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रविवार, 24 नवंबर 2019

गुरु गीता से लाभ

                            गुरु गीता से लाभ  

जब हम गुरु गीता का पाठ करते हैं तो बस हम उसे पढ़ ही नहीं रहे होते बल्कि हम अपने अंतर में श्री गुरु की पूजा कर रहे होते हैं। गुरु गीता, गुरु की चैतन्य मंत्र- देह है। गुरु गीता के प्रत्येक अक्षर में श्री गुरु का वास है। हम गुरु पूजा ही कर रहे होते हैं।
 स्वामी मुक्तानंद

स्वंय शास्त्रों का व ग्रंथों का अध्ययन करने से क्या लाभ होता है?

              स्वाध्याय का अर्थ श्री गुरु के शब्दों में

जब तुम शास्त्रों का पाठ करते हो या सिद्ध जनों द्वारा रचित ग्रंथ पढ़ते हो  , तो तुम सकारात्मक ऊर्जा का एक भंडार बना लेते हो । तुम एक अत्यंत उत्थान कारी वातावरण का निर्माण कर लेते हो । तुम अपने अस्तित्व की समस्त कोशिकाओं को शुद्ध कर लेते हो। पवित्र ग्रंथों का नित्य पाठ करना, पवित्र नदियों में स्नान करने जैसा है। यह मन को तरोताजा करता है, वाणी को निर्मल कर देता है और तुम्हें शक्ति से भर देता है।    - गुरुमाई चिद्विलासानंद

सोमवार, 18 नवंबर 2019

मंत्रधुन का महत्व

                                 मंत्रधुन


जब तुम बहुत समय तक निरंतर मंत्र धुन गाते हो तो तुम मंत्र की अग्नि को उत्पन्न कर रहे हो, जो तुम्हारी संपूर्ण सत्ता में फैल जाती है।
 - गुरुमाई चिद्विलासान्नद
इसलिए जब कभी कुछ विपदा हो, कुछ संकट हो, मन निराश हो ,चारों ओर निराशा ही निराशा नजर आ रही हो। तो जो भी मंत्र आपको पसंद है ।जिस मंत्र से भी आपके मन को शांति मिलती है। उस मंत्र को आप जरूर सुनिए, घर में ऑडियो क्लिप के द्वारा या वीडियो के द्वारा घर में चला दीजिए। जब आपके घर में वह मंत्र प्रतिदिन चलता रहेगा ,तो आप महसूस करेंगे ,धीरे-धीरे आपके मन में और आपके घर में और आपके जीवन में शांति आ रही है। एक बार करके जरुर देखिएगा। मंत्र जब घर में चलता है ,तो आपके दिमाग में जो नकारात्मक सोच होती है, और जो आपके जीवन में, आपके विचार में नकारात्मक सोच होती है। वह धीरे-धीरे खत्म हो जाती है और आपके अंदर विश्वास पैदा हो जाता है और यही विश्वास आपको हर संकट में लड़ने की शक्ति प्रदान करता है।
राम राम

रविवार, 17 नवंबर 2019

मनन के लिए श्री गुरु के शब्द

                       मनन के लिए श्री गुरु के शब्द

सेवा का अर्थ है ,बिना किसी अपेक्षा या शर्त के अपना समय और अपनी शक्ति अर्पित करना और इस तरह से,
पूर्ण स्वतंत्रता के साथ काम कर पाना।
सेवा का अर्थ है ,उच्चतम उद्देश्य के लिए कार्य करना,
दूसरे मनुष्य की योग्यता को पहचानते हुए कार्य करना और जीवन के मूल्यों को ध्यान में रखना।
सेवा का अर्थ है ,कार्य को ऐसे करना जैसे पूजा का एक रूप हो ,भगवान की महिमा गाने का
एक तरीका हो, परमोच्च प्रेम के लिए किया गया एक अर्पण हो ।
गुरु माई चिद्विलासानन्द

बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

        श्री राधा माधव के यवन भक्त श्री सनम साहब

भक्त  श्री सनम साहब जी का पूरा नाम था- मोहम्मद याकूब साहब। आपका जन्म सन् 1883 ईस्वी के लगभग अलवर में हुआ था। इनके पिता अजमेर के सरकारी अस्पताल के प्रधान चिकित्सक थे। इनकी मां एक पठान की पुत्री थी, फिर भी पूर्व जन्म के संस्कार वश उन्हें गोस्वामी श्री तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस पढ़ने और गाने का शौक था। श्री राम जी की कृपा से उन्हें श्री रामचरितमानस के मूल ग्रंथ वाल्मीकि रामायण को पढ़ने की इच्छा हुई। किंतु पर्दे में रहने के कारण बाहर जाना नहीं हो सका। तो उन्होंने एक पंडित जी को घर बुलवाकर रामायण सुनने की इच्छा व्यक्त की। किंतु उसमें भी सफलता नहीं मिली । तब मां ने कहा- 'बेटे ,तुम संस्कृत पढ़ लो ।"पर कोई पंडित गोमांस तथा प्याज खाने वाले मुसलमान को संस्कृत पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। माता पुत्र  ने निश्चय पूर्वक मांस आदि का त्याग कर दिया। फिर मां के कहने पर सनम साहब ने पंडित गंगा सहाय शर्मा से सारी बात बताई और उनकी अनुमति मिलने पर पंडित जी से संस्कृत पढी। भागवत आदि ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात उनका चित्त श्री राधा माधव के प्रति आकृष्ट हो गया और उन्होंने अपने सुहृद्
भगवानदास भार्गव के माध्यम से ब्रिज के एक संत श्री सरस माधुरी- शरणजी से युगल मंत्र की दीक्षा प्राप्त की ।यद्यपि दीक्षा के उपरांत इनका नाम 'श्यामाशरण' हुआ फिर भी गुरुदेव इन्हें  स्नेहवश सनम कहते थे। सनम साहब के भगवत अनुराग तथा वैष्णवोचित वेश में क्रुद्ध धर्मांध मुसलमानों ने इनका भाँति-भाँति से अवकार किया। किंतु सर्वत्र यह भगवत कृपा से रक्षित होते रहे। इन्होंने श्री निकुंज लीलाओं के माधुरी से ओतप्रोत बहुत से पदों की रचना की तथा राधासुधानिधि एंव मधुराष्टकं का अंग्रेजी में अनुवाद किया। सरस सद्गुरुविलास आदि इनके स्व प्रणीत ग्रंथ है। इन्होंने हिंदी, बृज भाषा तथा अंग्रेजी में ग्रंथों का वर्णन किया है ।प्रसिद्ध कृष्ण भक्त अंग्रेज रोनाल्ड निक्सनने कृष्ण प्रेम की स्फूर्ति इन्हीं से प्राप्त की थी। श्री मालवीय जैसे प्रख्यात महापुरुषों के साथ सनम साहब का अति सोहार्दपूर्ण संबंध था इन्होंने अलवर में श्री कृष्ण लाइब्रेरी की स्थापना की। जिसमें लगभग 1200 कृष्ण भक्ति परक ग्रंथ संगृहीत है ।यह राधा अष्टमी आदि के अवसर पर उल्लास पूर्वक महोत्सव का आयोजन करते थे ।सनम साहब के भक्तिप्रवण चित्त में समय-समय पर राधा माधव की निकुंज लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती थी। उन्हें दो बार राधा माधव का प्रत्यक्ष दर्शन भी हुआ था ।वे चाहते थे कि राधा माधव के श्री चरणों में ही उनका देहपात हो, वैसा हुआ भी,सन् 1945 में शरद पूर्णिमा के दिन उनकी इच्छा पूर्ण हुई। वृंदावन में एक स्थान पर रासलीला में सखियां गा रही थी- अनुपम माधुरी जोड़ी हमारे श्याम श्यामा की।
रसीली मद भरी अखियां हमारे श्याम श्यामा की।।
 कतीली भोंह अदा बाकी सुघर सूरत मधुर बतियां।
 लटक गर्दन की अनबँसिया हमारे श्याम श्यामा की।
*            *            *           *
 नहीं कुछ लालसा धन की, नहीं निर्वान की इच्छा ।
सखी श्यामा मिले सेवा हमारे श्याम श्यामा की।।
 उन्हीं सखियों के साथ स्वर मिलाकर गाते गाते सनम साहब ने श्याम श्यामा के श्री चरणों में सदा के लिए माथा टेक दिया। विस्मित अवाक् दर्शकों ने इनके भक्तिभाव एंव सौभाग्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और प्रेमाश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम विदा दी ।
।।जय श्री राधे ,जय श्री श्याम, जय श्री कृष्णा।।

श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

                   श्री कृष्ण दीवाने रसखान जी

 हमारे बांके बिहारी कोई -ना -कोई  अहेतु की लीला करते ही रहते हैं। उनकी माया का कोई पार नहीं पा सकता, ना जाने कब किस पर रीझ जायँ, ना जाने कब किस जीव पर कृपा हो जाए। बुलाने पर तो वह कभी आते नहीं ,चाहे सिर पटक पटक कर मर जाए। ना तप से मिलते हैं, ना जप से, न ध्यान से ।यदि इन्हें इस प्रकार मिलना हो तो योगी, यति, ऋषि, ध्यान करते रहते हैं, परंतु यह उनकी ओर देखते तक नहीं। जब कृपा करते हैं, तो अचानक करते हैं।
 कृष्ण के दीवाने रसखान जी एक मुसलमान थे। एक बार की घटना है  वे अपने उस्ताद के साथ मक्का मदीना जा रहे थे। उनके उस्ताद ने कहा- देखो, रास्ते में हिंदुओं का तीर्थ वृंदावन आएगा ,वहां एक काला नाग रहता है। तू आगे- पीछे मत देखना ,नहीं तो वह तुझे डस लेगा, तू मेरे पीछे-पीछे चला आ।अपने दाएं- बाएं भी मत देखना, वरना जब मौका दिखेगा तुझेडँस लेगा।  बस रसखान जी के मन में एक उत्कंठा सी जाग गई ,क्या मुझे वहां काला नाग दिखाई देगा। वह यही सोचते जा रहे थे उनके लो लग गई, हमारी श्री बांके बिहारी से। फिर क्या था जैसे ही आप वृंदावन आए ,उस्ताद ने पुणः कहाँ, रसखान अब सावधानी से चलना यह हिंदुओं का तीर्थ है, यही वह काला नाग रहता है। उस्ताद का इतना कहना था कि हमारी लीलाधारी ने अपनी लीला आरंभ कर दी। कभी दाएं, कभी बाएं, मीठी मीठी बांसुरी का धुन बजाने शुरू कर दी ।दूसरी और नूपुर की मधुर झंकार होने लगी -सुनकर बेचारे रसखान जी मुक्त हो गए। दोनों और मधुर तान तथा झंकार सुनकर बौरा से गए, उनसे दाएं बाएं देखे बिना न रहा गया ।अंत में जब यमुना किनारे पहुंचे तो एक और देख ही तो लिया। वहां प्रिया जी के साथ श्री बांके बिहारी जी की सुंदर छवि के दर्शन किये और वह मोहित हो गए।भूल गए अपने उस्ताद को और निहारते ही रहे उस प्यारी छवि को। अपनी सुध बुध खो बैठे, अपना ध्यान ही ना रहा कि मैं कहां हूं, वही ब्रज में लोटपोट हो गए। उनके मुख से झाग निकल रहा था, वह तो ढूंढ रहे थे उस मनोहर छवि को, पर अब तक तो प्रभु जी  अंतर्ध्यान हो चुके थे ।
थोड़ी दूर जाकर उस्ताद जी ने पीछे मुड़कर देखा, रसखान दिखाई नहीं दिए। वापस आए ,रसखान की दशा देखकर समझ गए इसे वही काला नाग डस गया, अभी हमारे मतलब का नहीं रहा ।उस्ताद आगे बढ़ गए। होश आया तो वह प्यारी मनमोहक छवि ढूंढ रहे थे अपने चारों ओर सबसे पूछा सांवरा सलोना मूर्ति वाला अपनी बेगम के साथ कहां रहता है? कोई तो बता दो किसी ने बिहारी जी के मंदिर का पता बता दिया। वहां गए किसी ने अंदर जाने नहीं दिया। 3 दिन तक भूखे प्यासे वहीं पड़े रहे। तीसरे दिन बिहारी जी अपना प्रिय दूध- भात, चांदी के कटोरे में लेकर आए और अपने हाथ से खिलाया। प्रातःकाल लोगों ने देखा कटोरा पास में पड़ा है। रसखान जी के मुख पर दूध भात लगा हुआ है।  कटोरे पर बिहारी जी लिखा है। रसखान जी को उठाया, लोग उनके चरणों की रज़, माथे पर लगाने लगे। गली-गली गाते फिरते -बंसी बजा के, सूरत दिखा कर, क्यों कर लिया किनारा.... आज भी रसखान जी की मजार पर बहुत से लोग जाकर उनके दिव्य कृष्ण प्रेम की याद करते हैं।[ श्रीमती भगवती जी गोयल]

गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

अधिक चंचलता उचित नहीं है।

                     अधिक चंचलता उचित नहीं है

 प्राचीन काल की बात है सूर्यवंश  में शर्याती नाम के एक राजा थे ।उनके नगर के समीप ही मानसरोवर के समान एक सरोवर था । महर्षि भृगु का चयव्न  नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा, वह मुनि कुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर विरासन में बैठे रहा, धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर तृण और लताओं से ढक गया ।उस पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। ऋषि बांबी के रूप में दिखाई देने लगे ,वे चारों ओर से केवल मिट्टी का पिंड जान पड़ते थे। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आए उनकी 4 सहस्त्र सुंदर रानियां और एक सुंदर कन्या थी, उसका नाम सुकन्या था ।वह दिव्य गुणों से विभूषित कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरती   हुई उस चय्वन ऋषि के बांबी के पास पहुंच गई ,उसने उस बांबी के छिद्र में से चमकती हुई आंखों को देखा ,इससे उसे बड़ा कोतूहल हुआ, फिर बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसने उन्हें कांटों से छेद दिया। इस प्रकार आंखें फूट जाने पर ऋषि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने शरियाती की सेना के मल मूत्र बंद कर दिए । मल मूत्र रुक जाने से सेना को बड़ा कष्ट हुआ। यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां निरंतर तपस्या में रत रहते हैं, उनका जाने किसने अपराध किया है। जिससे भी ऐसा हुआ हो वह बिना विलंब के तुरंत बता दे। राजा के ऐसा पूछने पर दुख से व्याकुल सेना ने कहा हम लोगों के द्वारा मन वाणी क्रम से मुनि का कुछ भी अपकार हुआ हो- इसे हम लोग नहीं जानते। जब सुकन्या को यह सब बात मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती  एक बांबी के पास गई थी उसमें मुझे चमकता हुआ जीव दिखाई दिया था उसे मैंने बींध दिया। यह सुनकर शरियाती तुरंत उस बांबी के पास गए वहां उन्होंने  तपोवृद्ध और वयोवृद्ध चय्वन मुनि को देखा ,उन्होंने उनसे हाथ जोड़कर सेना को क्लेश मुक्त करने की प्रार्थना की और कहा कि भगवान अज्ञानवश इस बालिका से जो अपराध बन गया है उसे क्षमा करने की कृपा करें ।तब  भृगुनन्दन चय्वन ने राजा से कहा इस गवीली छोकरी ने अपमान करने के लिए ही मेरी आंख फोड़ी है अब मैं इसे पत्नी रुप में पाकर ही क्षमा कर सकता हूं ।अंधा हो जाने के कारण में असहाय हो गया हूं। इसे ही मेरी सेवा करनी होगी ।यह बात सुनकर राजा ने  बिना कोई विचार किए महात्मा चय्वन को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर प्रसन्न हो गए और उनकी कृपा से मुक्त हो राजा अपने नगर में लौट आए और राजकुमारी अपने पत्नि के नियमों का पालन करती हुई अपनी पति की सेवा करने लगी। इस प्रकार अपनी चंचलता के कारण सुकन्या को वन में निवास करना पड़ा और वृद्ध ऋषि से विवाह करना पड़ा ।अधिक चंचलता और बिना विचारी किया गया अविवेक पूर्ण कार्य दुखदाई होता है।

 (महाभारत वन- पर्व श्रीमद् देवी भागवत-सप्तम स्कन्ध)

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