।उनकी प्रसन्नता के लिए कर रहा हूँ ।
भगवान के अतिरिक्त कही भी मन इधर -उधर ले जाएगा ,भटकायेगा तो उसे भय होगा ,गिरने का डर रहेगा ।भगवान की भक्ति करने वाला ,भगवत धर्म का पालन करने वाला प्रभु के नाम ,रूप ,गुण ,लीला आदि को कानो से सुनते हैं ,वाणी से गायन करते हैं और गाते समय उन्हें किसी बात की चिंता नहीं होती कि कोई उनपर हँसेगा ।उनमे कोई बनावट नहीं होती ।ये भगवान के भक्तो के लक्षण हैं ।भक्ति करते -करते उनकी दृष्टि इतनी परिमार्जित हो जाती हैं कि  जहाँ भी दृष्टि जाए सब जगह उन्हें भगवान  ही भगवान नजर आते हैं ।
भक्ति करने से क्या होता हैं ?जैसे भोजन करने से क्षुधा  की निवृति हो जाती हैं स्वाद से तुष्टि होती हैं ,रस से पुष्टि होती हैं ,कमजोरी दूर होती हैं ।ऐसे ही भगवान की भक्ति करने से संसार से वैराग्य होता हैं ,प्रभु के स्वरूप का बोध होता हैं ,सबके प्रति प्रेम की दृढ़ता आती हैं ।
भगवान के धर्म का पालन करने वाले कितनी तरह के भक्त होते हैं ? तब हरिजी बताते हैं भक्त तीन तरह के होते हैं -उत्तम भक्त ,मध्यम भक्त ,प्राकृत भक्त ।
उत्तम भक्त वो हैं जो सबमे भगवान की सत्ता का अनुभव करे ।जैसे श्री प्रह्लाद जी से पूछा गया की तुम्हारे भगवान कहाँ हैं ?वे बोले -
       
             हममे ,तुममे ,खड़ग खम्भ में ,घट -घट व्यापत  राम ।।
मध्यम भक्त वो होते हैं जो समस्त चेतना को चार भागो में विभक्त करदे वो मध्यम श्रेणी में आता हैं और बाकि तीसरी श्रेणी के भक्त कहलाते हैं ।उत्तम भक्त के लक्षण भी बतलाये गए हैं -शेष कल !        …।             जय श्री राधे !

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

जीवन में परम कल्याण कैसे हो ?

  जीवन में परम कल्याण कैसे       हो ?



एक बार श्री कबीरजी रोने लगे और उनके पुत्र श्री कमालजी  हंसने लग गए ।कबीर जी ने पूछा -बेटा तू हँस क्यों रहा हैं ? कमालजी  बोले -पिताजी ! पहले आप बताइए  कि  आप रो क्यों रहे हैं ? कबीर जी बोले -

  चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन  के बीच में ,साबुत बचा न कोय।।

एक चक्की चल रही  हैं ,और इसमें जो भी पड़ा वो पिस  गया ,यही देख कर रोना आया ।कमाल बोलें -
  (वही) 
 चलती चक्की देख कर हँसा  कमाल ठठाय ।
 कील सहारे जो रहे ,सो कैसे पिस  जाए ।।

चक्की के दो पाट  होते हैं और ऊपर  वाला पाट  उठाकर  देखे तो बीच वाली  मोटी    
कील के चार- छः अंगुल इर्द -गिर्द वाला अनाज सुरक्षित रहता हैं ।इन दोनों का भाव गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने एक दोहे में बताया -
 माया चक्की कीलहरि,जीव चराचर नाज। तुलसी जो उबरो चहे ,कील  शरण को भाज ।।

