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गुरुवार, 11 जनवरी 2024

श्रीमद् भागवत गीता संबंधी प्रश्न उत्तर

                      श्रीमद् भागवत गीता संबंधी प्रश्न उत्तर 5 से 7 

5 प्रश्न– शरीरी (जीवात्मा) अविनाशी है, इसका विनाश कोई  कर ही नहीं सकता,(2/17) यह ना मरता है और ना मारा जाता है(2/19) तो फिर मनुष्य को प्राणियों की हत्या का पाप लगना ही नहीं चाहिए?

उत्तर –पाप तो पिंड–प्राणों का वियोग करने का लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिंड–प्राण में रहना चाहता है, जीना चाहता है। यद्यपि महात्मा लोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारने का बड़ा भारी पाप लगता है क्योंकि उनका जीवन संसार मात्र चाहता है। उनके जीने से प्राणी मात्र का परम हित होता है। प्राणी मात्र को सदा रहने वाली शांति मिलती है। जो वस्तुएं प्राणियों के लिए जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करने का उतना ही अधिक पाप लगता है।

6 प्रश्न–आत्मा नित्य है, सर्वत्र परिपूर्ण है, स्थिर स्वभाव वाला है(2/24), तो फिर इसका पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नए शरीर में चला जाना कैसे संभव है(2/22)?

उत्तर –जब यह प्रकृति के अंश शरीर को अपना मान लेता है ,उसके साथ तादाम्य में कर लेता है, तब यह प्रकृति के अंश के आने जाने को,उसके जीने मरने को, अपना आना-जाना, जीना-मारना मान लेता है। इस दृष्टि से इसका अन्य शरीरों में चला जाना कहा गया है। वास्तव में तत्वों से इसका आना-जाना,जीना- मरना है ही नहीं।

7 प्रश्न– भगवान कहते हैं कि क्षत्रिय के लिए युद्ध के सिवाय कल्याण का दूसरा कोई साधन है ही नहीं तो क्या लड़ाई करने से ही क्षत्रिय का कल्याण होगा दूसरे किसी साधन से कल्याण नहीं होगा?

ऐसी बात नहीं है उसे समय युद्ध का प्रसंग था और अर्जुन युद्ध को छोड़कर भिक्षा मांगना श्रेष्ठ समझते थे। अतः भगवान ने कहा कि ऐसा स्वतःप्राप्त धर्म युद्ध शूरवीर क्षत्रिय के लिए कल्याण का बहुत बढ़िया साधन है। अगर ऐसे मौके पर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध नहीं करता, तो उसकी अपकीर्ति होती है। यह आदरणीय पूजनीय मनुष्यों की दृष्टि में लघुता को प्राप्त हो जाता है। वैरी लोग उसको ना कहने योग्य वचन कहने लग जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग था इसलिए भगवान ने युद्ध को श्रेष्ठ साधन बताया। युद्ध के सिवाय दूसरे साधन से क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता- यह बात नहीं है ;क्योंकि पहले भी बहुत से राजा लोग चौथे आश्रम में वन में जाकर साधन भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है।

यह प्रश्न उत्तर गीता दर्पण (स्वामी रामसुखदास जी के वचन) पुस्तक से लिए गए हैं।

गीता के 11 अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के 11वें अध्याय का सरल अर्थ

अर्जुन ने भगवान की कृपा से जिस दिव्या विश्व रूप के दर्शन किये, उसको तो हर एक मनुष्य नहीं देख सकता, परंतु आदि- अवतार रूप से प्रकट हुए इस संसार को श्रद्धापूर्वक भगवान का रूप मानकर तो हर एक मनुष्य विश्व रूप के दर्शन कर सकता है।

अर्जुन ने विश्व रूप दिखाने के लिए भगवान से नम्रता पूर्वक प्रार्थना की तो भगवान ने दिव्य नेत्र प्रदान करके अर्जुन को अपना दिव्य विश्व रूप दिखा दिया। उसमें अर्जुन ने भगवान के अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को देखा, देवताओं, गंधर्व, सिद्धों सांपों आदि को देखा उन्होंने विश्व रूप के सौम्य, उग्र अतिउग्र आदि कई स्तर देखे। इस दिव्य विश्वरूप को हम सब नहीं देख सकते, पर नेत्रों से दिखने वाले इस संसार को भगवान का स्वरूप मानकर, अपना उद्धार तो हम कर ही सकते हैं। कारण कि यह संसार भगवान से ही प्रकट हुआ है, भगवान ही सब कुछ बने हुए हैं।

गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

           गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

मनुष्य के पास चिंतन करने की जो शक्ति है उसको भगवान  के चिंतन में ही लगाना चाहिए। संसार में जिस किसी में, जहां कहीं विलक्षणता, विशेषता, मेहत्ता, अलौकिकता, सुंदरता आदि दिखती है, उसमें वह खिंचता है,वह विलक्षणता आदि सब वास्तव में भगवान ही है। अतः वहां भगवान का ही चिंतन होना चाहिए। उस वस्तु, व्यक्ति आदि का नहीं। यही विभूतियों के वर्णन का तात्पर्य है।

गीता के नवें अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के नवें अध्याय का तात्पर्य 


सभी मनुष्य भगवत प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम,संप्रदाय,देश, वेश आदि के क्यों ना हो। वे सभी भगवान की तरफ चल सकते हैं। भगवान का आश्रय लेकर, भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। भगवान को इस बात का दुख है, खेद है,पश्चाताप है कि यह जीव मनुष्य शरीर पाकर, मेरी प्राप्ति का अधिकार पाकर भी ,मेरे को प्राप्त न करके, मेरे पास ना आकर मौत (जन्म मरण)में जा रहे हैं। मेरे से विमुख होकर भी कोई तो मेरी अवहेलना करके, कोई आसुरी संपत्ति का आश्रय लेकर और कोई साकाम भाव से यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके, जन्म मरण के चक्कर में जा रहे हैं। वह पापी से पापी हों, किसी नीच योनि में पैदा हुए हो, किसी भी वर्ण, आश्रम, देश आदि के हों, वे सभी मेरा आश्रय लेकर मेरी प्राप्ति कर सकते हैं अतः इस मनुष्य शरीर को पाकर जीव को मेरा भजन करना चाहिए

गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ

              गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ


अंतकालीन चिंतन के अनुसार ही जीव की गति होती है। इसलिए मनुष्य को हरदम सावधान रहना चाहिए, जिससे अंत काल में भागवत स्मृति बनी रहे। अंत समय में शरीर छुटते समय मनुष्य जिस वस्तु व्यक्ति आदि का चिंतन करता है, उसी के अनुसार उसको आगे का शरीर मिलता है। जो अंत समय में भगवान का चिंतन करता हुआ शरीर छोड़ता है वह भगवान को ही प्राप्त होता है। उसका फिर जन्म मरण नहीं होता। अतः मनुष्य को सब समय में, सभी अवस्थाओं में और शास्त्र विहित सब काम करते हुए भगवान को याद रखना चाहिए जिससे अंत समय में भगवान ही याद आए। जीवन भर रागपूर्वक जो कुछ किया जाता है प्राय: वहीं अंत समय में याद आता है।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने स्वभाव, प्रकृति, और पुरुष के तात्पर्य को स्पष्ट किया है। वह यह बताते हैं कि सभी जीवों का अधिष्ठान प्रकृति है और उनका नियंत्रण पुरुष करता है। कर्मों के माध्यम से पुरुष को प्रकृति से मुक्ति प्राप्त होती है। इसके साथ ही, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से भी व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यह अध्याय जीवन को संतुलित रूप से जीने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करता है।

गीता के सातवें अध्याय का तात्पर्य

                गीता के सातवें अध्याय का सरल अर्थ



सब कुछ वासुदेव ही है, भागवत रूप ही है– इसका मनुष्य को अनुभव कर लेना चाहिए।

 सूत के मणियों से बनी हुई महिलाओं में सूत की तरह भगवान ही सब संसार में ओत प्रोत है। पृथ्वी, जल, तेज,वायु आदि तत्वों में; चांद, सूर्य आदि रूपों में; सात्विक, राजस्व और तमस भाव, क्रिया आदि में भगवान ही परिपूर्ण है। ब्रह्म, जीव ,क्रिया, संसार, ब्रह्मा और विष्णु रूप से भगवान ही हैं। इस तरह तत्व से सब कुछ भगवान ही भगवान हैं।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि भक्ति में समर्पण करने से सब कुछ संभव है और व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा में मिला सकता है। इस अध्याय के माध्यम से जीवन में उद्दीपना और मार्गदर्शन मिलता है, जो सच्चे धर्म की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है?

           रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है



"रामचरितमानस" और "रामायण" दोनों ही महाकाव्य हैं जो भगवान राम के जीवन को बयान करते हैं, लेकिन इनमें कुछ अंतर हैं। "रामचरितमानस" का रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास था, जबकि "रामायण" का अद्भुत महाकाव्य वाल्मीकि ने लिखा।

तुलसीदास ने "रामचरितमानस" को अपनी भक्ति भावना से भरा हुआ बनाया, जिसमें भगवान राम की प्रशंसा और भक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें अधिकतर भक्ति भावनाओं को सुरक्षित करने के लिए विशेष पहलुओं का उल्लेख है।

वहीं, वाल्मीकि की "रामायण" ने राम के जीवन को ऐतिहासिक और तात्कालिक पृष्ठभूमि से दर्शाने का प्रयास किया है। इसमें राम, सीता, हनुमान, लक्ष्मण आदि के चरित्रों को अद्वितीय रूप से प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह एक महाकाव्य और एक ऐतिहासिक ग्रंथ भी है।

"रामचरितमानस" ने भगवान राम के कथानक को अपने धार्मिक दृष्टिकोण से दर्शाया है, जिसमें भक्ति, नैतिकता, और आदर्शवाद को महत्वपूर्ण स्थान मिलता है। तुलसीदास ने भक्ति मार्ग को प्रमोट किया और राम के चरित्र को एक नेतृत्वपूर्ण आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।

"रामायण" में वाल्मीकि ने राम के जीवन को एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दिखाया है, जिसमें युद्ध, राजनीति, और मानवीय धरोहर को बड़े रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें समय-समय पर आनेवाली कई विचारशील प्रवृत्तियों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाने का प्रयास किया गया है।

यद्यपि दोनों महाकाव्य भगवान राम की महत्व पूर्णता पर चर्चा करते हैं, उनका दृष्टिकोण और प्रस्तुतिकरण विभिन्न हैं, जिससे वे अद्वितीय रूप से महत्वपूर्ण हैं।

।।जय श्री राम।।

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