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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

गीता के छठे अध्याय का सरल तात्पर्य

           गीता के छठे अध्याय का सरल तात्पर्य

किसी भी साधन से अन्त:करण मे समता आनी चाहिए;क्योंकि समता के बिना मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में,मान अपमान में सम (निर्विकार) नही रह सकता और अगर वह परमात्मा का ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि अंतःकरण में समता आए बिना सुख-दुख आदि द्वन्द्वो का असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यान में नहीं लगेगा। जो मनुष्य प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में वर्तमान में किए जाने वाले कर्मों की पूर्ति आपूर्ति में सिद्ध असिद्धि में, दूसरों के द्वारा किए गए मान अपमान में, धन संपत्ति आदि में, अच्छे बुरे मनुष्यों में सम रहता है, वह श्रेष्ठ है। जो साध्य रूप में समता का उद्देश्य रखकर मन इंद्रियों के संयम पूर्वक परमात्मा का ध्यान करता है, उसके संपूर्ण प्राणियों में और उनके सुख-दुख में समबुद्धि हो जाती है। समता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला मनुष्य वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है। समता वाला मनुष्य से सकाम भाव वाले तपस्वी ज्ञानी और कर्मी मनुष्य से श्रेष्ठ है।

गीता के छठे अध्याय में, भगवान कृष्ण ने ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति के मार्ग को समझाया। इस अध्याय में आत्मा की अविनाशिता, मानव जीवन की सार्थकता, और ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूप की चर्चा है। भगवान ने अर्जुन को संसार के मोह और अज्ञान से मुक्ति के लिए ज्ञान का प्रयास करने का प्रेरणा दिया है। छठे अध्याय में जीवन के उद्देश्य को समझाने और आत्मज्ञान की महत्वपूर्णता को बताने का प्रयास किया गया है।

गीता के पांचवे अध्याय का सरल तात्पर्य

                    गीता के पांचवे अध्याय का तात्पर्य


मनुष्य को अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में सुखी दु:खी,राजी नाराज नहीं होना चाहिए;क्योंकि इन सुख दुःख आदि द्वंदो में फंसा हुआ मनुष्य संसार से ऊंचा नही उठ सकता।

स्त्री पुत्र,परिवार,धन–संपत्ति का केवल स्वरूप से त्याग करने वाला ही सन्यासी नही है अपितु जो अपने कर्तव्य का पालन करते हुए राग द्वेष नहीं करता,वही सच्चा सन्यासी है।जो अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नही होता और प्रतिकूल परिस्थितियों में उदास नही होता,ऐसा वह द्वंदो से रहित मनुष्य परमात्मा में ही स्थित रहता है।सांसारिक सुख दुःख,अनुकूलता प्रतिकूलता आदि द्वंद दुखो के ही कारण है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को उनमें नही फसना चाहिए।

गीता के पांचवें अध्याय में, भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग और संन्यास के सिद्धांतों का बोध कराया। इसमें जीवन के उद्देश्य, कर्तव्य, और भक्ति के महत्व पर चर्चा है। अर्जुन को स्वधर्म में कर्म करने की महत्वपूर्णता को समझाते हुए, उन्होंने यह भी बताया कि भगवान के प्रति भक्ति और समर्पण से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। यह अध्याय जीवन को सार्थक बनाने के लिए सही मार्ग और सही दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण उपदेशों से भरा है।

सोमवार, 1 जनवरी 2024

चौथा अध्याय का सरल अर्थ

                  चौथा अध्याय का सरल अर्थ


सम्पूर्ण कर्मों के लीन करने के , संपूर्ण कर्मों के बंधन से रहित होने के दो उपाय हैं– कर्मों के तत्वों को जानना और तत्व ज्ञान को प्राप्त करना।

 भगवान सृष्टि की रचना तो करते हैं, पर उस कर्म में और उसके फल में कर्तव्य अभिमान एवं आसक्ति ना होने से बंधते  नहीं। कर्म करते हुए जो मनुष्य कर्म फल की आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रखते अर्थात कर्म फल से सर्वप्रथम निर्लिप्त रहते हैं और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करते हैं। वह संपूर्ण कर्मों को काट देते हैं। जिसके संपूर्ण कर्म संकल्प और कामना से रहित होते हैं, उसके संपूर्ण कर्म जल जाते हैं। जो कर्म और कर्म फल की आसक्ति नहीं रखता वह कर्मों में सांगोपांग प्रवृत होता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता। जो केवल शरीर निर्वाह के लिए ही कर्म करता है तथा जो कर्मों की सिद्धि, असिद्धि में सम रहता है, वह कर्म करके भी नहीं बंधता। जो केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्म करता है उसके संपूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं। इस तरह कर्मों के तत्वों को ठीक तरह से जानने से मनुष्य कर्म बंधन से रहित हो जाता है।

 जड़ता से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाना ही तत्व ज्ञान है । यह तत्व ज्ञान पदार्थ से होने वाले यज्ञों से श्रेष्ठ है। इस तत्वज्ञान में संपूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं। तत्व ज्ञान के प्राप्त होने पर भी कभी मोह नहीं होता।पापी से पापी मनुष्य ज्ञान से संपूर्ण पापों को हर ले जाता है। जैसे अग्नि संपूर्ण इर्धन को जला देती है, ऐसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।

 भगवान ने साधना के माध्यम से मन की शुद्धि, अंतरंग सामर्थ्य, और भगवान के प्रति भक्ति की भूमि को स्पष्ट किया है। यह अध्याय जीवन को सार्थक बनाने और आत्मा को समझाने के मार्ग की महत्वपूर्ण बातें साझा करता है।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

गीता के तीसरे अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के तीसरे अध्याय का सरल तात्पर्य


इस मनुष्य लोक में सभी को निष्काम पूर्वक अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान का अवतार ही क्यों ना हो। कारण की सृष्टि चक्र अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से ही चलता है। मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना सिद्धि को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को प्राप्त होता है। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना के समय प्रजा से कहा कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा एक दूसरे की सहायता करो, एक दूसरे को उन्नत करो, तो तुम लोग परम श्रेय को प्राप्त हो जाओगे। जो सृष्टि चक्र की मर्यादा के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता उसका इस संसार में जीना व्यर्थ है। यद्यपि मनुष्य रूप में अवतरित भगवान के लिए इस त्रिलोकी में कोई कर्तव्य नहीं है फिर भी वे लोग संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करते हैं। ज्ञानी महापुरुष को भी लोक संग्रह के लिए अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करना चाहिए। अपने कर्तव्य का निष्काम भाव पूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाए तो भी उसका कल्याण है।

तीसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि सब कर्म गुणों द्वारा होते हैं और व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करना चाहिए। कर्मों में आसक्ति नहीं रखना चाहिए, लेकिन सब कर्मों को निष्काम भाव से भगवान के लिए करना चाहिए। यहाँ संन्यास और कर्मयोग का समन्वय किया गया है, जिससे व्यक्ति अपने साधन में उच्चता प्राप्त कर सकता है। इस अध्याय ने जीवन को सबसे उच्च लक्ष्य की ओर मोड़ने के लिए एक सार्थक मार्ग प्रदान किया है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को धार्मिक और आदर्शपूर्ण तरीके से समझ सकता है।

 प्रश्न– कोई भी मनुष्य हरदम कर्म नहीं करता और नींद लेने स्वास लेने, आंखों को खोलना, मीचने आदि को भी वह ’मैं करता हूं’ ऐसा नहीं मानता, तो फिर तीसरे  अध्याय की पांचवी श्लोक में  यह कैसे कहा गया है कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नही रहता?

उत्तर– जब तक स्वय प्रकृति के साथ अपना संबंध मानता है तब तक वह कोई क्रिया करें अथवा ना करें, उसमें क्रियाशीलता रहती ही है। वह क्रिया दो प्रकार की होती है क्रिया को करना और क्रिया का होना। यह दोनों विभाग प्रकृति के संबंध से ही होते हैं, परंतु जब प्रकृति का संबंध नहीं रहता तब करना और होना नहीं रहते, प्रत्यूत ’है ’ही रहता है। करने में कर्ता, होने में क्रिया और ’है’ में तत्व रहता है। वास्तव में कर्तव्य रहने पर भी ह’ रहता है और क्रिया रहने पर भी ‘है’ रहता है अर्थात कर्ता और क्रिया तो है का अभाव नहीं होता। 

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

गीता के दूसरे अध्याय का अर्थ

                         गीता के दूसरे अध्याय का अर्थ


अपने विवेक को महत्व देना और अपने कर्तव्य का पालन करना– इन दोनों उपाय में से किसी भी एक उपाय को मनुष्य दृढ़ता से काम में ले तो शौक चिंता मिट जाते हैं। जितने शरीर दिखते हैं, वह सभी नष्ट होने वाले हैं, मरने वाले है,पर उनमें रहने वाला कभी मरता नही है। जैसे शरीर बाल्यावस्था को छोड़कर युवावस्था को और युवावस्था को छोड़कर वृद्धावस्था को धारण कर लेता है ऐसे ही शरीर में रहने वाला एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण कर लेता है। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्र को छोड़कर नए वस्त्र को पहन लेता है। ऐसे ही शरीर में रहने वाला शरीर रूपी एक चोले को छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है। जितनी अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों आती है वह पहले नहीं थी और पीछे भी नहीं रहेगी और बीच में भी उन में प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। तात्पर्य यह है कि वे परिस्थितियों आने जाने वाली है सदा रहने वाली नहीं है। इस प्रकाश स्पष्ट विवेक हो जाए तो हलचल, शोक, चिंता नहीं रह सकती। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार जो कर्तव्य कर्म प्राप्त हो जाए उनका पालन कार्य की पूर्ति, आपूर्ति और फल की प्राप्ति और अप्राप्ति  में सम रहकर किया जाए तो भी हलचल नहीं रह सकती।

दूसरे अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि सब कुछ ईश्वर की दृष्टि से हो रहा है और सभी जीव ईश्वर के अंश हैं। यहाँ जीवन के कार्यों को निर्दिष्ट फलों के लिए नहीं करना चाहिए, बल्कि कर्मों को निष्काम भाव से करना चाहिए। इससे मन शांत रहता है और कर्मयोगी व्यक्ति सुख और दुःख में समान रहता है। अध्याय ने जीवन के मार्गदर्शन के लिए एक सार्थक दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को सही दृष्टिकोण से समझ सकता है और अच्छे निर्णय ले सकता है।

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

गीता दर्पण गीता के प्रत्येक अध्याय का सरल अर्थ

          गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य

         गीता का पहले अध्याय का अर्थ 


        
   

                                 पहला अध्याय


जिन्होंने अपने प्रिय भक्त अर्जुन के कल्याण के लिए अत्यंत गोपनीय अपना गीता नमक हृदय प्रकट किया है तथा जिन्होंने ’मनुष्य जिस किसी परिस्थिति में स्थित रहता हुआ ही अपना कल्याण कर सकता है’ यह नहीं कला बताई है, उन भगवान श्री कृष्ण के लिए नमस्कार है।

 जो लोग अपने सिद्धांत को गीता में घटाना चाहते हैं, वे इस गीता को देखते हैं तो उन्हें अपना पक्षरूप मुख दिखाने के लिए गीता स्वयं दर्पण है, परंतु जो मनुष्य पक्षपात और आग्रह से रहित होकर गीता के मत को जानना चाहते हैं उनके लिए मैंने यह अद्भुत गीता दर्पण लिखा है।

मोह के कारण ही मनुष्य मैं क्या करूं और क्या नहीं करूं, इस दुविधा में फंसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है अगर वह मोह के वशीभूत ना हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता।

भगवान, धर्म,परलोक आदि पर श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों के भीतर अधिकतर  इन बातों को लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्य रूप से प्राप्त कम को नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जाएगा। अगर हम केवल सांसारिक कार्य में ही लग जाएंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी। व्यवहार में लगने से, परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थ में लगने से व्यवहार ठीक नहीं होगा। अगर हम कुटुंब को छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुंब में बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी आदि आदि। तात्पर्य यह है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं पर मोह, सुखासक्ति के कारण संसार छूटता नहीं है। इसी तरह की हलचल अर्जुन के मन मे भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूंगा तो कुल का नाश होने से मेरी कल्याण में बाधा लगेगी और अगर मैं युद्ध नहीं करूंगा तो कर्तव्य से परे हो जाने के कारण  मेरे कल्याण में बाधा लगेगी।

यह गीता दर्पण से ली गई है।😊🙏


गीता दर्पण(श्रीमद् भागवत गीता का सरल रूप


गीता दर्पण(श्रीमद् भागवत गीता का सरल रूप



भगवान की दिव्य वाणी श्रीमद् भागवत गीता के भाव बहुत ही गंभीर और अनायास कल्याण करने वाले हैं। उनका मनन करने से साधक के हृदय में नए-नए विलक्षण भाव प्रकट होते हैं। समुद्र में मिलने वाले रतन का तो अंत आ सकता है, पर गीता में मिलने वाले मनो मुग्धकारी  भाव रूपी रतन का कभी अंत नहीं आता। गीता के भावों को भलीभांति समझने से गीता के वक्ता( भगवान श्रोता (अर्जुन) का, गीता का और अपने स्वरूप का ठीक ठीक बोध हो जाता है। बोध होने पर मनुष्य कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य(जो जानना चाहते हो जान जाते हो),और  प्राप्तप्राप्तव्य(जो पाना चाहते हो पा जाते हो)  हो जाता है। उसके लिए कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। उसका मनुष्य जन्म सर्वथा सफल हो जाता है।
जैसे भक्त जिस भाव से भगवान का भजन करता है, भगवान भी उसी भाव से उसका भजन करते हैं। ऐसे ही मनुष्य जिस मान्यता को लेकर गीता को देखता है, गीता भी इस मान्यता के अनुसार उसको देखने लग जाती है। जैसे मनुष्य दर्पण के सामने जैसा मुख बनाकर जाता है उसको वैसा ही मुख दर्पण में दिखने लग जाता है। ऐसे ही भगवान की वाणी गीता इतनी विलक्षण है कि इसके सामने मनुष्य जैसा सिद्धांत बनाकर जाता है उसको वैसा ही सिद्धांत गीता में दिखने लग जाता है। इस प्रकार गीता रूपी दर्पण में कर्म योगियो को क्रम शास्त्र, ज्ञान योगियो को ज्ञान शास्त्र और भक्ति योगियो को भक्ति शास्त्र दिखता है। सभी साधकों को गीता में अपनी रुचि, श्रद्धा– विश्वास और योग्यता के अनुसार अपने कल्याण का साधन मिल जाता है परंतु जो अपने मत, सिद्धांत आदि कोई आग्रह न रखकर तथा तथस्त होकर गीता के भावों को समझना चाहते हैं उनके लिए यह गीत दर्पण नामक ग्रंथ परम उपयोगी है। इसी गीता दर्पण ग्रंथ में से मैं आपके समक्ष कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां जो मुझे मिली है आपके समक्ष रख रही हूं।
।।जय श्री राधे।।

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