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बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय का शेष

        श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में चौथा अध्याय
          ( स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से)
 भगवान् 'विवस्वते प्रोक्तवान् पदोंसे साधकोंको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करनेपर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकोंको भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन स्वयं करते रहना चाहिये (गीता—तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और दूसरोंको भी कर्मयोगकी शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये।
 सृष्टिमें सूर्य सबके आदि हैं। सृष्टिकी रचनाके समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्पमें थे, वैसे ही प्रकट हुए—'सूर्याचन्द्रमसौ धातायथापूर्वमकल्पयत्’। उन (सबके आदि) सूर्यको भगवान्ने अविनाशी कर्मयोगका उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोगकी बात बता रहा हूँ, वह कोई आजकी नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टिके आदिसे अर्थात् सदासे है, उसी योगकी बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
 प्रश्नभगवान्ने सृष्टिके आदिकालमें सूर्यको कर्म- योगका उपदेश क्यों दिया?
 उत्तर(१) सृष्टिके आरम्भमें भगवान्ने सूर्यको ही कर्मयोगका वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस
योगका उपदेश दिया।
 (२) सृष्टिमें जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, उसे ही उपदेश दिया जाता है; जैसे—ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें प्रजाओंको उपदेश दिया (गीता—तीसरे अध्यायका दसवाँ श्लोक)। उपदेश देनेका तात्पर्य है—कर्तव्यका ज्ञान कराना। सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति हुई, फिर सूर्यसे समस्त लोक उत्पन्न हुए। सबको उत्पन्न करनेवाले१ सूर्यको सर्वप्रथम कर्मयोगका उपदेश देनेका अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टिको परम्परासे कर्मयोग सुलभ करा देना था।
 (३) सूर्य सम्पूर्ण जगत्के नेत्र हैं। उनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदित होनेपर प्राय: समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें लग जाते हैं। सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्य-परायणता आती है। सूर्यको सम्पूर्ण जगत्की आत्मा भी कहा गया है—'सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।’ अत: सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगा, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वत: प्राप्त हो जायगा। इसलिये भगवान्ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया।
 वास्तवमें नारायणके रूपमें उपदेश देना और सूर्यके रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान्की एक लीला ही समझनी चाहिये, जो संसारके हितके लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर-ऋषिके अवतार थे; परन्तु लोकसंग्रहके लिये उन्हें भी उपदेश लेनेकी आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान्ने स्वयं ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसारका महान् उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा।
 'विवस्वान् मनवे प्राहमनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्— कर्मयोग गृहस्थोंकी खास विद्या है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—इन चारों आश्रमोंमें गृहस्थ- आश्रम ही मुख्य है; क्योंकि गृहस्थ-आश्रमसे ही अन्य आश्रम बनते और पलते हैं। मनुष्य गृहस्थ-आश्रममें रहते हुए ही अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन करके सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर सकता है। उसे परमात्मप्राप्तिके लिये आश्रम बदलनेकी जरूरत नहीं है। भगवान्ने सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओंका नाम लेकर यह बताया है कि कल्पके आदिमें गृहस्थोंने ही कर्मयोगकी विद्याको जाना और गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही उन्होंने कामनाओंका नाश करके परमात्म-तत्त्वको प्राप्त किया। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गृहस्थ थे। इसलिये भगवान् अर्जुनके माध्यमसे मानो सम्पूर्ण गृहस्थोंको सावधान (उपदेश) करते हैं कि तुमलोग अपने घरकी विद्या 'कर्मयोग’ का पालन करके घरमें रहते हुए ही परमात्माको प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें दूसरी जगह जानेकी जरूरत नहीं है।
