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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं?

           सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं

संसार में मनुष्य को सुख और दुख दोनों ही भोगने पड़ते हैं। परंतु सुख में प्रसन्नता दुख में क्षोभ,  सामान्य लोगों को होता है। धैर्यवान ,सुख दुख दोनों में समान रहते हैं ।यही ईश्वरीय कृपा का अनुभव होना है। अपने कर्तव्य का पालन करने वाला निर्धन मनुष्य श्रेष्ठ है और अपने कर्तव्य का त्याग करना ,अन्याय से धनवान होकर सुखी होना अच्छा नहीं है । इसीलिए शरणागत हो जाओ, शरण सफलता की कुंजी है ,निर्बल का बल है ,साधक का जीवन है, भक्तों का महामंत्र है ,आस्तिक का अचूक अस्त्र है ,दुखी की दवा है, इसलिए जो परमात्मा का सहारा ले लेता है। उसके सुख और दुख एक समान हो जाते हैं ।वे दोनों ही परिस्थिति में कृपा का अनुभव करता है ।दुख हो या सुख दोनों में ही वह अनुभव करता है कि ईश्वर उसे उसके कर्म के हिसाब से  प्रदान कर रहे हैं, इसलिए वह दोनों को सहज ही स्वीकार करता है। इसलिए सुख और दुख केवल वही भोगता है जिसने परमात्मा की शरण नहीं ली है।

(भक्तमाली जी महाराज वृंदावन)

