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मंगलवार, 7 अगस्त 2018

गीता माधुर्य प्रथम अध्याय हिंदी मे

                                 गीता माधुर्य

श्रीमद्भागवत गीता मनुष्य मात्र को सही मार्ग दिखाने वाला सार्वभौम महाग्रंथ है। लोगों में इसका अधिक से अधिक प्रचार हो, इस दृष्टि से परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ने इस ग्रंथ को प्रश्नोत्तर शैली में बड़े सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे गीता पढ़ने में सर्वसाधारण लोगों की रुचि पैदा हो जाए और वह इसके अर्थ को सरलता से समझ सके। नित्य पाठ करने के लिए भी है पुस्तक बड़ी उपयोगी है। आप  से मेरा निवेदन है कि इस को स्वयं भी पढ़े व औरों को भी प्रेरित करें।
                               श्री परमात्मने नमः
                                 श्री गणेशाय नमः
                      गीता माधुरी प्रथम पहला अध्याय
वसुदेव सुतम देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
 देवकीपरमानंद कृष्णम वंदे जगतगुरुम् ॥
जिज्ञासापूर्तये  टीका लिखित साधकस्य या।     
संजीवप्रवेशाया माधुर्य  लिख्यते मया॥
पांडवों ने 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य मांगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, किसी सुई की नोक जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं किया। अतः पांडवों ने माता कुंती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध होना निश्चित हो गया और दोनों और युद्ध की तैयारी होने लगी। महर्षि वेदव्यास का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था उसी के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा की युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान संहार होना अवश्यंभावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता, यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूं। जिसे तुम भी बैठे-बैठे युद्ध की अच्छी तरह कैसे देख सकते हो। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि "मैं जन्म भर अंधा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं देखना नहीं चाहता हूँ। परंतु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर मैं जानना चाहता हूँ। 'व्यास जी ने कहाकि मैं संजय को दिव्य दृष्टि देता हूं, जिससे वह संपूर्ण युद्ध को, संपूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आई हुई बातों को, भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा। ऐसा कह कर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। उधर निश्चित समय के अनुसार कुरुक्षेत्र में दोनों सेना युद्ध के लिए तैयार थी।
अब प्रश्न होता है कि जब युद्ध के लिए दोनों सैन्य सेना तैयार थी ऐसे मौके पर भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश क्यों दिया? 
 शोक दूर करने के लिए ही भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।
अर्जुन को शौक कब हुआ और क्यों हुआ? 
जब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने ही निजी कुटुंबियों को देखा और सोचा कि दोनों तरफ हमारे कुटुंबी मरेंगे, तब ममता के कारण उनको शौक हुआ।
अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने कुटुंबियों को क्यों देखा?  भगवान श्री कृष्ण ने जब दोनों सेनाओं के बीच में रख खड़ा करके अर्जुन से कहा कि' तुम युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए इन कुरूवंशियों को देखो' तब अर्जुन ने अपने कुटुंबियों को देखा। भगवान ने अर्जुन को दोनों सेनाओं में वंशियों को देखने के लिए क्यों कहा? 
 अर्जुन ने पहले भगवान से कहा था कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ खड़ा करो, जिससे मैं देखूं कि यहां मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं? '
अर्जुन ने ऐसा क्यों कहा? 
जब युद्ध की तैयारी के बाजे बजे, तब उत्साह से भर कर अर्जुन ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए भगवान से कहा।
बाजे क्यों बजे? 
कौरव सेना के मुख्य सेनापति भीष्म जी ने जब सिहं की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया, तब कौरव और पांडव सेना के बाजे बजे।
भीष्मजी ने शंख क्यों बजाया?    
दुर्योधन को हर्षित करने के लिए भीष्मजी ने शंख बजाया।
   दुर्योधन अप्रसन्न क्यों था? 
 दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा कि आपके प्रतिपक्ष में पांडवों की सेना खड़ी है, इसको देखिए अथार्त जिन पांडव पर आप प्रेम-स्नेह करते हैं वही आप के विरोध में खड़े हैं। पांडव सेना की व्यूह रचना भी धृष्टधुम्न    के द्वारा की गई है। जो आप को मारने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार दुर्योधन की चालाकी से, राजनीति से भरी हुई बातों को सुनकर द्रोणाचार्य चुप रहे  कुछ बोले नहीं। इससे दुर्योधन अप्रसन्न हुआ।
द्रोणाचार्य चुप क्यों रहें?
दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए चालाकी से राजनीति की जो बातें कहीं ,वह बातें द्रोणाचार्य को बुरी लगी  । उन्होंने यह सोचा कि अगर मैं इन बातों का खंडन करूं, तो युद्ध के मौके पर आपस में खटपट हो जाएगी। जो उचित नहीं है। मैं इन बातों का अनुमोदन भी नहीं कर सकता क्योंकि यह चालाकी से बातचीत कर रहा है। सरलता से बातचीत नहीं कर रहा है, इसलिए द्रोणाचार्य चुप रहे।
दुर्योधन ने ऐसी बातें कब कहां और क्यों कहीं? 
दुर्योधन ने   व्यूहाआकार  खड़ी हुई पांडव सेना को देखकर गुरु द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए ऐसी बातें कहीं  इसका वर्णन संजय ने धृतराष्ट्र के प्रति किया है।
संजय ने यह वर्णन धृतराष्ट्र के प्रति क्यों किया? 
जब धृतराष्ट्र युद्ध की कथा को आरम्भ से विस्तार पूर्वक सुनना चाहा, तब संजय ने यह सब बातें धृतराष्ट्र से कहीं।
धृतराष्ट्र ने संजय से क्यों सुनना चाहा?
10 दिन युद्ध होने के बाद संजय ने अचानक आकर धृतराष्ट्र से यह कहा कि कौरव, पांडवों के पितामह, शांतनु के पुत्र भीष्म मारे गए(रथ से गिरा दिए गए) जो संपूर्ण योद्धाओं में मुख्य और संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ थे। ऐसे पितामह भीष्म आज शर शैया पर सो रहे हैं। इस समाचार को सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुख हुआ और वह विलाप करने लगे। फिर उन्होंने युद्ध का सारांश सुनाने के लिए कहा और पूछा-
 है संजय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले उस समय व्युरचना से खड़ी हुई पांडवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे कहा कि आचार्य आप अपने बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र प्रदुमन के द्वारा  व्युह रचना से खडी की  हुई पांडवों की इस बड़ी सेना को देखिए। पांडवों की सेना में किन-किन को देखूं दुर्योधन? 
पांडवों की सेना में बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष है, तथा जो बल में भीम के समान है और युद्धकला में अर्जुन के समान है। इन में युयुधान (सात्यकि) राजा विराट और महारथी  द्रुपद भी है। धृष्टकेतु, चेकितान और पराक्रमी काशीराज भी है और पुरूजित और कुंती भोज यह दोनों भाई तथा मनुष्य में श्रेष्ठ शैब्य भी है। पराक्रमी युधामन्यु और बलवान उत्तमोेजा भी है। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रोपदी के पांचों पुत्र भी हैं। यह सब के सब महारथी हैं।
पांडव सेना के शूरवीरों के नाम तो तुम ने बता दिए पर अपनी सेना के शूरवीर कौन-कौन है दुर्योधन? 
हे  द्विजोत्तम जो हमारी सेना में जो विशेष विशेष पुरुष हैं, उन पर भी ध्यान दीजिए। आप (द्रोणाचार्य), पितामह भीष्म, कर्ण, संग्राम विजय कृपाचार्य अश्वत्थामा और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा तथा इनके सिवाएं और भी बहुत से शुरूवीर है जिन्होंने मेरे लिए अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण तथा युद्ध कला में अत्यंत चतुर हैं।
दोनों सेनाओं के प्रधान प्रधान योद्धाओं को दिखाने के बाद दुर्योधन ने क्या किया संजय? 
दुर्योधन ने अपने मन में विचार किया कि वह उभयपक्षपाती (दोनों का पक्ष लेने वाले) भीष्म के द्वारा रक्षित हमारी सेना पांडव सेना पर विजय करने में असमर्थ हैं। और निजपक्ष पाती (केवल अपना ही पक्ष लेने वाले) भीम के द्वारा रचित पांडवों की सेना हमारी सेना पर विजय करने में समर्थ है।
मन में ऐसा विचार करने के बाद दुर्योधन ने क्या किया? 
उसने सभी शूरवीरों से कहा कि आप सब के सब लोग अपने-अपने मोर्चा पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
अपनी रक्षा की बात सुनकर भीष्म जी ने क्या किया?
पितामह भीष्म ने दुर्योधन को प्रसन्न करते हुए बड़े जोर से शंख बजाया
भीष्मजी के द्वारा शंख बजाने के बाद क्या हुआ संजय?
 भीष्मजी ने तो दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए ही शंख बजाया था, पर कौरव सेना ने इसको युद्धारम्भ की घोषणा ही समझी। अत:भीष्मजी के शंख बजाते ही कौरव सेना के शंख, ढोल, बाजे एक साथ बज उठे। उनका शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
 कौरव सेना के बाजें बजने के बाद क्या हुआ संजय?
शेष कल-

सोमवार, 6 अगस्त 2018

यमुना स्तुति भावार्थ के साथ(विनय पत्रिका)

                                यमुना स्तुति

जमुना ज्यों-ज्यों लागी बाढन। 
त्यों त्यों  सुकृत - सुभट कली भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न॥१॥ 
ज्यों ज्यों जल मलिन त्यों त्यों  जमगन मुखमलीन लहै आढ़ न। 
तुलसीदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न॥२॥ भावार्थ-
यमुना जी
जैसे जैसे बढने लगी, वैसे ही पुण्य रूपी योद्धागण कलयुग रूपी राजा का निरादर करते हुए उसे निकालने लगे। बरसात में यमुना जी का जल बढ़कर जो जो मैला होने लगा, त्यों त्यों यमदूतों का मुख भी काला होता गया, अंत में उन्हें कोई भी आसरा नहीं रहा, अब वह  किस को यमलोक में ले जाएं। तुलसीदास जी कहते हैं कि यमुनाजी के बढ़ते हुए पुण्य रूपी मेघ ने संसार के पाप रूपी जवासे को जलाकर भस्म कर डाला। 

गंगा स्तुति( विनय पत्रिका)

                                 गंगा स्तुति(विनय पत्रिका)

जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि चय चकोर - चंदनी,
नर - नाग- विबुध- बंदिनी जय जह्नु बालिका।
विष्णुपद सरोजजासी, ईस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुण्यराशि, पापछालिका॥१॥
विमल विपुल बहसि बारी, शीतल त्रयताप - हारी,
भंवर बर बिभंगतर तरंग मलिका।
पुरजन पूजाेपहार, शोभित शशि धवलदार,
भंजन भव भार, भक्ति कल्पथालिका ॥२॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पशु पतंग 
की, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तब तीर तीर सुमिरत रघुवंश बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥३॥
 भावार्थ- हे भगीरथ नंदिनी! तुम्हारी जय हो ,जय हो। तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो। मनुष्य नाग, देवता तुम्हारी वंदना करते हैं। यह जह्नु की पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो  शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो। स्वर्ग, भूमि और पाताल इन तीन मार्गो से तीन धाराओं में होकर बहती हो। पुण्य की राशि और पापों को धोने वाली हो। तुम आगाध निर्मल जल को धारण किए हो। वह जल शीतल और तीनों तापों को हरने वाला है  तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।नगर- निवासियों ने पूजा के समय जो सामग्री भेंट चढ़ाई हैं, उनसे तुम्हारी चंद्रमा के समान धवल धारा शोभित हो रही है। यह धारा संसार के जन्म - मरण रूप भार को नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हारूप है। तुम अपनी तीर पर रहने वाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग की औल जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो। हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए काली का रूप गंगाजी ! मुझे ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीर पर विचरा करें। 

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

सब के सब सुखी हो जाए

       
           सभी लोग एक दूसरे के सुख की कामना करें
  गीता आश्रम में ऋषिकेश मे एक संत हुए स्वामी रामसुखदास जी उन्हीं के मुख से बोले गए ये प्रवचन हैं जिसमें वह बता रहे हैं कि यदि हमने ईश्वर को अपना मान लिया है तो इस संसार में रहने वाली प्रत्येक जीव और निर्जीव ईश्वर के ही हैं । तो हमें उन सब का भी आदर , प्यार और सहायता करनी चाहिए।
प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा। केवल हम ही भगवान से विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए। हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
(मानसअरण्य ११। २१)
मीराबाई इतनी ऊँची हुई, इसका कारण उसका यह भाव था कि ।‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा कोई मेरा नहीं है।
सज्जनो ! हम भगवान् के हो जाते हैं तो भगवान् की सृष्टिके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है। यह सब सृष्टि प्रभुकी है, ये सभी हमारे मालिक के हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा। त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा। इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही, हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा, हम संसारसे मुक्त हो जायँगे। अत: हम भगवान के होकर भगवान का काम करें। ये सब प्राणी भगवान के हैं, इन सबकी सेवा करें। अपना यह भाव बना लें—
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥
सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब नीरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मङ्गल-ही-मङ्गल हो, कभी किसीको दु:ख न हो— ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं।(स्वामी रामसुखदासजी के श्री मुख से ) 

देवि स्तुति भावार्थ के साथ (विनय पत्रिका)

                                 देवि स्तुति(विनय पत्रिका)

 जय जय जग जननी देवी सुर- नर- मुनि - असुर सेवि, 
भुक्ति- मुक्ति- दायिनी, भय-हारणि कालिका। 
मंगल - मुद-सिद्धि- सदनि  पर्वशर्वरीश-वदनि, 
ताप-तिमिर- तरुण - तरणि- किरणमालिका॥१॥
 वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल- शैल- धनुषबाण,
 धरणि दलनि दानव दल, रण-करालिका।
 पूतना- पिशाच - प्रेत - डाकिनी- शाकिनी - समेत, 
भूत-ग्रह- बेताल खग- मृगाली- जालिका॥२॥
 जय महेश -भामिनी, अनेक रुप नामिनी ,
समस्त लोकस्वामनी, हिमशैल बालिका ।
रघुपति -पद परम प्रेम, तुलसी यह अचल नेम, 
देहु ह्वै प्रसन्न  पाहि प्रणत- पालिका॥३॥
 भावार्थ- हे जगत की माता! हे देवी!! तुम्हारी जय हो, जय हो देवता, मनुष्य, मुनि और असुर सभी तुम्हारी सेवा करते हैं। तुम भोग और मोक्ष दोनों को ही देने वाली हो ।भक्तों का भय दूर करने के लिए तुम कालिका हो ,कल्याण सुख और सिद्धियों की शान हो, तुम्हारा सुंदर मुख पूर्णिमा के चंद्र के सदृश है। तुम आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक ताप रुपी अंधकार का नाश करने के लिए मध्याह्न के तरुण सूर्य की किरण माला हो॥१॥ तुम्हारे शरीर पर कवच है। तुम हाथों में ढाल ,तलवार ,त्रिशूल, सांगी और धनुष बाण लिए हो। दानवों के दल का संहार करने वाली हो ,रण में विकराल रूप धारण कर लेती हो। तुम पूतना, पिशाच, प्रेत और डाकिनी शाकनियों के सहित भूत ग्रह और बेताल रूपी पक्षी और मृर्गों के समूह को पकड़ने के लिए जागरूक हो॥२॥ हे शिवे! तुम्हारी जय हो।। तुम्हारे अनेक रूप और नाम है। तुम समस्त संसार के स्वामिनी और हिमाचल की कन्या हो। हे शरणागत की रक्षा करने वाली! में तुलसीदास श्री रघुनाथ जी के चरणों में परम प्रेम और अचल नेम चाहता हूं, तो प्रसन्न होकर मुझे दो और मेरी रक्षा करो। 

शिव स्तुति (विनय पत्रिका)

                               शिव स्तुति
 श्री तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में भगवान शिव से विनय करके भगवान राम की कृपा पाने का अनुरोध किया है। उनका मानना है यदि शिव प्रसन्न हो जाएंगे तो ,वह भगवान राम से मेरी सिफारिश कर देंगे ,और भगवान राम मेरी और देख कर मुझ पर कृपा कर देंगे-

दानी कहूंँ शंकर सम- नाही।
दीन - दयालु दिबोई भावेै, जाचक सदा सोहाही॥१॥
मारिकै मार थप्यौ जग में, जाकी प्रथम रेख भट माही।
ता ठाकुर कोै रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाही॥२॥जोक कोटि करि जो गति हरिसों, मुनी मांगत सकुचाहीं।
वेद- विदित तेहि पद पूरारी-पुर, कीट-पतंग समाही॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनंत जे जाचन जाहीं। तुलसीदास थे मूढ़ मांगने, कबहुं ना पेट आघाही॥४॥
भावार्थ - शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वह दीन- दयालु है। देना ही उनके मन भाता है, मांगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं॥१॥ वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म कर के फिर बिना ही शरीर जगत में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु को प्रसन्न होकर कुछ कृपा करना मुझसे क्यों कर कहा जा सकता है। करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनिगण जिस परम गति को भगवान श्री हरि से मांगते हुए सकुचाते हैं। वही परमगति त्रिपुरारी शिव जी की पुरी काशी में कीट पतंगे भी पा जाते हैं, यह वेदों में प्रकट है॥३॥ ऐसे परम उदार भगवान पार्वतीपति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह मांगने जाते हैं, उन मुर्ख मांगने वालों का पेट भली-भांति कभी नहीं भरता॥४॥

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

सूर्य स्तुति

                                  सूर्य स्तुति

 यह स्तुति तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में कही है-

दीन- दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा॥१॥ हिम- तम- करी- केहरि करमाली। दहन दोष - दुख - दुरित - रुजाली॥२॥
 कोक- कोकनद- लोक- प्रकाश।तेज- प्रताप- रूप - रस -रासी॥३॥
सारथी- पंगु,दिव्य रथ- गामी।हरि-शंकर-बिधि-मूरति स्वामी॥४॥
वेद- पुराण, प्रगट जस जागे। तुलसी राम-भगति वर मांगे ॥५॥

भावार्थ- हे दीन दयालु भगवान सूर्य! मुनि ,मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं॥१॥आप पाले और अंधकार रुपी हाथियों को मारने वाले वनराज सिंह हैं। किरणों की माला पहन रहते हैं; दोष, दुख, दुराचार और रोगों को भस्म कर डालते हैं॥२।। रात के बिछड़े हुए चकवा चकवियों को मिलाकर प्रसन्न करने वाले, कमल को खिलाने वाले तथा समस्त लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं। तेज, प्रताप, रूप और रस कि आप खानी है॥३॥ आप दिव्य रथ पर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लूला है। हे स्वामी! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा जी के ही रूप हैं।।४॥ वेद- पुराणों में आपकी कीर्ति जगमगा रही है।तुलसीदास आपसे श्री राम भक्ति का वर मांगता है॥५॥ 

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गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

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