 गृहस्थ होनेपर भी अर्जुन प्राप्त कर्तव्य-कर्म-(युद्ध-) को छोड़कर भिक्षाके अन्नसे जीविका चलानेको श्रेष्ठ मानते हैं (गीता—दूसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) अर्थात् अपने कल्याणके लिये गृहस्थ-आश्रमकी अपेक्षा संन्यास- आश्रमको श्रेष्ठ समझते हैं। इसलिये उपर्युक्त पदोंसे भगवान् मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघरानेके श्रेष्ठ गृहस्थ हो, कर्मयोग तुम्हारे घरकी खास विद्या है, इसलिये इसीका पालन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। संन्यासीके द्वारा जो परमात्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है, वही तत्त्व कर्मयोगी गृहस्थाश्रममें रहकर भी स्वाधीनतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। अत: कर्मयोग गृहस्थोंकी तो मुख्य विद्या है, पर संन्यास
आदि अन्य आश्रमवाले भी इसका पालन करके परमात्म- तत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है। अत: कर्मयोगका पालन किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, काल आदिमें किया जा सकता है।
 किसी विद्यामें श्रेष्ठ और प्रभावशाली पुरुषोंका नाम लेनेसे उस विद्याकी महिमा प्रकट होती है, जिससे दूसरे लोग भी वैसा करनेके लिये उत्साहित होते हैं। जिन लोगोंके हृदयमें सांसारिक पदार्थोंका महत्त्व है, उनपर ऐश्वर्यशाली राजाओंका अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिये भगवान् सृष्टिके आदिमें होनेवाले सूर्यका तथा मनु आदि प्रभावशाली राजाओंके नाम लेकर कर्मयोगका पालन करनेकी प्रेरणा करते हैं।
विशेष बात
 क्रियाओं और पदार्थोंमें राग होनेसे अर्थात् उनके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे कर्मयोग नहीं हो पाता। गृहस्थमें रहते हुए भी सांसारिक भोगोंसे अरुचि (उपरति अथवा कामनाका अभाव) होती है। किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है—यह नियम है। आरम्भमें भोगकी जितनी रुचि (कामना) रहती है, भोग भोगते समय वह उतनी नहीं रह जाती, प्रत्युत क्रमश: घटते-घटते समाप्त हो जाती है; जैसे—मिठाई खानेके आरम्भमें उसकी जो रुचि होती है, वह उसे खानेके साथ-साथ घटती चली जाती है और अन्तमें उससे अरुचि हो जाती है। परन्तु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचिको ही तृप्ति (फल) मान लेता है। परन्तु वास्तवमें अरुचिमें थकावट अर्थात् भोगनेकी शक्तिका अभाव ही होता है।
 जिस रुचि या कामनाका किसी भी समय अभाव होता है, वह रुचि या कामना वास्तवमें स्वयंकी नहीं होती। जिससे कभी भी अरुचि होती है, उससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता। जिससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध है, उस सत्-स्वरूप परमात्मतत्त्वकी ओर चलनेमें कभी अरुचि नहीं होती, प्रत्युत रुचि बढ़ती ही जाती है—यहाँतक कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भी 'प्रेम’के रूपमें वह रुचि बढ़ती ही रहती है। 'स्वयं’ भी सत्-स्वरूप है, इसलिये अपने अभावकी रुचि भी किसीकी नहीं होती।
 कर्म, करण (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) और उपकरण (पदार्थ अर्थात् कर्म करनेमें उपयोगी सामग्री)—ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं, फिर इनसे मिलनेवाला फल कैसे नित्य होगा? वह तो नाशवान् ही होगा। अविनाशीकी प्राप्तिसे जो तृप्ति होती है, वह नाशवान् फलकी प्राप्तिसे कैसे हो सकती है? इसलिये साधकको कर्म, करण और उपकरण—तीनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद करना है। इनसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा, जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा, अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं मानेगा; प्रत्युत अपने कहलानेवाले कर्म, करण और उपकरण—इन तीनोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये इन्हें संसारका ही मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देगा।
 कर्म करते हुए भी कर्मयोगीकी कर्मोंमें कामना, ममता और आसक्ति नहीं होती, प्रत्युत उनमें प्रीति और तत्परता होती है। कामना, ममता तथा आसक्ति अपवित्रता करने- वाली हैं और प्रीति तथा तत्परता पवित्रता करनेवाली हैं। कामना, ममता तथा आसक्तिपूर्वक किसी भी कर्मको करनेसे अपना पतन और पदार्थोंका नाश होता है तथा उस कर्मकी बार-बार याद आती है अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध बना रहता है। परन्तु प्रीति तथा तत्परतापूर्वक कर्म करनेसे अपनी उन्नति और पदार्थोंका सदुपयोग होता है, नाश नहीं; तथा उस कर्मकी पुन: याद भी नहीं आती अर्थात् उस कर्मसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है।
 कोई भी मनुष्य क्यों न हो, वह सुगमतापूर्वक मान सकता है कि जो कुछ मेरे पास है, वह मेरा नहीं है, प्रत्युत किसीसे मिला हुआ है; जैसे—शरीर माता-पितासे मिला है, विद्या-योग्यता गुरुजनोंसे मिली है, इत्यादि। तात्पर्य यह कि एक-दूसरेकी सहायतासे ही सबका जीवन चलता है। धनी-से-धनी व्यक्तिका जीवन भी दूसरेकी सहायताके बिना नहीं चल सकता। हमने किसीसे लिया है तो किसीको देना, किसीकी सहायता करना, सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है। इसीका नाम कर्मयोग है। इसका पालन मनुष्यमात्र कर सकता है और इसके पालनमें कभी लेशमात्र भी असमर्थता तथा पराधीनता नहीं है।
 कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसे सुखपूर्वक कर सकते हैं, जिसे अवश्य करना चाहिये अर्थात् जो करनेयोग्य है और जिसे करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि अवश्य होती है। जो नहीं कर सकते, उसे करनेकी जिम्मेवारी किसीपर नहीं है और जिसे नहीं करना चाहिये, उसे करना ही नहीं है। जिसे नहीं करना चाहिये, उसे न करनेसे दो अवस्थाएँ स्वत: आती हैं—निर्विकल्प अवस्था अर्थात् कुछ न करना अथवा जिसे करना चाहिये, उसे करना।कर्तव्य सदा निष्कामभावसे एवं परहितकी दृष्टिसे किया जाता है। सकामभावसे किया गया कर्म बन्धनकारक होता है, इसलिये उसे करना ही नहीं है। निष्कामभावसे किया जानेवाला कर्म फलकी कामनासे रहित होता है, उद्देश्यसे रहित नहीं। उद्देश्यरहित चेष्टा तो पागलकी होती है। फल और उद्देश्य—दोनोंमें अन्तर होता है। फल उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होता है, पर उद्देश्य नित्य होता है। उद्देश्य नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवका होता है, जिसके लिये मनुष्यजन्म हुआ है। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे उस परमात्माका अनुभव नहीं होता। सकामभाव, प्रमाद, आलस्य आदि रहनेसे अपने कर्तव्यका पालन कठिन प्रतीत होता है।
 वास्तवमें कर्तव्य-कर्मका पालन करनेमें परिश्रम नहीं है। कर्तव्य-कर्म सहज, स्वाभाविक होता है; क्योंकि यह स्वधर्म है। परिश्रम तब होता है, जब अहंता, आसक्ति, ममता, कामनासे युक्त होकर अर्थात् 'अपने लिये’ कर्म करते हैं। इसलिये भगवान्ने राजस कर्मको परिश्रमयुक्त बताया है (गीता—अठारहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।
 जैसे भगवान्के द्वारा प्राणिमात्रका हित होता है, ऐसे ही भगवान्की शक्ति भी प्राणिमात्रके हितमें निरन्तर लगी हुई है। जिस प्रकार आकाशवाणी-केन्द्रके द्वारा प्रसारित विशेष शक्तियुक्त ध्वनि सब जगह फैल जाती है, पर रेडियोके द्वारा जिस नंबरपर उस ध्वनिसे एकता (सजातीयता) होती है, उस नंबरपर वह ध्वनि पकड़में आ जाती है। इसी प्रकार जब कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल संसारमात्रके हितके भावसे ही समस्त कर्म करता है, तब भगवान्की सर्वव्यापी हितैषिणी शक्तिसे उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मोंमें विलक्षणता आ जाती है। भगवान्की शक्तिसे एकता होनेसे उसमें भगवान्की शक्ति ही काम करती है और उस शक्तिके द्वारा ही लोगोंका हित होता है। इसलिये कर्तव्य-कर्म करनेमें न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रमका अनुभव ही होता है।
 कर्मयोगमें पराश्रयकी भी आवश्यकता नहीं है। जो परिस्थिति प्राप्त हो जाय, उसीमें कर्मयोगका पालन करना है। कर्मयोगके अनुसार किसीके कार्यमें आवश्यकता पडऩेपर सहायता कर देना 'सेवा’ है; जैसे—किसीकी गाड़ी खराब हो गयी और वह उसे धक्का देनेकी कोशिश कर रहा है; अत: हम भी इस काममें उसकी सहायता करें, तो यह 'सेवा’ है। जो जानबूझकर कार्यको खोज-खोजकर सेवा करता है, वह कर्म करता है, सेवा नहीं; क्योंकि ऐसा करनेसे उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है, जो परिस्थितिके अनुरूप की जाय। कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढ़ता है। वह तो प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है।

