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बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

प्रार्थना एक ओंकार का भावार्थ

                सिख प्रार्थना एक ओंकार का भावार्थ-

एक ओंकार सतनाम कर्ता पुरूष निर्भऊ निर्वैर
अकाल मूरत अजूनी   सैभं गुरुप्रसाद जप।
आदि सच, जुगादि सच, है भी सच ,
नानक होसी भी सच। वाहेगुरु।।

परमात्मा एक है।उसका नाम सत्य है, अर्थात वह सदा स्थिर और एक रस है ।सृष्टि का कर्ता है, निर्भय और निवैंर है, उसका स्वरूप काल से परे है, वह समय के चक्र में कभी नहीं आता - मृत्यु, रोग और बुढ़ापा उसके लिए नहीं है ।वह अजन्मा है, स्वयंभू है ,पथ-प्रदर्शक है और कृपा की मूर्ति है ।
हे मनुष्य ! तू उसे जप।

दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है

         दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
                  परहित सरिस धर्म नहीं भाई

कविवर रहीम का प्रसिद्ध दोहा है -
यो रहीम सुख होत है उपकारी के संग 
बाँटन वारे को लगे ज्यो मेहंदी के रंग।।
 दूसरों की भलाई करने वाला उसी प्रकार से सुखी होता है जैसे दूसरों के हाथों पर मेहंदी लगाने वाले की उंगलियों खुद भी मेहंदी के रंग में रंग जाती है। जो इत्र बेचते हैं ,वह खुद उसकी खुशबू से महकती रहते हैं। जिस प्रकार एक फूल बेचने वाले के कपड़ों और बदन से फूलों की सुगंध नहीं जा सकती। उसी प्रकार दूसरों की भलाई करने वाले व्यक्ति का का भी अहित नहीं हो सकता। दूसरों की मदद अथवा परोपकार निःसन्देह  बड़ा महत्व है ।प्रत्यक्ष रुप से ही नहीं, परोक्ष रूप से भी इसका बड़ा महत्व है।
एक बुढ़िया थी ,जो बहुत कमजोर , बीमार थी। रहती भी अकेली थी । उसके कंधों में दर्द रहता था ।लेकिन वह इतनी कमजोर थी कि खुद अपने हाथों से दवा लगाने में भी असमर्थ थी ,कंधों पर दवा लगाने के लिए कभी किसी से विनती करती तो कभी किसी से। एक दिन बुढ़िया ने पास से गुजरने वाले एक युवक से कहा कि बेटा जरा मेरे कंधे पर दवा मल दो  भगवान तेरा भला करेगा । युवक ने कहा कि अम्मा मेरे हाथों की उंगलियों में तो खुद दर्द रहता है ,मैं कैसे तेरे कंधों की मालिश करूँ। बुढ़िया ने कहा कि बेटा दवा मलने की जरूरत नहीं, बस इस डिबिया  में से थोड़ा मलहम अपनी उंगलियों से निकाल कर, मेरे कंधों पर फैला दो। युवक ने अनमने मन से मलहम लेकर 1 हाथ की उंगली से दोनों कंधों पर लगा दिया। दवा लगाते ही बुढ़िया की बेचैनी कम होने लगी और इसके लिए उस युवक को आशीर्वाद देने लगी । बेटा भगवान भी तेरी उंगलियों को जल्दी ठीक कर दे। बुढिया के आशीर्वाद पर युवक अविश्वास से हंस दिया लेकिन साथ ही उसे महसूस किया कि उसकी उंगलियों का दर्द भी गायब होता जा रहा है ।वास्तव में बुढ़िया को मलहम लगाने के बाद युवक की उंगलियों पर कुछ मलहम लगा रह गया था ,उसे दूसरे हाथ के उंगली से पूछने की कोशिश की तो सारी उंगलियों पर भी लग गया, उसका ही कमाल था कि जिससे युवक के दोनों हाथों का दर्द कम होता जा रहा था। अब तो युवक सुबह दोपहर शाम तीनों वक्त अम्मा के कंधे पर मलहम लगा था और उनकी सेवा करता । कुछ ही दिनों में बुढ़िया पूरी तरह से ठीक हो गई और साथ ही युवक के दोनों हाथों की उंगलियों का भी दर्द ठीक हो गया । तभी तो कहा गया है कि जो दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाता है उसके खुद के जख्म को भी भरने में देर नहीं लगती।
इस मुहावरे का अर्थ है कि किसी को सांत्वना देना ,किसी की पीड़ा को कम करना । जरूरी नहीं कि इसके लिए कोई दवाई या मरहम ही लगाया जाए क्योंकि यह पीड़ा भौतिक नहीं, मानसिक भी हो सकती है ।पीड़ा जो भी हो कष्टदायक होती है। यदि कोई किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा से मुक्त करता है ,तो पीड़ित को भी राहत मिलती है, और पीड़ा को कम करने वाला या कष्ट को समाप्त करने वाले के प्रति कृतज्ञता से भर उठता है, और आशीर्वाद या दुआएं देने लगता है । जब कोई उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करता है अथवा उसको धन्यवाद करता है। तो वह एकदम विनम्र होकर परमार्थ के भावों से भर उठता है। उसका मन करता है कि मैं सदैव लोगों के कष्ट दूर करने में लगा रहूं ।दुनिया के सभी लोगों को कष्ट मुक्त हो जाए ,ऐसी भावना मन में रख लेता है ।दूसरों की भलाई के समान कोई दूसरा धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई अधर्म अथवा पाप नहीं है। यही सभी पुराणों वेदों का सार है। विद्वान लोग यह जानते हैं कि मनुष्य का शरीर पाकर जो भी लोग दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं उन्हें महान संसार के महान कष्ट भोगने पड़ते हैं।  इस प्रकार स्वार्थ और अज्ञानता के वश हो कर भी जो अनेकानेक पाप कर्मों में लिप्त रहते हैं उनका परलक भी नष्ट हो जाता है। गोस्वामी जी कहते हैं जिसके मन में परहित तथा दूसरों की भलाई का भाव बना रहता है, उनके लिए संसार की कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो उसे ना मिल सके। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने वाले, सच्चे मन से लोगों की सेवा करने वाले, आध्यात्मिक , भौतिक और  देविक तीनों प्रकार की व्याधियों से मुक्त होकर आनंद पूर्वक जीवन ही जीते हैं, बल्कि वह धर्म का सही पालन करते हैं ,स्वस्थ -प्रसन्न रहते हैं और उनका यही नहीं परलोक भी  सँवर जाता है।