गीता माधुर्य, तीसरा अध्याय( श्रीमद् भागवत गीता का सरल भावार्थ

 गीता माधुर्य,( तीसरा अध्याय) श्रीमद्भागवत का सरल भावार्थ

अर्जुन बोले- श्री जनार्दन !आपके अनुसार जब ज्ञान, बुद्धि श्रेष्ठ है, तो फिर है केशव! आप मुझे हर करम में क्यों लगाते हैं तथा आप कभी कहते हैं, कर्म करो और कभी कहते ज्ञान का आश्रय लो, आपकी इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है ।इसलिए एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ।।१-२
भगवान बोले -हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, उनमें सांख्य  योगियों की निष्ठा ,ज्ञान योग से, और योगियों की निष्ठा कर्म योग  से होती है ।तथा ज्ञान योग और कर्म योग से एक ही सम बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
उस  समता की प्राप्ति के लिए क्या कर्म करना जरूरी है?
 हां जरूरी है; क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि वह समता की प्राप्ति कर्मों का आरंभ किए बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती ।
कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती ?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता , क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव की परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं ,तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।
 अगर मनुष्य चुपचाप बैठे रहे ,कुछ भी करें नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
 नहीं ,जो मनुष्य चुपचाप बैठ कर और इंद्रियों को केवल बाहर से रोक कर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है , उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ ,बल्कि उस मूढ बुद्धि  वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है। आपने जो समबुद्धि बताई उसकी प्राप्ति ना तो कर्मों के किए बिना होती है, ना कर्मों के त्याग से होती है और ना बाहर से चुपचाप बैठ कर मन से विषयों का चिंतन करने  से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है? 
हे अर्जुन !जो मनुष्य मन से इंद्रियों का नियमन करके आसक्ति रहित होकर इंद्रियों के द्वारा कर्म योग (निष्काम भाव पूर्वक अपने कर्तव्य कर्मो)- का आचरण करता है वा श्रेष्ठ है अथार्त उसको समबुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा उपयुक्त विधि से कर्तव्य कर्म करना श्रेष्ठ है, और तो क्या ,बिना कर्म किए तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
 कर्मों को करने से बंधन तो नहीं होगा, भगवन्!
 नहीं ,यज्ञ (कर्तव्य कर्म )को केवल अपने लिए करने से ही मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए है कुंती नंदन !तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर।
 मैं कर्म करूं ही क्यों ?
सर्ग के आरंभ में पिता ब्रह्मा जी ने भी यज्ञ (कर्तव्य कर्मों के )सहित मनुष्य की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्य कर्म यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
 यह यज्ञ हम किस भाव से करें पितामह?
 इसके द्वारा तुम लोग देवताओं के द्वारा की वृद्धि ( उन्नति )करो और वे देवता लोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक दूसरे की वृद्धि करने से अथार्त अपने लिए कर्म न करके  केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करने से तुम लोग परमेश्वर यानी कि परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे।
 पितामह !अगर हम यज्ञ ना करें तो?
 तुम्हारे कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्य पालन के लिये  आवश्यक सामग्री देते रहेंगे  परंतु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि ना करके स्वंय ही सुख  आराम  भागोगे, तो तुम चोर बन जाओगे।
 इस दोष से कैसे बचा जाए भगवन्? 
केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में सुमता का अनुभव होता है  उस समता का अनुभव  करने वाले संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो केवल अपने सुख आराम के लिए ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते  हैं।
 भगवन्! अभी आपने कर्तव्य कर्म के विषय में ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनाई, कर्तव्य कर्म के विषय में आपका क्या कहना है? 
इसमें मेरा यही कहना है कि इस सृष्टि -चक्र के संचालन के लिए भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा कर्तव्य पालन से होती है और यज्ञ निष्काम भाव से किए गए कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिए परमात्मा यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं। उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्य का पालन करने से ही होती है ।अतः इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन ना करें तो?
 तो हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए कर्तव्य कर्म नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। 
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करें तो ?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला ,अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में ना तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है  तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूं  भगवन?
 हां, बन सकता है। तू निरंतर आसक्ति रहित होकर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन कर ,क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
 पहले आसक्ति रहित होकर क्या किसी ने कर्म किए हैं और क्या उनको परमात्मा की प्राप्ति हुई है?
 हां, राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष कर्तव्य कर्म करके ही परमात्मा को प्राप्त हुए हैं ।परमात्मा को प्राप्त होने पर भी उन्होंने लोकसंग्रह( दुनिया को कुमार्ग से बचा कर सनमार्ग पर लाने के लिए कर्म किए हैं) इसलिए तू भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर।
वह लोकसंग्रह कैसे होता है?
  दो प्रकार से होता है -अपनी कर्तव्य परायणता से और अपने वचनों से श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने वचनों से भी कुछ प्रमाणित करता है दूसरे मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।
जैसे आपने परमात्मा प्राप्ति के विषय में जनक आदि का उदाहरण दिया ऐसे ही लोकसंग्रह के विषय में क्या कोई उदाहरण है?
 हां ,मेरा ही उदाहरण लो पार्थ! मेरे लिए त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं है और प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है ।फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिए  कर्तव्यकर्म  करता हूं। आपके लिए कर्तव्य कर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
 हां, बहुत जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म ना करूं तो ,मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अथार्त वह भी कर्तव्य कर्म करना छोड़ देंगे ।इससे क्या होगा भगवन्?
 अगर मैं कर्तवय क्रम ना करूँ तो अपना- अपना कर्तव्य कर्म ना करने से ,यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं सब तरह के संकट दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूंगा ।
शेष कल -जय श्री कृष्णा

सोमवार, 20 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष( श्रीमद्भागवत गीता का सरल भावार्थ)