माया की चक्की हैं ।माया की चक्की रूपी दो पाट  हैं ,एक विद्या और एक अविद्या ।बीच में जो   कील  हैं ,जिसके सहारे चक्की घूमती हैं वे भगवान हैं ।जीव अनाज हैं।जो जीव माया रूपी चक्की में पड़  गया ,वह पीस डाला गया।लेकिन माया रूपी चक्की में पड़ने के बाद भी जो जीव भगवान रूपी कील से चिपके रह गए ,उनको माया रूपी चक्की नहीं पीस सकती।उदहारण  के लिए -रावण के एक लाख पूत और सवा लाख नाती थे ,ये भगवान से विमुख हो गए और इनको चक्की ने पीस दिया।
तो रावण घर दिया न बाती और विभीषण जी भगवान रूपी कील से चिपके रह गए शरणागत हो करके ,तो श्री विभीषणजी को  माया रूपी कील नहीं पीस सकी ।
द्वापर के अंतिम चरण में दुर्योधन को गुमान था ,हम सौ भाई हैं।सौ को पीस डाला माया ने,क्योंकि वो भगवान से विमुख हो गए थे और पांच पांडव भगवान श्री कृष्ण  रूपी  कील से चिपके रह गए ,इसलिए सुरक्षित रहे ।
इस प्रकार से जो भगवान से सलंग्न रहेंगे, चिपके रहेंगे ,उसी का नाम हैं उपासना ।"उप" समीप के अर्थ में और "आसना "स्थिति के अर्थ में।जो भगवान के समीप स्थित रहेगा उसका माया कुछ नहीं बिगाड़ सकती।ये परम कल्याण का स्वरूप बताया भागवत धर्म में ।(संत मामाजी महाराज के द्वारा श्री मद भागवत का सरस विवेचन के एकादश अध्याय में से लिया गया कुछ अंश )
जय श्री राधे !

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

महाभारत की कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां


                  महाभारत की महत्वपूर्ण जानकारियां

              




पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं -
1. युधिष्ठिर 2. भीम 3. अर्जुन
4. नकुल। 5. सहदेव

( इन पांचों के अलावा , महाबली कर्ण भी कुंती के ही पुत्र थे , परन्तु उनकी गिनती पांडवों में नहीं की जाती है )

यहाँ ध्यान रखें कि… पाण्डु के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन
की माता कुन्ती थीं ……तथा , नकुल और सहदेव की माता माद्री थी ।

वहीँ …. धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र…..
कौरव कहलाए जिनके नाम हैं -
1. दुर्योधन 2. दुःशासन 3. दुःसह
4. दुःशल 5. जलसंघ 6. सम
7. सह 8. विंद 9. अनुविंद
10. दुर्धर्ष 11. सुबाहु। 12. दुषप्रधर्षण
13. दुर्मर्षण। 14. दुर्मुख 15. दुष्कर्ण
16. विकर्ण 17. शल 18. सत्वान
19. सुलोचन 20. चित्र 21. उपचित्र
22. चित्राक्ष 23. चारुचित्र 24. शरासन
25. दुर्मद। 26. दुर्विगाह 27. विवित्सु
28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ
31. नन्द। 32. उपनन्द 33. चित्रबाण
34. चित्रवर्मा 35. सुवर्मा 36. दुर्विमोचन
37. अयोबाहु 38. महाबाहु 39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग 42. भीमबल
43. बालाकि 44. बलवर्धन 45. उग्रायुध
46. सुषेण 47. कुण्डधर 48. महोदर
49. चित्रायुध 50. निषंगी 51. पाशी
52. वृन्दारक 53. दृढ़वर्मा 54. दृढ़क्षत्र
55. सोमकीर्ति 56. अनूदर 57. दढ़संघ 58. जरासंघ 59. सत्यसंघ 60. सद्सुवाक
61. उग्रश्रवा 62. उग्रसेन 63. सेनानी
64. दुष्पराजय 65. अपराजित
66. कुण्डशायी 67. विशालाक्ष
68. दुराधर 69. दृढ़हस्त 70. सुहस्त
71. वातवेग 72. सुवर्च 73. आदित्यकेतु
74. बह्वाशी 75. नागदत्त 76. उग्रशायी
77. कवचि 78. क्रथन। 79. कुण्डी
80. भीमविक्र 81. धनुर्धर 82. वीरबाहु
83. अलोलुप 84. अभय 85. दृढ़कर्मा
86. दृढ़रथाश्रय 87. अनाधृष्य
88. कुण्डभेदी। 89. विरवि
90. चित्रकुण्डल 91. प्रधम
92. अमाप्रमाथि 93. दीर्घरोमा
94. सुवीर्यवान 95. दीर्घबाहु
96. सुजात। 97. कनकध्वज
98. कुण्डाशी 99. विरज
100. युयुत्सु

( इन 100 भाइयों के अलावा कौरवों की एक बहनभी थी… जिसका नाम""दुशाला""था,
जिसका विवाह"जयद्रथ"सेहुआ था )

"श्री मद्-भगवत गीता"के बारे में-

ॐ . किसको किसने सुनाई?
उ.- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।

ॐ . कब सुनाई?
उ.- आज से लगभग 7 हज़ार साल पहले सुनाई।

ॐ. भगवान ने किस दिन गीता सुनाई?
उ.- रविवार के दिन।

ॐ. कोनसी तिथि को?
उ.- एकादशी

ॐ. कहा सुनाई?
उ.- कुरुक्षेत्र की रणभूमि में।

ॐ. कितनी देर में सुनाई?
उ.- लगभग 45 मिनट में

ॐ. क्यू सुनाई?
उ.- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।

ॐ. कितने अध्याय है?
उ.- कुल 18 अध्याय

ॐ. कितने श्लोक है?
उ.- 700 श्लोक

ॐ. गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उ.- ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।

ॐ. गीता को अर्जुन के अलावा
और किन किन लोगो ने सुना?
उ.- धृतराष्ट्र एवं संजय ने

ॐ. अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उ.- भगवान सूर्यदेव को

ॐ. गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उ.- उपनिषदों में

ॐ. गीता किस महाग्रंथ का भाग है....?
उ.- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।

ॐ. गीता का दूसरा नाम क्या है?
उ.- गीतोपनिषद

ॐ. गीता का सार क्या है?
उ.- प्रभु श्रीकृष्ण की शरण लेना

ॐ. गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उ.- श्रीकृष्ण जी ने- 574
अर्जुन ने- 85
धृतराष्ट्र ने- 1
संजय ने- 40.

अपनी युवा-पीढ़ी को गीता जी के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेअर करे। धन्यवाद

अधूरा ज्ञान खतरना होता है।

33 करोड नहीँ 33 कोटी देवी देवता हैँ हिँदू
धर्म मेँ।

कोटि = प्रकार।
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है,

कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता।

हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...

कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मे :-

12 प्रकार हैँ
आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,
शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष,
सविता, तवास्था, और विष्णु...!

8 प्रकार हे :-
वासु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।

11 प्रकार है :-
रुद्र: ,हर,बहुरुप, त्रयँबक,
अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,
रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।

एवँ
दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।

कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी

                  जय श्री राधे 

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

                           मन में दो विचार क्यों आते हैं और किसकी सुने ?


अक्सर आपने देखा होगा कि हमारे मन में दो तरह के विचार आते हैं ,एक नकारात्मक और एक सकारात्मक ,हम इस दुविधा में रहते हैं कि किसकी सुने या फिर यह दो तरह के क्यों विचार आ रहे हैं ।मेने कही सुना था कि हम सभी के मन में दो तरह के विचार रमण करते हैं ,यह हम पर निर्भर करता हैं कि हम किसको परोषित करते हैं ,या किसको अधिक  महत्व देते हैं ।यदि आप दुविचारो को अधिक महत्व देने लगोगे तो इस तरह कि विचारधारा आप पर हावी होने लगेगी व् आपके अंदर की सुविचार धारा धीरे -धीरे अपना दम तोड़ देगी और मृत हो जाएगी ।यह कही हद तक इस बात पर निर्भर करता हैं कि हमने किसी संत या सदगुरू का आश्रय लिया हैं या नहीं।हम जितना अपने ईश्वर के नजदीक होते जाएंगे या सदगुरू के सानिध्य में आ जाएगे हमारी विचारधारा उतनी ही सकारात्मक होती चली जाएगी ।हमारे मन में कितने ही नकारात्मक विचार आ जाए वह हम पर हावी नही हो सकते ।हमारे ईश्वर के प्रति आस्था जेसे जेसे बढ़ती जाएगी ,हमारी सोच उतनी ही सकारात्मक होती जाएगी ।यदि कभी विपरीत परिस्थिति में हमारा मन गलत मार्ग में जाने भी लगता हैं तो देर से ही सही लेकिन हमारी आस्था हमारा सात्विक मन हमे गलत मार्ग से बचा कर सही दिशा पर ले ही आता हैं ।इसलिए हमारा मन हमेशा सकरात्मक विचार ही रखे उसके लिए हमे प्रयास करना पड़ेगा ,अभी भी कोशिश करेगे तो भी सफल हो ही जाएंगे-

१  ईश्वर के प्रति लगन लगा लो ,इस सत्य को स्वीकार कर लो कि ईश्वर हैं और वो ही मेरा हैं ।

२  हमारे मन में हमेशा दो तरह के विचार आते हैं एक गलत ,एक सही ।हमेसा सही को अपनाओ ,ईश्वर से प्रार्थना करो कि वो आपका साथ दे ।

३ हमारा खान -पान का भी हमारे विचारो पर असर पड़ता हैं इसलिये कौशिश करे हमेशा सात्विक भोजन ही करे।

४  हमारी संगत  का भी हमारी सोच पर विशेष असर पड़ता हैं , इसलिए हमे  सात्विक विचारधारा वाले लोगो के बीच ही बेठना चाहिए।

५  हमेशा कौशिश करे कि संतो की वाणियों को सुने , धार्मिक विचारो में अपनी रूचि को बढ़ाए, क्योकि जैसी रूचि हमारी होगी वेसी ही हमारी विचारधारा होगी ।

६  जब आप मन में उठने वाली नकारात्मक सोच को या कुविचारों को ज्यादा महत्व नही दोंगे तो वह धीरे धीरे कमज़ोर पड़ने लगेगी और आप पर प्रभावी नहीं हो सकेगी ।

अंत में मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि ईश्वर हम सब को सदबुद्धि दे व् सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा दे व् हमेशा हमारे साथ रहे ताकि हम से अनजाने में भी कोई भूल  न  हो ।
श्री राधे !

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

gopi chadan





गोपी चंदन क्या है ?
गोपी तिलक क्यो लगाया जाता है ?
कौनसे भक्त गोपी तिलक करते है?
यु तो हम सभी ने देखा है कि सभी भक्त अपने माथे पर
अलग अलग प्रकार के तिलक करते है| कोई लाल तिलक
करता है तो कोई मिट्टी के रंग का तिलक करता है |और
उनका लगाने का प्रकार भी सभी परम्पराओं मे भिन्न भिन्न
प्रकार का होता है|
जो भक्त भगवान श्री कृृष्ण को मानते है और वैष्णव सनातन
धर्म पर चलते है | वे भक्त सदैव अपने मस्तक पर
गोपीचंदन के तिलक का उपयोग करते है|
गोपी तिलक क्यो किया जाता है ? एक तो अगर हम संसारिक
दृष्टिकोण से देखेगे तो ,उसे हम ऐसे देख सकते है, कि जिस
प्रकार हर देश का अपनी अपनी एक पहचान होती है, अर्थात
उनके झंडे के रुप में| जैसे हम अगर किसी क
झंडा दिखायेगे तो सामने वाला व्यक्ति समझ जायेगा कि हम
भारत से है| ऐसे ही जब कोई भक्त वैष्णव परम्परा ग्रहण
करता है तो गोपी तिलक करता है | या दुसरे उदारण से हम
इसे ऐसे समझ सकते है , कि जैसे हर एक स्कुल की अपनी एक
अलग युनिर्फाम होती है | जिसे हमे पता चलता है कि ये
बच्चा किस स्कुल का है| बस इसी प्रकार गोपीचंदन
का तिलक भी वैष्णव परम्परा की पहचान है|
ये तो हमने भौतिक दृष्टिकोण से जाना कि गोपीचंदन
का तिलक क्यो किया जाता है| अब इस बात को हम
आध्यतामिक दृष्टिकोण से जानते है एक भक्त जब भगवान
की शरण ग्रहण करता है और ठाकुर जी को अपने ह्दय कमल
में विराजमान करता है तो उस भक्त का ये शरीर एक मंदिर
के समान हो जाता है और वो गोपी चंदन से अपने इस मंदिर
को सजाता है | अर्थात श्रृगाँर करता है|
जय-जय श्री राध

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

देवराहा बाबा के अमृत वचन सेवा,सहानुभूति और उदारता

   देवराहा बाबा के अमृत वचन सेवा,सहानुभूति और उदारता 


                         (ब्रह्मलीन योगिराज श्रीदेवराहा बाबाजी के अमृत वचन )

        प्रेम ही सृष्टि हैं , सबके प्रति प्रेम भाव रखो। 
       
       भूखो को रोटी देने में और दुखियों के आसूं पोछने में जितना पुण्य लाभ होता हैं और , उतना वर्षो के जप तप भी नहीं होता। 

       परमात्मा  पृथक कुछ भी नहीं हैं। यह सर्व्यापक ईश्वर प्रकृति के कण -कण  व्याप्त हैं। अतः चराचर को भगवत स्वरूप मानकर सबकी सेवा करो। 

       गीता का सार हैं , दुखी को सांत्वना तथा कष्ट में सहायता देना एवं उन्हें दुःख भय  से मुक्त करना। 

        आत्मचिंतन , दैन्य -भाव और सदगुरु  की सेवा इन तीनो बातों को कभी मत भूलो। 

       प्रतिदिन  यथासाध्य कुछ- न -कुछ दान अवश्य करों ,इससे त्याग की प्रवृति जागेगी। 

      प्रेम एंव स्नेह से दुसरो की सेवा करना ही सर्वोच्च धर्म हैं , उससे ऊँचा कोई नहीं। 

     सम्पूर्ण जप और तप दरिद्रनारायण की सेवा और उनके प्रति करुणा के समान हैं। 

     अठारह पुराणो में व्यासदेव के दो ही वचन हैं -परोपकार  पुण्य हैं और दुसरो को पीड़ा पहुँचाना  पाप हैं। 

      अतिथि सत्कार श्रद्धा पूर्वक करो ;अतिथि का गुरु और देवता की तरह सम्मान करों। 

     जिस घर में गरीबों का आदर होता हैं और न्याय द्वारा अर्जित सम्पति हैं  वैकुण्ठ के सदृश हैं। 

      जब चलो तो समझो कि मैं भगवान की परिक्रमा कर रहा हूँ ,  जब पियो तो समझो कि मैं भगवान का चरणामृत पान कर रहा हूँ। भोजन करो तो समझो कि मैं भगवान का प्रसाद पा रहा हूँ ,सोने लगो तो समझो मैं उन्ही की गोद में विश्राम कर रहा हूँ.

     प्रत्येक कर्म को ईश्वर की सेवा और परिणाम को भगवत्प्रसाद समझना। सबके प्रति शिष्ट एंव समान भाव रखना , क्रोध -लोभ का परित्याग करना ही प्रभु  की सेवा हैं। 

     सभी मनुष्यों से मित्रता करने से ईष्या की निवृति हो जाती हैं। दुखी मनुष्यों पर दया करने से दुसरो का बुरा करने की इच्छा समाप्त हो जाती हैं। पुण्यात्मा को देखकर प्रसन्नता होने से असूया की निवृति हो जाती हैं। पापियों की उपेक्षा करने से अमर्ष , घृणा आदि के भाव समाप्त हो जाते हैं। यह साधको के लिए आचार हैं। 

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

राम रक्षा स्तोत्र हिदी में

         प्रभु हमारी हर संकट से रक्षा करें
एक मात्र केवल और केवल उन्ही का सहारा हैं      
                 राम रक्षा स्तोत्र हिदी में
                                
आज मैं आप सबके सामने एक ऐसे स्तोत्र के रखना चाहती हूँ, जिसके महत्व की जानकारी  मेने जाने कितनी बार विभिन्न पत्रिकाओ में एवं ,गुरु जी के .श्री मुख से सुनी हैं। बहुत से लोगो ने अपने साथ होने वाले आश्चर्यजनक अनुभव के बारे में भी बताया हैं जो कि बिलकुल सत्य थी। बल्कि मैंने स्वंय महसूस किया कि अगर इस  पाठ को पूरी निष्ठा के साथ किया जाए  तो यह चमत्कार दिखलाता हैं। किसी को भी जब कोई समस्या का समाधान न मिल रहा हो तो एक बार जरूर विश्वास के साथ इस पाठ  को करें, अवश्य ही लाभ होगा।  यह मैं हिंदी में ही करने की सलाह दूँगी , ताकि कोई गलती न हो। पाठ इस प्रकार हैं -                                           
                                                                                   
  .                         राम रक्षा स्तोत्र
                                                            
                                                                                      विनियोगः 

इस रामरक्षा स्तोत्र -मंत्र के बुध कौशिक ऋषि हैं , सीता और रामचन्द्र देवता हैं , अनुष्टप् छन्द हैं , सीता शक्ति हैं , श्रीमान हनुमानजी कीलक हैं तथा श्री रामचन्द्रजी की प्रसन्नता के लिए रामरक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं। 
      
                                                                                         ध्यानम् :-
जो धनुष -बाण धारण किए हुए हैं , बद्ध पद्मासन से विराजमान हैं , पीतांबर पहने हुए हैं , जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमल दल से स्पर्धा करते तथा वामभाग में विराजमान श्री सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं , उन आजानुबाहु , मेघश्याम , नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित तथा विशाल जटाजूटधारी श्री रामचन्द्र जी का  ध्यान करे। 

                                                                                   स्तोत्रम :-

                     श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ विस्तारवाला हैं और उसका एक -एक अक्षर भी महान पापो को नष्ट करने वाला हैं।।१।।

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण , कमलनयन , जटाओं के मुकुट से सुशोभित , हाथों में खड्ग , तूणीर , धनुष और बाण धारण करने वाले , राक्षसों के संहारकरी  तथा  संसार की रक्षा के लिए अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं , उन अजन्मा और सर्वव्यापक भगवान रामजी , जानकीजी और लक्ष्मणजी के सहित स्मरण कर प्राज्ञ पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करे। मेरे सिर की राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करे।।२-४ ।।

कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें , विश्वामित्र प्रिय कानों को सुरक्षित रखे तथा यज्ञ रक्षक घ्राण की और  सौ मित्रिवत्सल  मुख की रक्षा करें।।५।।

मेरी जिव्हा की विद्यानिधि , कंठ की भरतवन्दित , कंधो की दिव्यायुध और भुजाओं की भग्नेशकार्मुक (महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले )रक्षा करें।।६।।

हाथों की सीतापति , हृदय की जामदग्न्यजित (परशुरामजी को जीतने वालें  ), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करने वाले )और नाभि की जाम्ब्वदाश्रय रक्षा करें।।७।।

कमर की सुग्रीवेश , सक्थियों की हनुमत्प्रभुः और उरुओं की राक्षसकुल विनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें।।८।।

जानुओं की सेतुकृत् , जंघाओं की दशमुखान्तक (रावण को मारने वाले ), चरणों की विभीषण श्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले )और सम्पूर्ण शरीर की श्री राम रक्षा करें।।९।।

जो पुण्यवान् पुरुष रामबल से सम्पन्न  इस रक्षा का पाठ करता हैं , वह दीर्घायु , सुखी , पुत्रवान , विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता हैं।।१०।।

जो जीव पताल , पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और छद्मवेश से घूमते रहते हैं , वे राम नाम से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं सकते।।११।।

'राम','रामभद्र ','रामचन्द्र 'इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य पापों में लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं।।१२।।

जो पुरुष जगत को विजय करने वाले एकमात्र मन्त्र राम नाम से सुरक्षित इस स्त्रोत को कंठ में धारण कर लेता हैं , सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं।।१३।।

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक  इस राम कवच का स्मरण करता हैं , उसकी आज्ञा का  कहीं भी उल्लघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती हैं।।१४।।

श्री शंकरजी ने रात्रि के समय स्वप्न में इस राम रक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था , उसी  प्रकार प्रातः काल जागने पर बुध कौशिक जी ने इसे लिख दिया।।१५।।

जो मानो कल्पवृक्ष के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं , जो तीनो लोक में परम सुंदर हैं , वे श्री राम हमारे प्रभु हैं।।१६।।

जो तरुण अवस्था वाले , रूपवान , सुकुमार , महाबली , कमल के सामान विशाल नेत्रों वाले , चीर वस्त्र और कृष्ण मृगचर्म धारी ,फल -मूल  आहार वाले , संयमी , तपस्वी , ब्रह्मचारी , सम्पूर्ण जीवो को शरण देने वाले , समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षस कुल का नाश करने वाले हैं , वे रघुश्रेष्ठ दसरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करे।।१७ -१९।

जिन्होंने संधान किया हुआ धनुष ले रखा हैं , जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिए हुए हैं , वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मार्ग में सदा ही मेरे आगे चले।।२०।।

सर्वदा उद्यत , कवचधारी , हाथ में खड्ग लिए , धनुष बाण धारण किये तथा युवा अवस्था वाले भगवान राम लक्ष्मण जी सहित आगे -आगे  चलकर  हमारे मनोरथों की रक्षा  करें।।२१।।

(भगवान का कथन हैं कि )राम , दशरथि ,शूर , लक्ष्मणानुचर , बलि , काकुत्स्थ , पुरुष , पूर्ण , कौसल्येय , रघुत्तम , वेदान्तवेद्य ,यज्ञेश ,पुराण पुरुषोत्तम , जानकी वल्ल्भ , श्रीमान और अप्रमेयपराक्रम - इन नाम का नित्य प्रति श्रद्धा पूर्वक जप करने से मेरा भक्त  अश्वमेध  यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता हैं -इसमें कोई संदेह नहीं हैं।।२२ -२४।

जो लोग दूर्वादल के समान श्याम वर्ण , कमल नयन , पीताम्बरधारी भगवान राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं , वे संसार चक्र में नहीं पड़ते।।२५।।

लक्ष्मणजी के पूर्वज , रघुकुल में श्रेष्ठ , सीताजी के स्वामी , अतिसुन्दर , ककुत्स्थ कुलनन्दन , करुणा सागर , गुणनिधान , ब्राह्मणभक्त , परमधार्मिक , राजराजेश्वर , सत्यनिष्ठ , दशरथ पुत्र , श्याम  और शांतिमूर्ति , सम्पूर्ण लोको में सुंदर , रघुकुल तिलक , राघव और रावणारी  भगवा न राम की मैं वंदना करता /करती हूँ।।२६।।

राम , रामभद्र , रामचन्द्र , विधार्त स्वरूप , रघुनाथ , प्रभु सीतापति को नमस्कार हैं।।२७।।

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरताग्रज भगवान राम ! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये।।२८।।

मैं श्री राम चन्द्र के चरणों का मन से स्मरण करता हूँ , श्री रामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ , श्री रामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्री रामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ।।२९।।

राम मेरी माता हैं , राम मेरे पिता हैं , राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं , दयामय राम ही मेरे सर्वस्व हैं , उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानती।।३०।।

जिनकी दायीं और लक्ष्मणजी , बाएँ और जानकीजी और सामने हनुमानजी विराजमान हैं , उन रघुनाथजी की मैं वंदना करता हूँ।।३१।।

जो सम्पूर्ण लोकों में सुंदर , रणक्रीडा में धीर , कमलनयन , रघुवंश नायक , करुणामूर्ति और करुणा के भंडार हैं, उन श्री रामचन्द्र जी की मैं शरण लेता हूँ।।३२।।

जिनकी  मन के सामान गति और वायु के सामान वेग हैं , जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानो में श्रेष्ठ हैं। उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्री रामदूत मैं शरण लेता हूँ।।३३।।

कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरो वाले राम -राम इस मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकिरूप  कोकिल की मैं वंदना करता हूँ।।३४।।

आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ।।३५।।

'राम -राम 'ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसार बीजों  को भून डालनेवाला , समस्त सुख -सम्पति की प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करनेवाला हैं।।३६।।

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीरामजी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान राम का भजन करता हूँ। जिन रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षस सेना का ध्वंस कर दिया था , मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई आश्रय नहीं हैं। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्त सदा राम में ही लीन रहें ;हे राम !आप मेरा उद्धार कीजिये।।३७।।

(श्री महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं -)हे सुमुखि !रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम के तुल्य हैं। मैं सर्वदा 'राम-राम , राम 'इस प्रकार मनोरम रामनाम में ही रमण करता हूँ।।३८।।
         
                              इति श्री बुधकौशिकमुनिविरचितं श्री राम रक्षास्तोत्रं सम्पुर्णम्। 
( यह पाठ करते समय ध्यान रखे की शुद्ध स्थान और शुद्ध आसन होना चाहिए। मन में पूर्ण विश्वास , श्रद्धा होनी चाहिए। )


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