सोमवार, 26 नवंबर 2018

वाक् संयम- वाणी पर नियंत्रण का महत्व

                  वाक् संयम-वाणी पर नियंत्रण का महत्व

जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेद व्यास के मुख से गणेश जी के द्वारा  भुज पत्र पर अंकित हो चुका, तब गणेश जी से महर्षि व्यास ने कहा,' विघ्नेश्वर! धन्य है आपकी लेखनी ।महाभारत का निर्माण तो इसी ने किया है ,पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है, वह है आपका मौन। लंबे समय तक आपका हमारा साथ रहा, इस अवधि में मैंने तो 15 -20 लाख शब्द बोल डाले ,परंतु आप के मुख से  मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।'
 इस पर गणेश जी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा,'किसी दीपक में अधिक तेल होता है किसी में कम । परंतु तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता । उसी प्रकार देव, मानव ,दानव ,सभी देह धारियों की प्राणशक्ति सीमित है ,परंतु असीम किसी की नहीं है ।इस प्राणशक्ति का पूर्ण लाभ वही पा सकता है ,जो संयम से उसका उपयोग करता है । संयम ही समस्त सिद्धियों का आधार है, और संयम का प्रथम सोपान है वाणी का संयम । जो वाणी का संयम नहीं रखता उसकी जिव्हा बोलती रहती है ,बहुत बोलने वाली जिव्हा अनावश्यक बोलती है, और अनावश्यक शब्द प्रायः विग्रह और वैमनस्य पैदा करते हैं अथार्त दूरियां और शत्रुता पैदा करते हैं। जो हमारी प्राणशक्ति को सोख डालते हैं। वाणी के संयम से यह समस्त अनर्थ परंपरा खत्म हो जाती हैं ।इसलिए मैं मौन का उपासक हूं।
(प्रेषक-श्री अरुण जी गुप्ता)

बुधवार, 29 अगस्त 2018

कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

                       कर्म की खोज(कर्म क्या है )


मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
 ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
 कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे  अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते  हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प  बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है-  ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म  होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो  भोगने   पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है ।  कर्म ही प्राणियों के  जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त  सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया  ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।

बुधवार, 22 अगस्त 2018

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए



गले में माला पहनने का जहां आध्यात्मिक महत्व है, वहीं ये धारक के मन, मस्तिष्क, चर्म, अस्थि, रक्त प्रवाह, वात संस्थान और संवेगों को भी प्रभावित करती हैं। रुद्राक्ष की माला इस दृष्टि से सर्वगुण संपन्न मानी गई है। लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, दत्त तथा नवग्रह आदि की साधना में रुद्राक्ष की माला का उपयोग मनोवांछित फल देने वाला है। माला चाहे जैसी भी हो, उसका शुद्ध पूर्ण और वास्तविक होना आवश्यक है। टूटी-फूटी, आधी-अधूरी, अशुद्ध माला प्रभावकारी नहीं होती। जप के प्रभाव को कम या ज्यादा करने में माला एक प्रमुख उपदान है, इसलिए किसी विद्वान के निर्देश पर ही इसका प्रयोग करना चााहिए। माला को गंगाजल अथवा कच्चे दूध से स्नान करवाने के बाद ही उपयोग में लाना चाहिए। शुद्धता किसी भी माला के प्रभावकारी होने की पहली शर्त है। 

हाथी दांत के मनकों से बनी हुई माला से जप करने पर गणेश जी प्रसन्न होते हैं, हालांकि यह माला काफी महंगी और दुर्लभ होती है। कमलगट्टे की माला का प्रयोग शत्रु के नाश और धन प्राप्ति के लिए किया जाता है। संतान प्राप्ति के लिए पुत्र जीवा की अल्प मौली माला फलदायी मानी गई है। पुष्टि कर्म के अंतर्गत सात्विक कार्यों की पूर्ति के लिए चांदी की माला सर्वोत्तम मानी गई है। इसका प्रभाव जप के साथ ही आरंभ हो जाता है।  

जबकि मूंगा (प्रवाल) की माला धारण करने व इसके जप में प्रयोग करने से गणेश और लक्ष्मी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है। धन-संपत्ति, द्रव्य, स्वर्ण आदि की प्राप्ति की कामना मूंगे की माला से पूर्ण हो जाती है। कुश ग्रंथ की माला कुश नामक घास की जड़ को खोद कर बनाई जाती है। इसका जातक अथवा साधक पर जप के दौरान जादुई प्रभाव होता है। सहज उपलब्धता के कारण अक्सर लोग इसे अप्रभावी मानकर हाशिए पर फैंक देते हैं लेकिन अध्यात्म की दुनिया में इसके गुणों का कोई सानी माला नहीं है। कुश ग्रंथी माला समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक पातकों का शमन करती हुई साधक को निष्कलंक, प्रदूषणमुक्त, निर्मल और सतेज बनाती हैं। इसके प्रयोग से तामसिक व्याधियों का विनाश होता है। 

चंदन की माला दो प्रकार की मिलती है- सफेद और लाल चंदन की। श्री राम, विष्णु, कृष्ण आदि देवताओं की स्तुति, पूजन-अर्चन आदि में सफेद चंदन की माला से किया गया जप देखते-देखते धन-धान्य की प्राप्ति करवा देता है। जबकि लाल चंदन की माला गणेश तथा दुर्गा, लक्ष्मी, त्रिपुर सुंदरी आदि देवी स्वरूपों की उपासना में प्रयोग में लाई जाती है।

तुलसी की माला सस्ती है और सर्वत्र उपलब्ध है। इसलिए राम कृष्ण की उपासना में वैष्णव भक्त इसका बड़ी ही श्रद्धापूर्वक प्रयोग करते हैं। आयुर्वैदिक दृष्टि से भी इसे गले में धारण करने का महत्व है। इसे लोग सुरक्षा कवच मानकर भी गले में पहने रहते हैं। 

सोने के मनकों वाली माला जप आदि में तो प्रयोग में कम लाई जाती है लेकिन अनुभव में आया है कि स्वर्ण माला के धारण करने से धन प्राप्ति और पुत्र प्राप्त की कामना शीघ्र पूरी होती है। स्फटिक की माला सौम्य प्रभाव वाली होती है। इसके धारकों पर चंद्रमा और शिव जी की विशेष कृपा होती है। सात्विक और पुष्टि कार्यों के लिए इसके प्रभाव स्वयं सिद्ध हैं। शंखमाला का प्रयोग तांत्रिक विद्याओं की सिद्धि के लिए किया जाता है। शिवजी की पूजा आराधना तथा सात्विक कामनाओं की पूर्ति तथा जप आदि में इसकी लोकप्रियता शिखर पर है। 

वैजयंती की माला विष्णु और कृष्ण के भक्तों को प्रिय है। यह बहुप्रयोजनीय है। भक्त तो भक्त, इसे भगवान भी धारण कर सौभाग्य अर्जित करना चाहते हैं। हल्दी की माला गणेश जी की प्रसन्नता के लिए है। बृहस्पति ग्रह तथा बगलामुखी की साधना हल्दी की माला के बिना अधूरी मानी जाती है।

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं?

           सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं

संसार में मनुष्य को सुख और दुख दोनों ही भोगने पड़ते हैं। परंतु सुख में प्रसन्नता दुख में क्षोभ,  सामान्य लोगों को होता है। धैर्यवान ,सुख दुख दोनों में समान रहते हैं ।यही ईश्वरीय कृपा का अनुभव होना है। अपने कर्तव्य का पालन करने वाला निर्धन मनुष्य श्रेष्ठ है और अपने कर्तव्य का त्याग करना ,अन्याय से धनवान होकर सुखी होना अच्छा नहीं है । इसीलिए शरणागत हो जाओ, शरण सफलता की कुंजी है ,निर्बल का बल है ,साधक का जीवन है, भक्तों का महामंत्र है ,आस्तिक का अचूक अस्त्र है ,दुखी की दवा है, इसलिए जो परमात्मा का सहारा ले लेता है। उसके सुख और दुख एक समान हो जाते हैं ।वे दोनों ही परिस्थिति में कृपा का अनुभव करता है ।दुख हो या सुख दोनों में ही वह अनुभव करता है कि ईश्वर उसे उसके कर्म के हिसाब से  प्रदान कर रहे हैं, इसलिए वह दोनों को सहज ही स्वीकार करता है। इसलिए सुख और दुख केवल वही भोगता है जिसने परमात्मा की शरण नहीं ली है।

(भक्तमाली जी महाराज वृंदावन)

गीता माधुर्य, तीसरा अध्याय( श्रीमद् भागवत गीता का सरल भावार्थ

 गीता माधुर्य,( तीसरा अध्याय) श्रीमद्भागवत का सरल भावार्थ

अर्जुन बोले- श्री जनार्दन !आपके अनुसार जब ज्ञान, बुद्धि श्रेष्ठ है, तो फिर है केशव! आप मुझे हर करम में क्यों लगाते हैं तथा आप कभी कहते हैं, कर्म करो और कभी कहते ज्ञान का आश्रय लो, आपकी इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है ।इसलिए एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ।।१-२
भगवान बोले -हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, उनमें सांख्य  योगियों की निष्ठा ,ज्ञान योग से, और योगियों की निष्ठा कर्म योग  से होती है ।तथा ज्ञान योग और कर्म योग से एक ही सम बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
उस  समता की प्राप्ति के लिए क्या कर्म करना जरूरी है?
 हां जरूरी है; क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि वह समता की प्राप्ति कर्मों का आरंभ किए बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती ।
कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती ?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता , क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव की परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं ,तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।
 अगर मनुष्य चुपचाप बैठे रहे ,कुछ भी करें नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
 नहीं ,जो मनुष्य चुपचाप बैठ कर और इंद्रियों को केवल बाहर से रोक कर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है , उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ ,बल्कि उस मूढ बुद्धि  वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है। आपने जो समबुद्धि बताई उसकी प्राप्ति ना तो कर्मों के किए बिना होती है, ना कर्मों के त्याग से होती है और ना बाहर से चुपचाप बैठ कर मन से विषयों का चिंतन करने  से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है? 
हे अर्जुन !जो मनुष्य मन से इंद्रियों का नियमन करके आसक्ति रहित होकर इंद्रियों के द्वारा कर्म योग (निष्काम भाव पूर्वक अपने कर्तव्य कर्मो)- का आचरण करता है वा श्रेष्ठ है अथार्त उसको समबुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा उपयुक्त विधि से कर्तव्य कर्म करना श्रेष्ठ है, और तो क्या ,बिना कर्म किए तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
 कर्मों को करने से बंधन तो नहीं होगा, भगवन्!
 नहीं ,यज्ञ (कर्तव्य कर्म )को केवल अपने लिए करने से ही मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए है कुंती नंदन !तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर।
 मैं कर्म करूं ही क्यों ?
सर्ग के आरंभ में पिता ब्रह्मा जी ने भी यज्ञ (कर्तव्य कर्मों के )सहित मनुष्य की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्य कर्म यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
 यह यज्ञ हम किस भाव से करें पितामह?
 इसके द्वारा तुम लोग देवताओं के द्वारा की वृद्धि ( उन्नति )करो और वे देवता लोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक दूसरे की वृद्धि करने से अथार्त अपने लिए कर्म न करके  केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करने से तुम लोग परमेश्वर यानी कि परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे।
 पितामह !अगर हम यज्ञ ना करें तो?
 तुम्हारे कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्य पालन के लिये  आवश्यक सामग्री देते रहेंगे  परंतु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि ना करके स्वंय ही सुख  आराम  भागोगे, तो तुम चोर बन जाओगे।
 इस दोष से कैसे बचा जाए भगवन्? 
केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में सुमता का अनुभव होता है  उस समता का अनुभव  करने वाले संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो केवल अपने सुख आराम के लिए ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते  हैं।
 भगवन्! अभी आपने कर्तव्य कर्म के विषय में ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनाई, कर्तव्य कर्म के विषय में आपका क्या कहना है? 
इसमें मेरा यही कहना है कि इस सृष्टि -चक्र के संचालन के लिए भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा कर्तव्य पालन से होती है और यज्ञ निष्काम भाव से किए गए कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिए परमात्मा यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं। उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्य का पालन करने से ही होती है ।अतः इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन ना करें तो?
 तो हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए कर्तव्य कर्म नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। 
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करें तो ?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला ,अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में ना तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है  तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूं  भगवन?
 हां, बन सकता है। तू निरंतर आसक्ति रहित होकर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन कर ,क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
 पहले आसक्ति रहित होकर क्या किसी ने कर्म किए हैं और क्या उनको परमात्मा की प्राप्ति हुई है?
 हां, राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष कर्तव्य कर्म करके ही परमात्मा को प्राप्त हुए हैं ।परमात्मा को प्राप्त होने पर भी उन्होंने लोकसंग्रह( दुनिया को कुमार्ग से बचा कर सनमार्ग पर लाने के लिए कर्म किए हैं) इसलिए तू भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर।
वह लोकसंग्रह कैसे होता है?
  दो प्रकार से होता है -अपनी कर्तव्य परायणता से और अपने वचनों से श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने वचनों से भी कुछ प्रमाणित करता है दूसरे मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।
जैसे आपने परमात्मा प्राप्ति के विषय में जनक आदि का उदाहरण दिया ऐसे ही लोकसंग्रह के विषय में क्या कोई उदाहरण है?
 हां ,मेरा ही उदाहरण लो पार्थ! मेरे लिए त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं है और प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है ।फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिए  कर्तव्यकर्म  करता हूं। आपके लिए कर्तव्य कर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
 हां, बहुत जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म ना करूं तो ,मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अथार्त वह भी कर्तव्य कर्म करना छोड़ देंगे ।इससे क्या होगा भगवन्?
 अगर मैं कर्तवय क्रम ना करूँ तो अपना- अपना कर्तव्य कर्म ना करने से ,यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं सब तरह के संकट दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूंगा ।
शेष कल -जय श्री कृष्णा

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