                   गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष -

वह स्थिर मन बोलता कैसे हैं ?
उसको बोलना साधारण क्रिया रूप से नहीं होता है बल्कि भाव रूप से होता है ।वर्तमान में व्यवहार करते हुए दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होगा और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पर्ह  नहीं होती तथा जो राग ,द्वेष, क्रोध से रहित हो गया है। वह मनुष्य  स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।सब जगह आसक्ति रहित हुआ ,जो मनुष्य प्रारब्धः  के अनुसार अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति के द्वेश नहीं करता ,उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है अथार्थ पहले उसने मुझे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है ।ऐसा जो निश्चय किया था वह अब सिद्ध हो गया है ।वह स्थितप्रज्ञ अवस्था कैसे हो ?
जैसे कछुआ अपने चारों पैर ,गर्दन और पूछं इन 6 अंगों को समेट  कर बैठता है ।ऐसा ही जिस समय गया कर्म योगी संपूर्ण इंद्रियों और मन को अपने अपने विषयों से समेट कर हटा लेता है, समेट लेता है। उस समय उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
 इंद्रियों को समेटने की वास्तविक पहचान क्या है?
 इंद्रियों को अपने विषयों से हटाने वाले देहाभिमानी मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर रस बुद्धि -सुख, भोग ,बुद्धि निवर्त  नहीं होती। परंतु परमात्मा की प्राप्ति होने से इस मनुष्य के रस ,बुद्धि, विवेक निवर्त हो जाती है।
 रसबुद्धि रहने से क्या हानि होती है ?
हे कुन्ती नंदन !रस बुद्धि रहेने से साधनपरायण विवेकी  मनुष्य की इंद्रियां उसके मन को जबरदस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं।
इस रस बुद्धि को दूर करने के लिए क्या करना चाहिए ?
कर्मयोगी साधक ईन्द्रियों को वश में कर के मेरे  परायण बैठ जाए ,इह तरह जिसकी ईन्द्री बस में है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
 आपके परायण न होने से  क्या होगा ?
मेरे परायण ना होने से भोगों का चिंतन होगा।
 भोगो के चिंतन से क्या होगा?
 मनुष्य की उस विषय में आसक्ति हो जाएगी ।
आसक्ति होने से क्या होगा ?
उन भोगों को प्राप्त करने की कामना पैदा होगी?
 कामना  पैदा होने से क्या होगा?
 कामना की पुर्ति न होने  पर क्रोध आ जाएगा ।
क्रोध आने से क्या होगा ?
सन्मोह हो जाएगा, अच्छा जाएगा,मूढ़ता आ जायेगी ।
 मूढ़ता आने से क्या होगा?
मै साधक हीं, मुखे एसा व्यवहार कलना चाहिये ।  मुझे याद करना चाहिए ,ऐसा बोलना चाहिए ,जो पहले विवेक किया था उसकी स्मर्ति नष्ट हो जाएगी ।
स्मर्ति नष्ट होने पर क्या होगा?
 नया विचार करने की शक्ति ,बुद्धि नष्ट हो जाएगी ।इस समय मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ।क्या होगा मनुष्य का पतन हो जाएगा ।
दुखों का नाश हो जाता है और उसकू एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती एक निश्चयबुद्धि ना होने से उसकी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना है ऐसी भावना ऐसा विचार नहीं होता ऐसी भावना ना होने से होने से उस को शांति नहीं मिलती।
जिस मनुष्य की सभी कामनाएं , अहंकार ममता रहितं  होकर विचरता है ,उस को शांति प्राप्त हो जाती है। उसकी स्थिति बह्न  में होती है ।इसको प्राप्त होने पर मनुष्य कभी मोहित नहीं होता ,यदि मनुष्य इस ब्राह्मणी स्थिति  में अंत काल में भी स्थित हो जाए अथार्त अंतकाल में भी ममता रहित हो जाए तो वह शांति ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
दूसरा अध्याय समाप्त

मनुष्य जीवन के कुछ दोष

                         मनुष्य जीवन के कुछ दोष
( नित्यलीलालीन  श्रद्धेय भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
जी)


कुसंगति, कुकर्म ,बुरे वातावरण, खानपान के दोष ,आदि अनेक कारणों से मनुष्य में कई प्रकार के दोष आ जाते हैं ।जो देखने में छोटे मालूम होते हैं, बल्कि आदत पड़ जाने से मनुष्य उन्हें दोषी नहीं मानता, पर वह ऐसे होते हैं, जो जीवन को अशांत, दुखी बनाने के साथ ही उन्नति के मार्ग को भी रोक देते हैं ,और उसे अधः पतन की ओर ले जाते हैं। ऐसे दोषोें में से कुछ पर यहां विचार किया जा रहा है-
१-  मुझे तो बस अपने को देखना  है - इस विचार वाले मनुष्य का स्वार्थ छोटी सी सीमा में आकर गंदा हो जाता है, किस काम में मुझे लाभ है ,मुझे सुविधा है, मेरी संपत्ति कैसे ब़ढे, मेरा नाम सबसे ऊंचा कैसे हो, सब लोग मुझे ही नेता मान कर मेरा अनुसरण करें ,इसी प्रकार के विचारों और कार्यों में वह लगा रहता है ।मैंरे किस कार्य से किस की क्या हानि होगी ,किस को क्या असुविधा होगी ,किस का कितना मान भंग होगा ,किसके हृदय पर कितनी ठेस पहुंचेगी  विचार करने की इच्छा हृदय में नहीं होती ।वह छोटी सी सीमा में अपने को बांधकर केवल अपनी और ही देखा करता है। जिसके कारण उसके द्वारा अपमानित  क्षतिग्रस्त, असुविधा प्राप्त लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। और उसकी उन्नति में बाधा पहुंचनी शुकी हो जाती है।

२. भगवान और परलोक किसने देखे हैं?- भगवान और परलोक पर विश्वास न करने वाला मनुष्य, यह कहा करता है। ऐसा मनुष्य स्वेच्छाचारी होता है, और किसी भी पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है़। अमुक बुरे कर्म का फल मुझे परलोक में ,दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा या अंतर्यामी सर्वव्यापी भगवान सब कर्मों को देखते हैं ,उनके सामने में क्या उत्तर दूंगा। इस प्रकार के विश्वास वाला मनुष्य सबके सामने तो क्या छिपकर भी कभी पाप नहीं कर सकता और जिसका ऐसा विश्वास नहीं है ,वह केवल कानून से बचने का ही प्रयत्न्न करता है  उसे ना तो बुरे कर्म से अथार्त  पाप से घृणा है, ना उसे किसी पारलौकिक दंड का भय है। ऐसे मनुष्य को इस लोक में दुख प्राप्त होता है। और भजन ध्यान की उसमे कोई संभावना ही नहीं रहती ।अतः मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से भी वंचित ही रहता है।

३. मेरा कोई क्या कर लेगा?- संसार में सभी मनुष्य सम्मान चाहते हैं। जो मनुष्य ऐठ में रहता है ।दूसरों को सम्मान नही देता, कहता है मुझे किसी से क्या लेना है। मैं किसी की क्यों परवाह करूं ।मेरा कोई क्या कर लेगा ।वह इस अभिमान के कारण ही ,अकारण लोगों को अपना दुश्मन बना लेता है। दूसरों की तो बात ही क्या, उसके घर के और बंधु-बांधव भी उसके पराए हो जाते हैं। वह अभिमान वश किसी की भू परवाह नहीं करता ।किसी से सुख-दुख में हिस्सा नहीं बांटता और उनमें अपने को पुजवाना चाहता है। फलस्वरुप सभी उससे घृणा करने लगते हैं ,और उसके विद्रोही बन जाते हैं ।वह इसे अपना आत्मसम्मान या गौरव मानता है, और यह उसकी मूर्खता है। इस प्रकार अभिमानवश वह सबसे अकेला होकर असहाय बन जाता है ,और उसकी उन्नति रुक जाती हैं ।उसके स्वभाव के कारण वह अकेला पड़ जाता है और धीरे-धीरे मेरा कोई नहीं है, सभी मुझसे घृणा करते हैं, इत्यादि अपने में हीनता की भावना करते-करते मनुष्य को ऐसा दिखने लगता है कि उससे सभी घृणा कर रहे हैं। परिणाम स्वरुप उसके अंदर उदासी ,निराशा, क्रोध, मस्तिष्क विकृति आदि दोष उन लोगों के नित्य संगी बन जाते हैं।
४. संसार में कोई अच्छा है ही नहीं- दोष देखते देखते मनुष्य की इस प्रकार आंखें बन जाती है कि बिना दोष के होते हुए भी उसको लोगों में दोष ही दिखाई देता है। वैसे ही जैसे हरा चश्मा लगा लेने पर सब चीजें हरी दिखाई देती है ।ऐसे फिर कोई अच्छा दिखता ही नहीं। महापुरुष और भगवान में भी उसे दोष ही दिखते हैं। उसका निश्चित हो जाता है कि जगत में कोई भला है ही नहीं । मैं शरीफ बना नहीं रह सकता ।दिन रात दोष- दर्शन और दोष -चिंतन करते करते वह बाहर और भीतर से दोषों  का भंडार बन जाता है।
५. लोग मुझे अच्छा समझे- इस  भावना वाले मनुष्य में घमंड की प्रधानता होती है ।वह अच्छा बनना नहीं चाहता ।अपने को अच्छा दिखाना चाहता है ।इस तरीके से जगत को ठगने के कारण वह खुद ही ठगा जाता है ।उसके जीवन से सच्चाई चली जाती है। लोग जिस प्रकार की वेष एंव भाषा से प्रसन्न होते हैं वह इसी प्रकार का वेश धारण करके वैसे ही भाषा बोलने लगता है। उसके मन में ना खादी से प्रेम है ,ना गेरुआ से और ना नाम जप से; पर अच्छा कहलाने के लिए वह खादी पहन  लेता है  गेरुआ धारण कर लेता है, माला भी जपने लगता है। ऐसा करता है दूसरों के  सामने ही ,जहां उनसे बडाई ही मिलती है  और यदि उसके विरोध करने पर लोग भला समझेंगे तो, वह उन्हीं का विरोध भी करने लगता है ।इसका प्रत्येक  कार्य दम्भ और छल कपट से भरा होता है।

५. मैं ना करूं, तो सब चौपट हो जाएगा- यह भी मनुष्य के अभिमान का ही एक रूप है ,वह समझता है कि बस अमुक कार्य तो मेरे द्वारा  ही होता है ,मैं छोड़ दूंगा तो नष्ट हो जाएगा। मेरे मरने के बाद तो चलेगा ही नहीं। ऐसा विचार  दूसरों के प्रति हीनता  प्रकट करते हैं। उनके मन में द्रोह  उत्पन्न करने वाले होते हैं। संसार में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली पुरुष पैदा हुए हैं, होते हैं ,तुम अपने को बड़ा मानते हो, पर कौन जानता है कि तुम से कहीं अधिक प्रभाव तथा गुण संपन्न संसार में कितने हैं। जिनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। किसी पूर्व जन्म के पुण्य से अथवा भगवत कृपा से किसी कार्य में को सफलता मिल जाती है। तो मनुष्य समझ बैठता है कि सफलता मेरे ही पुरुषार्थ से मिली है ।मेरे ही द्वारा इसकी रक्षा होगी ,मैं जिंदा न रहूंगा तो पता नहीं क्या अनर्थ हो जाएगा। एसा  समझ कर अभिमान से नाच उठता है ।और जहां मनुष्य ने अभिमान के नशे में नाचना आरंभ किया कि चक्कर खाकर गिर गया ।

६. अपने को तो आराम से रहना -है यह इंद्रियां, रामविलासी पुरुषों का उद्गार है ।पैसा पास में चाहे ना हो  ,चाहे आय कम हो, चाहे कर्ज का बोझ सिर पर सवार हो  पर रहना है आराम से ।आज कल चलन है- उच्चस्तर का जीवन (हाई स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग) इसका अर्थ है -स्वाद शौकीनी,  विलासिता ,फिजूलखर्ची और झूठी शान की गुलामी। सादा धोती कुर्ता पहना है तो निम्न स्तर है, कोट पतलून उच्चस्तर है। जूते उतार कर,  हाथ पैर धोकर, फर्श पर बैठकर ,हाथ से खाइए तो निम्नस्तर है ।टेबल पर कपड़ा बिछाकर ,बिना हाथ धोए, जूते पहन कुर्सी पर बैठ कर, सब की जूठन खाना उत्सव है। अपनी हैसियत के अनुसार साधारण साग सब्जी के साथ दाल रोटी खाना निम्नस्तर है, और किसी प्रकार से प्राप्त करके अंडे खाना, शराब पीना ,नॉनवेज खाना ,उच्च है ।घर में कथा कीर्तन करना निम्न स्तर है ।और सिनेमा देखना, होटलों में जाना उच्च हैं। सीधे-साधे व्यापार ,व्यवहार में थोड़ी जीविका उपार्जन करना निम्न है ,और अपनी चमक-दमक तथा छल भरे व्यवहार से दूसरों को ठगकर अधिक पैसा कमाना उच्च है। थोड़े खर्च से घर का ब्याह शादी का काम चलाना है निम्न। और बहुत अधिक खर्च करके आडंबर करना चाहे कर्जो मे घिर जाओ,अपने जीवन भर की जमा -पूंजी खत्म करना हा उच्च स्तर । हमारे यहां उच्च स्तर के जीवन का अर्थ होता है- सादगी ,सदाचार ,त्याग ,पवित्र आचरण, आदर्श चरित्र, साधुवाद और भगवत भक्ति ।इसके स्थान पर आज झूठ, कपट ,छल, विलासिता ,दुराचार ,अनाचार और भोगमय जीवन को उच्चस्तर का जीवन माना जाता है। तो मनुष्य की सच्ची उन्नति कैसे हो सकती है।
इसी प्रकार और भी बहुत से दोष। हैं जो आदत या स्वभाव बने हुए हैं इन सब दोषो से सावधान होकर ,इनका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। लौकिक उन्नति चाहने वाले और मोक्ष की इच्छा वाले दोनों के लिए दोष घातक हैं।

एक मुखी रुद्राक्ष की महिमा और उसके पहनने से लाभ

                             एक मुखी रुद्राक्ष

श्री महादेव जी ,नारद जी से कहते हैं हे मुनिश्रेष्ठ जिस मनुष्य के घर में एक मुखी रुद्राक्ष रहता है ,उसके घर में भलीभांति स्थिर होकर लक्ष्मी जी निवास करती हैं । जो मनुष्य कंठ में अथवा भुजा में एक मुखी रुद्राक्ष को धारण करता है ,उसके दुर्भाग्य का उदय नहीं होता और ना तो उसकी अकाल मृत्यु होती है। अत्यंत कठिनता से प्राप्त होने वाले भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो जाते हैं।  मनुष्य जो भी श्रेष्ठ धर्म तथा कर्म करता है ,वह महान फलदायक होता है ।(महा भागवत पुराण)
रुद्राक्ष का वृक्ष एक सदाबहार वनस्पति है, जिसकी ऊंचाई 50 से 60 फीट तक होती है। रुद्राक्ष के वृक्ष के पत्ते लंबे होते हैं। यह एक कठोर तने वाला वृक्ष होता है। रुद्राक्ष के वृक्ष का फूल सफेद रंग का होता है और इसमें लगने वाला फल शुरू में हरा, पकने पर नीला एवं सूखने पर काला हो जाता है। रुद्राक्ष इसी काले फल की गुठली होता है। इसमें दरार के सदृश दिखने वाली धारियां होती हैं, जिन्हें प्रचलित भाषा में 'रुद्राक्ष का मुख' कहा जाता है। ये धारियां 1 से लेकर 14 तक की संख्या में हो सकती हैं।
आइए जानते हैं कि किस ग्रह की शांति के लिए कौन सा रुद्राक्ष धारण लाभदायक रहता है?
1. सूर्य- एकमुखी
2. चन्द्र- दोमुखी
3. मंगल- तीनमुखी
4. बुध- चारमुखी
5. गुरु- पांचमुखी
6. शुक्र- छहमुखी
7. शनि- सातमुखी
8. राहु- आठमुखी
9. केतु- नौमुखी
रुद्राक्ष धारण करने के लिए श्रावण मास सर्वाधिक उत्तम रहता है। आप श्रावण मास के सोमवार के दिन अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। सर्वप्रथम भगवान भोलेनाथ की यथाशक्ति पूजा-अर्चना करें तत्पश्चात रुद्राक्ष को शिवलिंग पर अर्पण करें। इसके उपरांत रुद्राक्ष को धारण करें।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

हमारा कर्त्वय

                                   कर्तव्य


 अपने कर्तव्य का सावधानी से पालन करना चाहिए। अच्छे विचार रखने चाहिए। मन ,वाणी ,शरीर  को सत्संग में लगाना चाहिए। बुरे विचार ,कुसंग से हमेशा बचना चाहिए ।हम सभी के अंदर सत्य, सच बोलना ,दया, दूसरों को क्षमा करना,आदि का पालन करने से मन ,बुद्धि और शरीर का विकास होता है ।हमेशा बड़ों को प्रणाम और उनकी सेवा से आयु, विद्या ,यश की प्राप्ति होती है। मन में शुद्ध विचारों को रखकर जीवन का प्रथम भाग विद्या के अध्यन मे  बिताना चाहिए। विद्या के पढ़ने के साथ विवेक को उत्पन्न करना चाहिए। क्या उचित है, या अनुचित है ।इसे बुद्धि के द्वारा निर्णय करके ही करम करना चाहिए ।बिना विचारे ,जल्दबाजी में किसी भी काम को करने से बाद  ,में पछताना पड़ता है। इसलिए बिना विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। बड़ों से शिक्षा अध्ययन करना चाहिए ,छोटों को शिक्षा देना चाहिए ।अध्ययन करते समय भी अध्यापन करना चाहिए। ईश्वर ने आपको जिस रूप में भी इस धरती पर भेजा है। चाहे वह महिला ,पुरुष ,मां ,बेटा ,बहन  ,भाई,पिता ,पुत्र, पुत्री जो भी हमें रिश्ते निभाने के लिए भेजा है हमें उस रिश्ते को न्याय पूर्वक सच्चाई के साथ अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निभाना चाहिए। क्योंकि हर रिश्ते का अपना अपना कर्तव्य होता है। जिससे हम भली भांति परिचित होते हैं ।उसका हमें इमानदारी से पालन करना चाहिए।
।। जय श्री राधे ,श्री सीताराम।।

भगवान् का भक्त कोन है?

                       भगवान् का भक्त कौन है?

भगवान् की भक्ति का आरम्भ अपरे घर से ही होता है। घर के बड़े बूढ़े, माता-पिता में श्रद्धा रखना, उनकी सेवा करना, घर के ,परिवार के लोगों से जो निष्काम प्रेम करेगा ।वह भगवान की भक्ति कर सकेगा। संबंधित लोगों से ईर्ष्या, द्वेष रखने वाले भगवान के भक्त नहीं हो सकते। अतः सृष्टि को भगवान की मान करके ,उसे प्रेम करना चाहिए। माया से भरी  हुई   तामसी सृष्टि से दूर रहना चाहिए। जो प्रसन्न रहता है और दूसरों को प्रसन्न करता है। वही भगवान का भक्त है  जिसके व्यवहार से लोगों के मन में अशांति और दुख हो वह भगवान का भक्त नहीं हो सकता। जिससे सभी सुखी रहते हैं वह भगवान का सच्चा भक्त  है। जिससे लोग दुखी रहते हैं, वह  भगवान का भक्त नहीं हो सकता।
दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज( वृंदावन )के श्रीमुख से 

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गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

                    गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र   भावार्थ के साथ गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक ...