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बुधवार, 29 अगस्त 2018

कर्म कितने प्रकार के होते हैं?

                       कर्म की खोज(कर्म क्या है )


मनुष्य का मन एक पल के लिए भी शांत नहीं रहता। मन की दौड़ बहुत लंबी होती है ।मन की दौड़ का क्षेत्र सीमित है ।वह हर क्षण कार्यरत रहता है। मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन कार्य है। यही कार्य कर्म कहलाते हैं।
 ऋषि मुनियों ने कर्म के तीन भेद बताए हैं-
१-क्रियमाण कर्म- मैं कर्म करता हूं! इस प्रकार की बुद्धि रखकर मनुष्य जो कर्म करता है ,उसे क्रियमान कर्म कहते हैं। जीवन काल में जो जो कर्म होते हैं। वह सब क्रियमाण कर्म कहलाते हैं।
 कर्म का स्वरूप ~मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है। मन में जो अशुभ संस्कार होते हैं,वे  अशुभ कर्म करने के लिए मन ललचाते  हैं ।बुद्धि उसका मार्गदर्शन करती है, जिसका निश्चिय दृढ़ होता है। वह प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता। शुभ कर्मों से स्वर्ग मिलता है और अशुभ कर्मों से नरक में जाना पड़ता है। क्या करना और क्या नहीं करना है, इसका निर्णय लेने में मनुष्य स्वतंत्र है।
- संचित कर्म- क्रियमाण कर्म तो हर समय होते रहते हैं। उनमें कुछ तो भोग लिए जाते हैं, और शेष इकट्ठा होते रहते हैं। इस प्रकार की चित्तरूपी गोदाम में एकत्रित हुए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्मों का स्वरूप कर्म का भंडार अक्षय है कभी खत्म नहीं होता भोगने से कभी वह भंडार समाप्त नहीं होता कर्मों का नियम यह है कि "नामुक्तं क्षीयते कर्म कोटिकल्प -शतैरपि। " अथार्त - कोई भी कर्म करोडों कल्प  बीतने पर भी बिना भोगे नष्ट नहीं होते। ऐसी स्थिति में जीव की मुक्ति का का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कर्म का भंडार अक्षय है। उसको भोगते भोगते जीव अनादि काल से 8400000 योनियों में शरीर धारण करता चला आ रहा है ,फिर भी कर्म का भंडार अक्षय ही बना रहता है।
साधन -जीव को मुक्ति मिल सकती है। श्री कृष्ण , अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन !जैसे प्रज्वलित अग्नि इर्धन को भस्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है ।अगले श्लोक में श्री कृष्ण जी कहते हैं कि- इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है ,उस ज्ञान को बुद्धि रूप योग के द्वारा शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष ,आत्मा में अनुभव करता है ।श्रुति कहती है-  ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। कर्मों का भंडार केवल जितेंद्रिय पुरुष के तत्त्वत: आत्म ज्ञान से भस्म  होता है ।
प्रारब्ध कर्म- प्राणी केेेे मन मैं अनेक जन्मों के संचित कर्मोंं के भंडार पड़े रहते हैं जो  भोगने   पर भी समाप्त नहीं होते हैं। प्रारब्ध कर्म का अर्थ है- जो कर्म पिछले जन्मों में किए गए और जिनका फल इस जन्मम में भोगना पड़ता है अथार्त इस जन्म में जो सुख दुख भोगनेेे होते हैं,। उसे प्रारब्ध कहते हैं।शास्त्र कहता है- मनुष्य केे द्वारा जो भी अच्छे बुरेे कर्म किए जाते है वह भोगे बिना समाप्त नहीं होते ।
कर्म सिद्धांत -प्राणियोंं का समस्त जीवन कर्म सेेे बंधा हुआ है। तथा मरणोतर जीवन कर्म से बंधा हुआ है ।  कर्म ही प्राणियों के  जन्म -ज़रा, मरण तथा रोगादि विकारो का मूल है।
अथार्त  सुख और दुख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। दुष्ट बुद्धि वाले लोग कहते हैं कि मैंने उसको कितना दुख दिया। कुछ ऐसा कहते हैं कि मैंने यह भी किया  ,वह भी किया। वह झूठा अभिमान है, वास्तव में सभी लोग अपने अपने कर्मों के सूत्र में बंधे हुए हैं।

बुधवार, 22 अगस्त 2018

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए

तुलसी कंठी या जो भी माला पसंद है वह जरूर श्रद्धा के साथ धारण करनी चाहिए



गले में माला पहनने का जहां आध्यात्मिक महत्व है, वहीं ये धारक के मन, मस्तिष्क, चर्म, अस्थि, रक्त प्रवाह, वात संस्थान और संवेगों को भी प्रभावित करती हैं। रुद्राक्ष की माला इस दृष्टि से सर्वगुण संपन्न मानी गई है। लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, दत्त तथा नवग्रह आदि की साधना में रुद्राक्ष की माला का उपयोग मनोवांछित फल देने वाला है। माला चाहे जैसी भी हो, उसका शुद्ध पूर्ण और वास्तविक होना आवश्यक है। टूटी-फूटी, आधी-अधूरी, अशुद्ध माला प्रभावकारी नहीं होती। जप के प्रभाव को कम या ज्यादा करने में माला एक प्रमुख उपदान है, इसलिए किसी विद्वान के निर्देश पर ही इसका प्रयोग करना चााहिए। माला को गंगाजल अथवा कच्चे दूध से स्नान करवाने के बाद ही उपयोग में लाना चाहिए। शुद्धता किसी भी माला के प्रभावकारी होने की पहली शर्त है। 

हाथी दांत के मनकों से बनी हुई माला से जप करने पर गणेश जी प्रसन्न होते हैं, हालांकि यह माला काफी महंगी और दुर्लभ होती है। कमलगट्टे की माला का प्रयोग शत्रु के नाश और धन प्राप्ति के लिए किया जाता है। संतान प्राप्ति के लिए पुत्र जीवा की अल्प मौली माला फलदायी मानी गई है। पुष्टि कर्म के अंतर्गत सात्विक कार्यों की पूर्ति के लिए चांदी की माला सर्वोत्तम मानी गई है। इसका प्रभाव जप के साथ ही आरंभ हो जाता है।  

जबकि मूंगा (प्रवाल) की माला धारण करने व इसके जप में प्रयोग करने से गणेश और लक्ष्मी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है। धन-संपत्ति, द्रव्य, स्वर्ण आदि की प्राप्ति की कामना मूंगे की माला से पूर्ण हो जाती है। कुश ग्रंथ की माला कुश नामक घास की जड़ को खोद कर बनाई जाती है। इसका जातक अथवा साधक पर जप के दौरान जादुई प्रभाव होता है। सहज उपलब्धता के कारण अक्सर लोग इसे अप्रभावी मानकर हाशिए पर फैंक देते हैं लेकिन अध्यात्म की दुनिया में इसके गुणों का कोई सानी माला नहीं है। कुश ग्रंथी माला समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक पातकों का शमन करती हुई साधक को निष्कलंक, प्रदूषणमुक्त, निर्मल और सतेज बनाती हैं। इसके प्रयोग से तामसिक व्याधियों का विनाश होता है। 

चंदन की माला दो प्रकार की मिलती है- सफेद और लाल चंदन की। श्री राम, विष्णु, कृष्ण आदि देवताओं की स्तुति, पूजन-अर्चन आदि में सफेद चंदन की माला से किया गया जप देखते-देखते धन-धान्य की प्राप्ति करवा देता है। जबकि लाल चंदन की माला गणेश तथा दुर्गा, लक्ष्मी, त्रिपुर सुंदरी आदि देवी स्वरूपों की उपासना में प्रयोग में लाई जाती है।

तुलसी की माला सस्ती है और सर्वत्र उपलब्ध है। इसलिए राम कृष्ण की उपासना में वैष्णव भक्त इसका बड़ी ही श्रद्धापूर्वक प्रयोग करते हैं। आयुर्वैदिक दृष्टि से भी इसे गले में धारण करने का महत्व है। इसे लोग सुरक्षा कवच मानकर भी गले में पहने रहते हैं। 

सोने के मनकों वाली माला जप आदि में तो प्रयोग में कम लाई जाती है लेकिन अनुभव में आया है कि स्वर्ण माला के धारण करने से धन प्राप्ति और पुत्र प्राप्त की कामना शीघ्र पूरी होती है। स्फटिक की माला सौम्य प्रभाव वाली होती है। इसके धारकों पर चंद्रमा और शिव जी की विशेष कृपा होती है। सात्विक और पुष्टि कार्यों के लिए इसके प्रभाव स्वयं सिद्ध हैं। शंखमाला का प्रयोग तांत्रिक विद्याओं की सिद्धि के लिए किया जाता है। शिवजी की पूजा आराधना तथा सात्विक कामनाओं की पूर्ति तथा जप आदि में इसकी लोकप्रियता शिखर पर है। 

वैजयंती की माला विष्णु और कृष्ण के भक्तों को प्रिय है। यह बहुप्रयोजनीय है। भक्त तो भक्त, इसे भगवान भी धारण कर सौभाग्य अर्जित करना चाहते हैं। हल्दी की माला गणेश जी की प्रसन्नता के लिए है। बृहस्पति ग्रह तथा बगलामुखी की साधना हल्दी की माला के बिना अधूरी मानी जाती है।

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं?

           सुख दुख दोनों ही किस को भोगने पड़ते हैं

संसार में मनुष्य को सुख और दुख दोनों ही भोगने पड़ते हैं। परंतु सुख में प्रसन्नता दुख में क्षोभ,  सामान्य लोगों को होता है। धैर्यवान ,सुख दुख दोनों में समान रहते हैं ।यही ईश्वरीय कृपा का अनुभव होना है। अपने कर्तव्य का पालन करने वाला निर्धन मनुष्य श्रेष्ठ है और अपने कर्तव्य का त्याग करना ,अन्याय से धनवान होकर सुखी होना अच्छा नहीं है । इसीलिए शरणागत हो जाओ, शरण सफलता की कुंजी है ,निर्बल का बल है ,साधक का जीवन है, भक्तों का महामंत्र है ,आस्तिक का अचूक अस्त्र है ,दुखी की दवा है, इसलिए जो परमात्मा का सहारा ले लेता है। उसके सुख और दुख एक समान हो जाते हैं ।वे दोनों ही परिस्थिति में कृपा का अनुभव करता है ।दुख हो या सुख दोनों में ही वह अनुभव करता है कि ईश्वर उसे उसके कर्म के हिसाब से  प्रदान कर रहे हैं, इसलिए वह दोनों को सहज ही स्वीकार करता है। इसलिए सुख और दुख केवल वही भोगता है जिसने परमात्मा की शरण नहीं ली है।

(भक्तमाली जी महाराज वृंदावन)

गीता माधुर्य, तीसरा अध्याय( श्रीमद् भागवत गीता का सरल भावार्थ

 गीता माधुर्य,( तीसरा अध्याय) श्रीमद्भागवत का सरल भावार्थ

अर्जुन बोले- श्री जनार्दन !आपके अनुसार जब ज्ञान, बुद्धि श्रेष्ठ है, तो फिर है केशव! आप मुझे हर करम में क्यों लगाते हैं तथा आप कभी कहते हैं, कर्म करो और कभी कहते ज्ञान का आश्रय लो, आपकी इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है ।इसलिए एक निश्चित बात कहिये, जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ।।१-२
भगवान बोले -हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्य लोक में दो प्रकार से होने वाली निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, उनमें सांख्य  योगियों की निष्ठा ,ज्ञान योग से, और योगियों की निष्ठा कर्म योग  से होती है ।तथा ज्ञान योग और कर्म योग से एक ही सम बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
उस  समता की प्राप्ति के लिए क्या कर्म करना जरूरी है?
 हां जरूरी है; क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और ना कर्मों के त्याग से सिद्धि को ही प्राप्त होता है। तात्पर्य है कि वह समता की प्राप्ति कर्मों का आरंभ किए बिना भी नहीं होती और कर्मों के त्याग से भी नहीं होती ।
कर्मों के त्याग से क्यों नहीं होती ?
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता , क्योंकि प्रकृतिजन्य गुण स्वभाव की परवश हुए प्राणियों से कर्म कराते हैं ,तो फिर प्राणी कर्मों का त्याग कैसे कर सकता है।
 अगर मनुष्य चुपचाप बैठे रहे ,कुछ भी करें नहीं तो क्या यह कर्मों का त्याग नहीं हुआ?
 नहीं ,जो मनुष्य चुपचाप बैठ कर और इंद्रियों को केवल बाहर से रोक कर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है , उसका यह चुपचाप बैठना कर्मों का त्याग करना नहीं हुआ ,बल्कि उस मूढ बुद्धि  वाले का यह चुपचाप बैठना मिथ्याचार है। आपने जो समबुद्धि बताई उसकी प्राप्ति ना तो कर्मों के किए बिना होती है, ना कर्मों के त्याग से होती है और ना बाहर से चुपचाप बैठ कर मन से विषयों का चिंतन करने  से होती है तो फिर उसकी प्राप्ति कैसे होती है? 
हे अर्जुन !जो मनुष्य मन से इंद्रियों का नियमन करके आसक्ति रहित होकर इंद्रियों के द्वारा कर्म योग (निष्काम भाव पूर्वक अपने कर्तव्य कर्मो)- का आचरण करता है वा श्रेष्ठ है अथार्त उसको समबुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा उपयुक्त विधि से कर्तव्य कर्म करना श्रेष्ठ है, और तो क्या ,बिना कर्म किए तेरे शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा।
 कर्मों को करने से बंधन तो नहीं होगा, भगवन्!
 नहीं ,यज्ञ (कर्तव्य कर्म )को केवल अपने लिए करने से ही मनुष्य कर्मों से बंधता है। इसलिए है कुंती नंदन !तू आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म को केवल कर्तव्य परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर।
 मैं कर्म करूं ही क्यों ?
सर्ग के आरंभ में पिता ब्रह्मा जी ने भी यज्ञ (कर्तव्य कर्मों के )सहित मनुष्य की रचना करके उनसे यही कहा था कि तुम लोग इस कर्तव्य कर्म यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्यपालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो।
 यह यज्ञ हम किस भाव से करें पितामह?
 इसके द्वारा तुम लोग देवताओं के द्वारा की वृद्धि ( उन्नति )करो और वे देवता लोग तुम्हारी वृद्धि करें। इस तरह एक दूसरे की वृद्धि करने से अथार्त अपने लिए कर्म न करके  केवल दूसरों के हित के लिए ही सब कर्म करने से तुम लोग परमेश्वर यानी कि परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे।
 पितामह !अगर हम यज्ञ ना करें तो?
 तुम्हारे कर्तव्य कर्म रूप यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही कर्तव्य पालन के लिये  आवश्यक सामग्री देते रहेंगे  परंतु अगर तुम लोग उस कर्तव्यपालन की सामग्री से देवताओं की पुष्टि ना करके स्वंय ही सुख  आराम  भागोगे, तो तुम चोर बन जाओगे।
 इस दोष से कैसे बचा जाए भगवन्? 
केवल दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करने से यज्ञ शेष के रूप में सुमता का अनुभव होता है  उस समता का अनुभव  करने वाले संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो केवल अपने सुख आराम के लिए ही सब कर्म करते हैं, वे पापी लोग तो केवल पाप ही कमाते  हैं।
 भगवन्! अभी आपने कर्तव्य कर्म के विषय में ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनाई, कर्तव्य कर्म के विषय में आपका क्या कहना है? 
इसमें मेरा यही कहना है कि इस सृष्टि -चक्र के संचालन के लिए भी कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता है क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। वर्षा कर्तव्य पालन से होती है और यज्ञ निष्काम भाव से किए गए कर्मों से होता है। कर्तव्य कर्म करने की विधि वेद बताते हैं और वेद परमात्मा से प्रकट होते हैं। इसलिए परमात्मा यज्ञ में नित्य विद्यमान रहते हैं। उनकी प्राप्ति अपने कर्तव्य का पालन करने से ही होती है ।अतः इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है।
अगर कोई इस सृष्टि चक्र की सुरक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन ना करें तो?
 तो हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र की परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए कर्तव्य कर्म नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोग भोगने वाला तथा पापमय जीवन बिताने वाला मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है। 
कोई आसक्ति रहित होकर केवल आपकी आज्ञा के अनुसार सृष्टि चक्र की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए ही कर्तव्य कर्म का पालन करें तो ?
वह अपने आप में ही रमण करने वाला ,अपने आप में ही तृप्त और अपने आप में ही संतुष्ट हो जाता है, उसके लिए कुछ भी करना बाकी नहीं रहता; क्योंकि उस महापुरुष का इस संसार में ना तो कर्म करने से ही कोई मतलब रहता है  तथा उसका किसी भी प्राणी के साथ कोई भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। क्या मैं भी ऐसा कर सकता हूं  भगवन?
 हां, बन सकता है। तू निरंतर आसक्ति रहित होकर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन कर ,क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
 पहले आसक्ति रहित होकर क्या किसी ने कर्म किए हैं और क्या उनको परमात्मा की प्राप्ति हुई है?
 हां, राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष कर्तव्य कर्म करके ही परमात्मा को प्राप्त हुए हैं ।परमात्मा को प्राप्त होने पर भी उन्होंने लोकसंग्रह( दुनिया को कुमार्ग से बचा कर सनमार्ग पर लाने के लिए कर्म किए हैं) इसलिए तू भी लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर।
वह लोकसंग्रह कैसे होता है?
  दो प्रकार से होता है -अपनी कर्तव्य परायणता से और अपने वचनों से श्रेष्ठ मनुष्य जो जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह अपने वचनों से भी कुछ प्रमाणित करता है दूसरे मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।
जैसे आपने परमात्मा प्राप्ति के विषय में जनक आदि का उदाहरण दिया ऐसे ही लोकसंग्रह के विषय में क्या कोई उदाहरण है?
 हां ,मेरा ही उदाहरण लो पार्थ! मेरे लिए त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं है और प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहीं है ।फिर भी मैं लोकसंग्रह के लिए  कर्तव्यकर्म  करता हूं। आपके लिए कर्तव्य कर्म करने की क्या जरूरत है भगवन्?
 हां, बहुत जरूरत है; क्योंकि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य कर्म ना करूं तो ,मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करेंगे अथार्त वह भी कर्तव्य कर्म करना छोड़ देंगे ।इससे क्या होगा भगवन्?
 अगर मैं कर्तवय क्रम ना करूँ तो अपना- अपना कर्तव्य कर्म ना करने से ,यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे और मैं सब तरह के संकट दोषों को पैदा करने वाला तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूंगा ।
शेष कल -जय श्री कृष्णा

सोमवार, 20 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष( श्रीमद्भागवत गीता का सरल भावार्थ)

                   गीता माधुर्य अध्याय 2 का शेष -

वह स्थिर मन बोलता कैसे हैं ?
उसको बोलना साधारण क्रिया रूप से नहीं होता है बल्कि भाव रूप से होता है ।वर्तमान में व्यवहार करते हुए दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होगा और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पर्ह  नहीं होती तथा जो राग ,द्वेष, क्रोध से रहित हो गया है। वह मनुष्य  स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।सब जगह आसक्ति रहित हुआ ,जो मनुष्य प्रारब्धः  के अनुसार अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति के द्वेश नहीं करता ,उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है अथार्थ पहले उसने मुझे परमात्मा की प्राप्ति ही करनी है ।ऐसा जो निश्चय किया था वह अब सिद्ध हो गया है ।वह स्थितप्रज्ञ अवस्था कैसे हो ?
जैसे कछुआ अपने चारों पैर ,गर्दन और पूछं इन 6 अंगों को समेट  कर बैठता है ।ऐसा ही जिस समय गया कर्म योगी संपूर्ण इंद्रियों और मन को अपने अपने विषयों से समेट कर हटा लेता है, समेट लेता है। उस समय उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
 इंद्रियों को समेटने की वास्तविक पहचान क्या है?
 इंद्रियों को अपने विषयों से हटाने वाले देहाभिमानी मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर रस बुद्धि -सुख, भोग ,बुद्धि निवर्त  नहीं होती। परंतु परमात्मा की प्राप्ति होने से इस मनुष्य के रस ,बुद्धि, विवेक निवर्त हो जाती है।
 रसबुद्धि रहने से क्या हानि होती है ?
हे कुन्ती नंदन !रस बुद्धि रहेने से साधनपरायण विवेकी  मनुष्य की इंद्रियां उसके मन को जबरदस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं।
इस रस बुद्धि को दूर करने के लिए क्या करना चाहिए ?
कर्मयोगी साधक ईन्द्रियों को वश में कर के मेरे  परायण बैठ जाए ,इह तरह जिसकी ईन्द्री बस में है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
 आपके परायण न होने से  क्या होगा ?
मेरे परायण ना होने से भोगों का चिंतन होगा।
 भोगो के चिंतन से क्या होगा?
 मनुष्य की उस विषय में आसक्ति हो जाएगी ।
आसक्ति होने से क्या होगा ?
उन भोगों को प्राप्त करने की कामना पैदा होगी?
 कामना  पैदा होने से क्या होगा?
 कामना की पुर्ति न होने  पर क्रोध आ जाएगा ।
क्रोध आने से क्या होगा ?
सन्मोह हो जाएगा, अच्छा जाएगा,मूढ़ता आ जायेगी ।
 मूढ़ता आने से क्या होगा?
मै साधक हीं, मुखे एसा व्यवहार कलना चाहिये ।  मुझे याद करना चाहिए ,ऐसा बोलना चाहिए ,जो पहले विवेक किया था उसकी स्मर्ति नष्ट हो जाएगी ।
स्मर्ति नष्ट होने पर क्या होगा?
 नया विचार करने की शक्ति ,बुद्धि नष्ट हो जाएगी ।इस समय मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ।क्या होगा मनुष्य का पतन हो जाएगा ।
दुखों का नाश हो जाता है और उसकू एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं होती एक निश्चयबुद्धि ना होने से उसकी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना है ऐसी भावना ऐसा विचार नहीं होता ऐसी भावना ना होने से होने से उस को शांति नहीं मिलती।
जिस मनुष्य की सभी कामनाएं , अहंकार ममता रहितं  होकर विचरता है ,उस को शांति प्राप्त हो जाती है। उसकी स्थिति बह्न  में होती है ।इसको प्राप्त होने पर मनुष्य कभी मोहित नहीं होता ,यदि मनुष्य इस ब्राह्मणी स्थिति  में अंत काल में भी स्थित हो जाए अथार्त अंतकाल में भी ममता रहित हो जाए तो वह शांति ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
दूसरा अध्याय समाप्त

मनुष्य जीवन के कुछ दोष

                         मनुष्य जीवन के कुछ दोष
( नित्यलीलालीन  श्रद्धेय भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
जी)


कुसंगति, कुकर्म ,बुरे वातावरण, खानपान के दोष ,आदि अनेक कारणों से मनुष्य में कई प्रकार के दोष आ जाते हैं ।जो देखने में छोटे मालूम होते हैं, बल्कि आदत पड़ जाने से मनुष्य उन्हें दोषी नहीं मानता, पर वह ऐसे होते हैं, जो जीवन को अशांत, दुखी बनाने के साथ ही उन्नति के मार्ग को भी रोक देते हैं ,और उसे अधः पतन की ओर ले जाते हैं। ऐसे दोषोें में से कुछ पर यहां विचार किया जा रहा है-
१-  मुझे तो बस अपने को देखना  है - इस विचार वाले मनुष्य का स्वार्थ छोटी सी सीमा में आकर गंदा हो जाता है, किस काम में मुझे लाभ है ,मुझे सुविधा है, मेरी संपत्ति कैसे ब़ढे, मेरा नाम सबसे ऊंचा कैसे हो, सब लोग मुझे ही नेता मान कर मेरा अनुसरण करें ,इसी प्रकार के विचारों और कार्यों में वह लगा रहता है ।मैंरे किस कार्य से किस की क्या हानि होगी ,किस को क्या असुविधा होगी ,किस का कितना मान भंग होगा ,किसके हृदय पर कितनी ठेस पहुंचेगी  विचार करने की इच्छा हृदय में नहीं होती ।वह छोटी सी सीमा में अपने को बांधकर केवल अपनी और ही देखा करता है। जिसके कारण उसके द्वारा अपमानित  क्षतिग्रस्त, असुविधा प्राप्त लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। और उसकी उन्नति में बाधा पहुंचनी शुकी हो जाती है।