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 4



अध्याय : 4 

श्लोक : 1

जय श्री राधे अभी तक श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में तीसरे अध्याय तक जो भावार्थ था वह थोड़ा समझने में कठिन लग रहा था, इसलिए अब मैं स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से कहीं गई श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी को आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं आशा करती हूं इसे समझने में आपको सुविधा रहेगी जय श्री राधे



श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
        विवस्वान्मनवे प्राह         मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्यसे कहा था। (फिर) सूर्यने (अपने पुत्र) (वैवस्वत) मनुसे कहा (और) मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
'इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्—भगवान्ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओंका उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही कर्मयोगके द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अत: यहाँके 'इमम्अव्ययम्योगम् पदोंका तात्पर्य पूर्वप्रकरणके अनुसार तथा राजपरम्पराके अनुसार 'कर्मयोग’ लेना ही उचित प्रतीत होता है।
 यद्यपि पुराणोंमें और उपनिषदोंमें भी कर्मयोगका वर्णन आता है, तथापि वह गीतामें वर्णित कर्मयोगके समान सांगोपांग और विस्तृत नहीं है। गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका सरल और सांगोपांग विवेचन किया है। कर्मयोगका इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदोंमें देखनेमें नहीं आता।
 भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान्के साथ जीवका सम्बन्ध भी नित्य है। अत: भगवत्प्राप्तिके सब मार्ग (योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग आदि) भी नित्य हैं। यहाँ 'अव्ययम्’ पदसे भगवान् कर्मयोगकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं।
 परमात्माके साथ जीवका स्वत:सिद्ध सम्बन्ध (नित्य- योग) है। जैसे पतिव्रता स्त्रीको पतिकी होनेके लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पतिकी तो है ही, ऐसे ही साधकको परमात्माका होनेके लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्माका है ही; परन्तु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदिके साथ जब वह अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे 'नित्ययोग’ अर्थात् परमात्माके साथ अपने नित्यसम्बन्धका अनुभव नहीं होता। अत: उस अनित्यके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटानेके लिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओंको संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूलका छोटा-से-छोटा कण भी विशाल पृथ्वीका ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्डका ही एक अंश है। ऐसा माननेसे 'कर्म’ तो संसारके लिये होंगे, पर 'योग’ (नित्ययोग) अपने लिये होगा अर्थात् नित्य-योगका अनुभव हो जायगा।

श्रीमद भगवत गीता में कर्म योग का शेष भाग

             श्रीमद्भागवत गीता में कर्म योग की व्याख्या


यहां भी निश्चित ’ कहा और दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी ‘निश्चितम्’ कहा है। भाव यह है कि मेरे लिये कल्याणकारक अचूक रामबाण उपाय होना चाहिये। वहाँ अर्जुनने प्रश्न करते हुए कहा— ‘ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन’ (३। १); यहाँ ‘ज्यायसी’ पद है। इस ज्यायसीका भगवान्ने ‘कर्मज्यायो ह्यकर्मण:’ (३। ८)में

‘ज्याय:’ कहकर उत्तर दिया कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। यहाँ भगवान्ने भीख माँगनेकी बात काट दी। तो फिर कर्म कौन-सा करे ? इसपर बतलाया कि जो स्वधर्म है, वही कर्तव्य है; उसीका आचरण करो। अर्जुनके लिये स्वधर्म क्या है ? युद्ध करना। १८वें अध्यायके ४३वें श्लोकमें भगवान्ने क्षत्रियके जो स्वाभाविक कर्म बतलाये हैं, क्षत्रिय होनेके नाते अर्जुनके लिये वे ही कर्तव्यकर्म हैं। वहाँ भी भगवान्ने ‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’—(१८। ४७) कहा है। स्वधर्मका नाम स्वकर्म है। यहाँ स्वकर्म है—युद्ध करना। ‘स्वधर्म:’ के साथ ‘विगुण:’ विशेषण क्यों दिया ? अर्जुनने तीसरे अध्यायके पहले श्लोकमें युद्धरूपी कर्मको ‘घोर कर्म’ बतलाया है। इसीलिये भगवान्ने उसके उत्तरमें उसे ‘विगुण:’ बतलाकर यह व्यक्त किया कि स्वधर्म विगुण होनेपर भी कर्तव्यकर्म होनेसे श्रेष्ठ है। अत: अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है; तथा दूसरे अध्यायके बत्तीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने बतलाया कि धर्मयुद्धसे बढक़र क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक श्रेष्ठ साधन है ही नहीं।परधर्मात् स्वनुष्ठितात्’
मतलब यह है कि परधर्ममें गुणोंका बाहुल्य भी हो और उसका आचरण भी अच्छी तरहसे किया जाता हो तथा अपने धर्ममें गुणोंकी कमी हो और उसका आचरण भी ठीक तरहसे नहीं बन पाता हो, तब भी परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ —अति श्रेष्ठ है। जैसे पतिव्रता स्त्रीके लिये अपना पति सेव्य है, चाहे वह विगुण ही हो। श्रीरामचरितमानसमें कहे हुए—
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥
—ये आठों अवगुण अपने पतिमें विद्यमान हों और उसकी सेवा भी साङ्गोपाङ्ग नहीं होती हो, तथा पर-पति गुणवान् भी हो और उसकी सेवा भी अच्छी तरह की जा सकती हो, तो भी पत्नीके लिये अपने पतिकी सेवा ही श्रेष्ठ है, वही सेवनीय है; पर-पति कदापि सेवनीय नहीं। उसी प्रकार स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ (श्रेष्ठ) है, परधर्म कदापि नहीं।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥
—इससे भगवान्ने यह भाव बतलाया है कि कष्टोंकी सीमा मृत्यु है और स्वधर्म-पालनमें यदि मृत्यु भी होती हो तो वह भी परिणाममें कल्याणकारक है। तात्पर्य यह कि परधर्ममें प्रतीत होनेवाले गुण, उसके अनुष्ठानकी सुगमता और उससे मिलनेवाले सुखकी कोई कीमत नहीं है; क्योंकि वह परिणाममें महान् भयावह है। बल्कि अपने धर्ममें गुणोंकी कमी, अनुष्ठानकी दुष्करता और उसमें होनेवाले कष्ट भी महान् मूल्यवान् हैं; क्योंकि वह परिणाममें कल्याणकारक है। फिर जिस स्वधर्ममें गुणोंकी कमी भी न हो, अनुष्ठान भी अच्छी प्रकार किया जा सकता हो तथा उसमें सुख भी होता हो, वह सर्वथा श्रेष्ठ है—इसमें तो कहना ही क्या है।उपर्युक्त श्लोककी व्याख्याके अनुसार मनुष्योंको कर्तव्य- कर्मोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करनेमें लग जाना चाहिये।

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कर्म योग का जीवन में महत्व

                                    कर्मयोग


समतापूर्वक कर्तव्यकर्मोंका आचरण करना ही कर्मयोग कहलाता है। कर्मयोगमें खास निष्कामभावकी मुख्यता है। निष्कामभाव न रहनेपर कर्म केवल ‘कर्म’ होते हैं; कर्मयोग नहीं होता। शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म करनेपर भी यदि निष्कामभाव नहीं है तो उन्हें कर्म ही कहा जाता है, ऐसी क्रियाओंसे मुक्ति सम्भव नहीं; क्योंकि मुक्तिमें भावकी ही प्रधानता है। निष्कामभाव सिद्ध होनेमें राग-द्वेष ही बाधक हैं— ‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३। ३४); वे इसके मार्गमें लुटेरे हैं। अत: राग-द्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये। तो फिर क्या करना चाहिये ?—

श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥

(गीता ३। ३५)

—इस श्लोकमें बहुत विलक्षण बातें बतायी गयी हैं। इस एक श्लोकमें चार चरण हैं। भगवान्ने इस श्लोककी रचना कैसी सुन्दर की है ! थोड़े-से शब्दोंमें कितने गम्भीर भाव भर दिये हैं। कर्मोंके विषयमें कहा है—

‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’

यहाँ ‘श्रेयान्’ क्यों कहा ? इसलिये कि अर्जुनने दूसरे अध्यायमें गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भीख माँगना ‘श्रेय’ कहा था— ‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (२। ५); कतु

‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२। ७) में अपने लिये निश्चित ‘श्रेय’ भी पूछा और तीसरे अध्यायमें भी पुन: निश्चित ‘श्रेय’ ही पूछा— ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’शेष कल:

एक संत की अमृत वाणी

                         एक संत की अमृत वाणी(आत्म - दर्शन )
संत श्री रामसुखदास जी ने कल्याण मैगजीन में अपने श्री मुख से आत्मदर्शन के ऊपर प्रवचन दिए-

उस परमात्मा का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करना है जिसने हमें यह बहुमूल्य मानव शरीर दिया है। वरना पशु-पक्षी की योनि मिलने पर किसी अन्य के सहारे को स्वीकारना पड़ता। इस शुभ अवसर को पाकर कितना अच्छा होगा कि हम अपनी   पहचान कर लें। वैसे तो दुनिया में मनुष्य के लिए जानने और मानने में कोई कमी नहीं है। बहुत विस्तार से वह ना जाने कितनी खोजकर्ता जा रहा है किसी ने हवाई जहाज उड़ा दिया तो किसी ने रेडियो-टीवी, कंप्यूटर जैसी आश्चर्यजनक चीजें जुटा डाली हैं फिर भी उसकी समझ का अंत नहीं आया, उसे स्वर को तो जाना समझा ही नहीं कि आखिर मेरा लक्ष्य क्या है? मनुष्य को सबसे बड़ा डर है वह मौत का! जो जन्म के बाद क्रमशः हर पल प्रत्येक सांस पर हो रही है चाहे ब्रह्माजी ही क्यों ना हो। अतः इस बहते हुए जीवन से कुछ ऐसा प्राप्त कर लें, जिसका कभी विनाश ना हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को बहुत हल्का बनाए रखना चाहता है। फिर भी वह जीवन पर्यंत ना जाने कितने अलौकिक कूड़े कचरे को समेटता रहता है बिना किसी समझकर, व्यर्थ में बोझ के  भार से मर रहा है, सभी रो रहे हैं पर इसका कचरे के भार को कोई भी फेकने को तैयार नहीं है जब जीवन की सारी शक्ति उसी शक्तिमान के आश्रित है तो फिर किसी और का सहारा क्यों लेना। चाहे जितने जन्म भी जाए एक दिन शक्तिमान के आश्रित होना ही होगा तभी अपना काम पूरा होगा। सारा सौंदर्य हमारे अंदर ही समाया हुआ है कहीं बाहर की वस्तु - पुस्तक में नहीं, उस सुंदरता का ना तो वाणी द्वारा ही बखान हो सकता है , और ना लिखने के द्वारा लेखन। प्रकृति की बाहरी छटा निहार निहार कर अनंयंत्र  मन पहुंच जाएगा, परंतु जहां सौंदर्य का सौंदर्य स्वता ही विराजमान है उसके बाद तो देखना सुनना सब खत्म हो जाता है। जो जितने दिनों के लिए आया है वह उतनी ही क्षण टिकेगा इसका एक पल भी ज्यादा नहीं, हीं फिर चाहे कोई सारी दुनिया का धन वैभव सब एक दाव पर लगा दे, पर एक पल भी यहां रुका नहीं जा सकता। यहां अधिक रुके रहने की जरूरत भी नहीं है, जरूरत तो है जल्द से जल्द अपना काम निपटा लें। 

मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए

                       मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए


मन तो चंचल है यह बात सभी जानते हैं , परंतु हमें चाहिए कि हम सदैव अपने मन में केवल सकारात्मक विचार ही लाएं। सकारात्मक सोच जब आपकी रहेगी तो मन प्रसन्न रहेगा और जब मन प्रसन्न रहेगा तो सेहत पर इसका सीधा असर पड़ेगा और सेहत अच्छी रहेगी। इसके विपरीत अगर हम नकारात्मक विचारों को ही सोचते रहेंगे, तो बेचारा दुखी मन सेहत पर भी प्रभाव डालेगा और सेहत खराब होने लगेगी। अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो जाएंगे और उसका सीधा असर यह होगा कि आपको अपनी जिंदगी रोचक नहीं लगेगी, भार लगने लगेगी, साथ ही साथ अधिक बीमारियां के घेरे में आप कैद हो जायेंगे। डॉक्टर, दवाई का साथ मजबूत हो जाएगा और अंत में जीवन जीने की ललक नहीं रहेगी। अतः आप कम से कम अपने स्वंय के स्वार्थ के लिए ही केवल प्रतिफल सकारात्मक सोच को अपने पवित्र मन में स्थान दें। इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है कि आपके विचारों का प्रभाव आपके मन पर पड़ता है। इस मानव जीवन को अच्छा व्यतीत करने के लिए प्रतिफल केवल अच्छे-अच्छे विचार मन में सोचे, अच्छे विचार सोचने में आपकी जीवन शक्ति बढ़ेगी और साथ में प्रतिपल स्फूर्ति आप महसूस कर सकेंगे। अगर सोचते समय कोई नकारात्मक विचार आते हैं और तुरंत उसे जाने भी दे और फिर केवल सकारात्मक विचारों की ओर ही अपना मुंह मोड़ ले। इससे आपको आपकी जिंदगी कुछ ज्यादा रोचक लगने लगेगी और आप ज्यादा गतिशील व्यक्तित्व वाले व्यक्ति बन जाएंगे। 
कल्याण पत्रिका के सौजन्य से। 

रविवार, 29 जुलाई 2018

शत्रुता खत्म करने के लिए नरसिंह स्तुति का जाप करें

                         श्री नरसिंह स्तुति
(इस मंत्र का नित्य जप करने से शत्रु का नाश होता है व दुष्ट की दुष्टता खत्म हो जाती है,)

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां ध्यायन्तु भुतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥

अथार्त्- समग्र विश्व का कल्याण हो, दुष्ट भी प्रसन्न हो जाएं (दुष्टों की दुष्टता समाप्त होकर उनमें साधुता का उदय हो, क्योंकि जब तक वह दुष्टता की आग में जलते रहेंगे तब तक प्रसन्न कैसे रह सकते हैं?) सभी प्राणी परस्पर एक दूसरे के कल्याण का चिंतन करें। हमारा मन शुभ संकल्प करने वाला हो और हे इंद्रियातीत भगवान नृसिंह! हमारी निष्काम बुद्धि निरंतर आप में ही लगी रहे।

अगर आप संस्कृत में इसका जाप नहीं कर सकते, तो आप हिंदी में अनुवाद के द्वारा भी स्तुतिं  भी कर सकते हैं। आपकी भाषा कोई भी हो ईश्वर सब समझ जाते हैं इसलिए केवल हृदय से प्रार्थना कीजिए।

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गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

                    गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र   भावार्थ के साथ गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक ...