गीता के छठे अध्याय का सरल तात्पर्य
किसी भी साधन से अन्त:करण मे समता आनी चाहिए;क्योंकि समता के बिना मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में,मान अपमान में सम (निर्विकार) नही रह सकता और अगर वह परमात्मा का ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि अंतःकरण में समता आए बिना सुख-दुख आदि द्वन्द्वो का असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यान में नहीं लगेगा। जो मनुष्य प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में वर्तमान में किए जाने वाले कर्मों की पूर्ति आपूर्ति में सिद्ध असिद्धि में, दूसरों के द्वारा किए गए मान अपमान में, धन संपत्ति आदि में, अच्छे बुरे मनुष्यों में सम रहता है, वह श्रेष्ठ है। जो साध्य रूप में समता का उद्देश्य रखकर मन इंद्रियों के संयम पूर्वक परमात्मा का ध्यान करता है, उसके संपूर्ण प्राणियों में और उनके सुख-दुख में समबुद्धि हो जाती है। समता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला मनुष्य वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का अतिक्रमण कर जाता है। समता वाला मनुष्य से सकाम भाव वाले तपस्वी ज्ञानी और कर्मी मनुष्य से श्रेष्ठ है।
गीता के छठे अध्याय में, भगवान कृष्ण ने ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मुक्ति की प्राप्ति के मार्ग को समझाया। इस अध्याय में आत्मा की अविनाशिता, मानव जीवन की सार्थकता, और ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूप की चर्चा है। भगवान ने अर्जुन को संसार के मोह और अज्ञान से मुक्ति के लिए ज्ञान का प्रयास करने का प्रेरणा दिया है। छठे अध्याय में जीवन के उद्देश्य को समझाने और आत्मज्ञान की महत्वपूर्णता को बताने का प्रयास किया गया है।
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