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गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2

                           ॐ परमातम्ने नम:



कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य को जीवन में एक बार गीताजी का पाठ जरूर करना चाहिए और अगर वह सरल भाषा में उपलब्ध हो तो उसका लाभ जरूर उठाना चाहिए
                      अथ द्वितीय अध्याय
                        संजय उवाच
संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१॥
                  श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, ना स्वर्ग को देने वाला है, और ना कीर्तन को करने वाला है ॥२॥
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो ,तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती ।हे परंतु! हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥३॥
                       अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हेअरिसूदन!वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥४॥
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूं; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥५॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और ना करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वह जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वह ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥६॥
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए ;क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिए॥७॥
 क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी बने को प्राप्त हो कर भी मैं इस उपाय को नहीं देखता हूं ,जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शौक को दूर कर सकें॥८॥
                                   संजय उवाच
संजय बोले - हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान से' युद्ध नहीं करूंगा' यह स्पष्ट कह कर चुप हो गए॥९॥
 हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए- से यह वचन बोले ॥१०॥
                         श्री भगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचन को कहता है ;परंतु जिन के प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिन के प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते॥११॥
 न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥१२॥
जैसे जीवात्मा को इस देह में बालकपन ,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥१३॥
हे कुंतीपुत्र! सर्दी ,गर्मी और सुख -दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति विनाशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ॥१४॥
क्योंकि हे पूरूश्रेष्ठ! दुख- सुख को समान समझने वाले जिस स्त्री - पुरुष को यह इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते वह मोक्ष के योग्य होता है॥१५॥
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव नहीं है इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥१६॥
 नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत - दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥१७॥
इस नाश रहित, अप्रमेय, नित्य स्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥१८॥
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है ॥१९॥
यह आत्मा किसी काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष आत्मा को नाश रहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किस को मारता है? ॥२१॥
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुरानी शरीरों को त्याग कर दूसरे नहीं शरीरों को प्राप्त होता है॥२२॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती॥२३॥
 क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है ,यह आत्मा अदाह्य, अक्लेध निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है ॥२४॥
यह आत्मा अव्यक्त है यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे है अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तुम शौक करने को योग्य नहीं होअथार्त तुझे शौक करना उचित नही हैं॥२५॥
 किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ॥२६॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस से भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥२७॥
 हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ।केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थिति में क्यों शोक करना है ?॥२८॥
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष है इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥२९॥
 हे अर्जुन !यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य
( जिसका वध नहीं किया जा सके) है इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है ॥३०॥
तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त तूझे भय नहीं करना चाहिए ;क्योंकि क्षत्रियों के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई भी कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥३१॥
 हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ॥३२॥
किंतु यदि तू इस धर्म युद्ध  को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पापको प्राप्त होगा ॥३३॥
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥३४॥
और जिन की दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ॥३५॥
तेरे वेरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से ना कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दु:ख और क्या होगा?॥३६॥
शेष कल-

बुधवार, 18 जुलाई 2018

श्रीमद भगवत गीता हिंदी में अध्याय 1 का शेष( पार्ट 2)

                           श्रीमद्भागवत गीता(प्रथम अध्याय)

अर्जुन ने कहा- हे राजन! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बांधकर डटे हुए धृतराष्ट्र संबंधियों को देखकर,उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठा कर हृषीकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा - हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।। 20-21।।
 और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक उसे खड़ा रखिए ।।22।।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।। 23।।
संजय ने कहा
 संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्री कृष्ण चंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार का कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कोंरवों देख।। 24-25।।
 इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ- चाचा को, दादा- परदादा को, गुरु को  मामा को, भाइयों को, पुत्रों को, पोत्रों को तथा मित्रों को, ससुर  को भी देखा।। 26-27
उन उपस्थित संपूर्ण बंधुओं को देखकर वह कुंती पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।। 27
अर्जुन बोले- हे कृष्ण !युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुंह सुखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंपन एवं रोमांच हो रहा है।। 28-29
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।।30
हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।। 31।।
 हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं ना राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे लोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?।।32।।
 हमें जिनके लिए राज्य, भोग  सुखआदि अभीष्ट हैं, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।  33।।
गुरुजन, ताऊ, चाचा, लड़के और उसी प्रकार दादा, मामा,  ससुर, पुत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।। 34।।
 हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता.; फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?।।35।।
 यह जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ?इन आतताइयों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।।36।।
अतएव हे माधव !अपने ही बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।। 37।।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए यह लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोस्तों और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?।। 38-39
 कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40।।
 हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय!  स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।। 41।।
वर्णसं‍कर कुलघाटियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही होता है।लुप्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले अथार्थ श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।। 42।।
इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घाटियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।।43।।
यह जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्य का अनिश्चित काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हम सुनते आए हैं ।। 44।।
हां !शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।। 45।।
यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना ना करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।। 46।।
संजय बोले -रणभूमि में शोक से उदास मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।। 47।।
ॐ तत्सत श्री कृष्ण अर्जुन संवाद का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण 
( यह श्रीमद्भागवत गीता श्लोक अर्थ सहित महातम्य हिंदी अनुवाद मैं गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा रचित में से पढ़कर आप सबके समक्ष लिख रही हूं) जय श्री राधे

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता (हिन्दी में) अध्याय 1

                         श्री गीता जी की महिमा


वास्तव में श्रीमद्भागवत गीता का महात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिए किसी की भी सामर्थ्य नहीं है क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है। इस में संपूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुंदर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है, परंतु उसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता है प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं। भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता रूप एक ऐसा अनूपमेय शास्त्र कहा है जिसमें एक भी शब्द  सदुपदेश से खाली नहीं है। श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि गीता सुगीता करने योग्य है। अतः श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं भगवान विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है
                      प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र कह रहे हैं - हे संजय धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?।।1

संजय ने कहा - उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।  2
 हे आचार्य आपकी बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।। 3
इस सेना में बड़े-बड़े धनुष वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सत्यकि और विराट तथा महा रथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशी राज पुरूजित, कुंतिभोज और मनुष्य में श्रेष्ठ शेब्‍य, पराक्रमी युद्धा मन्यु तथा बलवान उत्तमोजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु एवं द्रोपदी के पांचों पुत्र, यह सभी महारथी हैं।। 4-6।।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उन को बतलाता हूँ।। 7।।
आप - द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजय कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा विकर्ण और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा।। 8।।
और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाला बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर है।।9।।
भीष्म पितामह द्वारा रचित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजय है और भीम द्वारा रचित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।। 10।।
 इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।। 11।।
कोरवा में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।।12।।
इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नर्सिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।
इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।। 14।.
श्री कृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक ,अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पोणडर्म नामक महा शंख बजाया। ।15।।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाय।। 16।।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रोपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सभी ने, हे राजन् ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाय।। 17-18।।
और उन भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धृतराष्ट्रअर्थात आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिए। ।19।।
 शेष कल:

सोमवार, 16 जुलाई 2018

भक्ति करने से भक्तों को क्या लाभ मिलता है

                                भक्ति की महिमा


एक गृहस्थ कुम्हार भक्त था। एक संत ने उन्हें नाम दिया वह भजन करने लगे  सीधे सरल स्वभाव में भक्ति प्रकट हो गई अपने घर का काम करते हुए , भजन करते हुए वह सिद्ध हो गए, पर उन्हें पता ही नहीं कि मुझ में कुछ प्रभाव है। उन के समीप जो भी कोई जिस कामना से आता, उस की कामना पूर्ण हो जाती, उसका कष्ट मिट जाता। धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि हो गई। गांव के राजा ने सुना तो वह फल फूल लेकर आया दर्शन कर भेट दे कर उन के समीप बैठे राजा ने पूछा भक्ति की क्या महिमा है। भक्त कुमार ने कहा राजन मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं अतः शास्त्रों का मुझे ज्ञान नहीं है पर अपने प्रत्यक्ष अनुभव की बात बतलाता हूं मैं मिट्टी के बर्तन बनाता हूं। व मेरी स्त्री व बच्चे भी इसी काम में लगे रहते हैं, मिट्टी में मिलाने के लिए घोड़े की लीद की जरूरत पड़ती है। घोड़े के लीद से खाद भी नहीं बनती, सुखाकर उसे जलाने के काम में भी नहीं लाया जाता है, आपके बहुत से घोड़े हैं। ढेरों लीद पड़ी रहती है। मेरी बीवी, बच्चों उ से उठाने जाते हैं, तो आप के नौकर  गाली देते हैं कभी-कभी बच्चों को मारते हैं, इतने पर भी हमारे बच्चे लेने जाते हैं । मार गाली सहकर भी लेकर आते हैं  क्योंकि उसके बिना हमारा काम नहीं चलता है। अब आप ही देखें मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति के घर आप स्वयं आए हैं और मुझे प्रणाम करके भेट दे रहे हैं , ऐसा क्यों विचार कर देखें तो यह भक्ति का प्रभाव है उसके प्रभाव से नीच ऊँचा हो जाता है, वंदनीय हो जाता है। अभक्तो का व भक्तों का अंतर, आदर, अनादर इसी से समझ लीजिए कि भक्ति की कितनी महिमा है  राजा बहुत प्रभावित हुआ। शास्त्रों के ज्ञाता भी तर्क और अविश्वासों में फंस जाते हैं। उन्हें सरल श्रद्धा और भावुकता प्राप्त नहीं होती, इसी से सच्ची भक्ति का प्राकट्य नहीं होता। 

भक्ति करने के लिए क्या करें

                           भक्ति कैसे करें

हम सब का मानना यह है कि सब प्रकार के अनुकूलता अथार्त (आसपास का वातावरण मेरे अनुसार हो।) प्राप्त हो तो मैं भक्ति करूं, परंतु सारी अनुकूलता किसी को इस संसार में नहीं मिलती है। भगवान जी मनुष्य को अनेक प्रकार से अपनी ओर आकर्षित करते हैं, कभी सुख देकर और कभी दुख देकर कुछ लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रुप नहीं है परंतु वैष्णव लोग जो भी रूप सामने आता है उसे भगवान का ही रूप मानते हैं, सम्मुख का यही लक्षण है। विमुख को कहीं भी भगवान नहीं दिखते। विमुखता, दुष्टता क्षणिक है। थोड़ी देर के लिए हैं सदा नहीं रहेंगे। काम क्रोध भी थोड़ी देर के लिए ही होता है। शांति, दया  क्षमा आदि हमेशा रहते हैं, यह सर्वदा रह सकते हैं। हिरण्यकश्यप की दुष्टता थोड़ी देर की थी, प्रह्लाद की भक्ति नित्य है, सदा रहेगी.
भगवान के नाम रूप लीला यह सच्चे साथी हैं सत्संग के लिए जब भी कोई ना मिले, कहने वाला या सुनने वाला ना हो, तब सबसे बड़े संत भगवान का नाम हैं। इनको साथ रखो अर्थात भगवान  का नाम जपो। जो प्रभु के प्रेम को पाने की इच्छा रखता है उसे प्रभु कभी निराश नहीं करते हैं। प्रभु प्रेम की प्यास सबसे बड़ी शांति का साधन है। अतः भगवान का बल रखना चाहिए। यह सबसे बड़ा बल है।
जब हमारी इच्छा पूरी नहीं होती है तो हमें क्रोध आता है पर उससे अपना या दूसरों का कोई लाभ नहीं होता। विचार कर क्रोध की अग्नि को शांत कर,  शांति प्राप्त करना ही अधिक श्रेष्ठ है।
जय श्री राधे
(दादा गुरु के श्री मुख से) 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

असली पूजा है सबके काम आना

असहाय की सेवा ही असली भगवान की पूजा है



निष्काम भाव से की गई सेवा कभी-कभी भजन से विशिष्ट बन जाती है.। संकट में पड़े व्यक्ति को जल वस्त्र, औषधि आदि के दांन से उस में विराजमान भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए प्राणी मात्र की सेवा करने वाले का भी उद्धार हो जाता है। भूले भटके को रास्ता बता देना, बुरे मार्ग  से बचाकर सन्मार्ग पर चलाना, हरि भक्ति के पथ पर जी वो को पहुंचाना, यह सब ईश्वर को प्रसन्न करने के उत्तम साधन है। सच बात तो यह है कि इन शुभ कार्य के लिए ही यह मनुष्य शरीर मिला है इसलिए सब की उन्नति में अपनी उन्नति मानना, दूसरों के विनाश में अपना विनाश समझना, यही संत का लक्षण है ।मनुष्य के शरीर के भोगों को भोगने के लिए ईश्वर ने नहीं दिया है। खान-पान, निद्रा, संतान उत्पन्न करना आदि जानवरों आदि  की योनियों में भी सुलभ है। केवल विवेक, ज्ञान, भक्ति पशुओं में नहीं है। अतः मनुष्य शरीर से विवेक प्रेम प्राप्त कर ईश्वर की आराधना करनी चाहिए  यही उद्देश्य दूसरों को भी देना चाहिए। 
जय श्री राधे (परमार्थ के पत्र मैं हमारे पूजनीय दादा गुरु के श्री मुख से) 

कैसे कर्म करने चाहिए

   श्रीराम सब जगह हैं। धर्मशील अथार्त धर्मपाल के पास सभी प्रकार की सुख संपत्तियां बिना बुलाए ही आ जाती हैं। संपत्तियां रूप गुणों पर रहती हैं, विवेकपूर्वक कर्म करने वाले संकट से बच जाते हैं, बिना सोचे विचारे जो कर्म करता है उस पर अनेक आपत्तियां आती हैं कर्म के आरंभ में परिणाम पर विचार करना चाहिए। मेरे करम का क्या फल मिलेगा, मुझे तथा दूसरों को सुख होगा या दुख होगा, इस कर्म की लोक में प्रशंसा या निंदा होगी, यह करम भजन में बाधक है या साधक है, इस पर विचार करके ही कोई काम करना चाहिए इसी प्रकार संत भगवान के शुभ आशीर्वाद भी सज्जनों को बिना मांगे मिल जाते हैं। भक्ति का आचरण करने वाले साधु संतों के स्वय श्री हनुमान जी रक्षक हैं, असुर निकंदन है  दुष्टता  करके फिर हनुमान जी का शुभ आशीर्वाद मिलना कठिन है। प्रभु दीन दयालु हैं, आप सब पर दया करें, सत्संग सेवा में रुचि बड़े जब तक मन प्रभु में तल्लीन ना हो जाए, तब तक अपने कर्म को करते रहना चाहिए कर्म करने का उद्देश्य प्रभु की प्रसन्नता ही होनी चाहिए। जिस प्रकार प्रभु प्रसन्न हो वही कार्य करना चाहिए हम जब भगवान के अनुकूल रहेंगे तो भगवान हमारे अनुकूल रहेंगे।
जय श्री राधे
परमार्थ के पत्र पुष्प के कुछ अंश

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