२. भगवान और परलोक किसने देखे हैं?- भगवान और परलोक पर विश्वास न करने वाला मनुष्य, यह कहा करता है। ऐसा मनुष्य स्वेच्छाचारी होता है, और किसी भी पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है़। अमुक बुरे कर्म का फल मुझे परलोक में ,दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा या अंतर्यामी सर्वव्यापी भगवान सब कर्मों को देखते हैं ,उनके सामने में क्या उत्तर दूंगा। इस प्रकार के विश्वास वाला मनुष्य सबके सामने तो क्या छिपकर भी कभी पाप नहीं कर सकता और जिसका ऐसा विश्वास नहीं है ,वह केवल कानून से बचने का ही प्रयत्न्न करता है  उसे ना तो बुरे कर्म से अथार्त  पाप से घृणा है, ना उसे किसी पारलौकिक दंड का भय है। ऐसे मनुष्य को इस लोक में दुख प्राप्त होता है। और भजन ध्यान की उसमे कोई संभावना ही नहीं रहती ।अतः मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से भी वंचित ही रहता है।

३. मेरा कोई क्या कर लेगा?- संसार में सभी मनुष्य सम्मान चाहते हैं। जो मनुष्य ऐठ में रहता है ।दूसरों को सम्मान नही देता, कहता है मुझे किसी से क्या लेना है। मैं किसी की क्यों परवाह करूं ।मेरा कोई क्या कर लेगा ।वह इस अभिमान के कारण ही ,अकारण लोगों को अपना दुश्मन बना लेता है। दूसरों की तो बात ही क्या, उसके घर के और बंधु-बांधव भी उसके पराए हो जाते हैं। वह अभिमान वश किसी की भू परवाह नहीं करता ।किसी से सुख-दुख में हिस्सा नहीं बांटता और उनमें अपने को पुजवाना चाहता है। फलस्वरुप सभी उससे घृणा करने लगते हैं ,और उसके विद्रोही बन जाते हैं ।वह इसे अपना आत्मसम्मान या गौरव मानता है, और यह उसकी मूर्खता है। इस प्रकार अभिमानवश वह सबसे अकेला होकर असहाय बन जाता है ,और उसकी उन्नति रुक जाती हैं ।उसके स्वभाव के कारण वह अकेला पड़ जाता है और धीरे-धीरे मेरा कोई नहीं है, सभी मुझसे घृणा करते हैं, इत्यादि अपने में हीनता की भावना करते-करते मनुष्य को ऐसा दिखने लगता है कि उससे सभी घृणा कर रहे हैं। परिणाम स्वरुप उसके अंदर उदासी ,निराशा, क्रोध, मस्तिष्क विकृति आदि दोष उन लोगों के नित्य संगी बन जाते हैं।
४. संसार में कोई अच्छा है ही नहीं- दोष देखते देखते मनुष्य की इस प्रकार आंखें बन जाती है कि बिना दोष के होते हुए भी उसको लोगों में दोष ही दिखाई देता है। वैसे ही जैसे हरा चश्मा लगा लेने पर सब चीजें हरी दिखाई देती है ।ऐसे फिर कोई अच्छा दिखता ही नहीं। महापुरुष और भगवान में भी उसे दोष ही दिखते हैं। उसका निश्चित हो जाता है कि जगत में कोई भला है ही नहीं । मैं शरीफ बना नहीं रह सकता ।दिन रात दोष- दर्शन और दोष -चिंतन करते करते वह बाहर और भीतर से दोषों  का भंडार बन जाता है।
५. लोग मुझे अच्छा समझे- इस  भावना वाले मनुष्य में घमंड की प्रधानता होती है ।वह अच्छा बनना नहीं चाहता ।अपने को अच्छा दिखाना चाहता है ।इस तरीके से जगत को ठगने के कारण वह खुद ही ठगा जाता है ।उसके जीवन से सच्चाई चली जाती है। लोग जिस प्रकार की वेष एंव भाषा से प्रसन्न होते हैं वह इसी प्रकार का वेश धारण करके वैसे ही भाषा बोलने लगता है। उसके मन में ना खादी से प्रेम है ,ना गेरुआ से और ना नाम जप से; पर अच्छा कहलाने के लिए वह खादी पहन  लेता है  गेरुआ धारण कर लेता है, माला भी जपने लगता है। ऐसा करता है दूसरों के  सामने ही ,जहां उनसे बडाई ही मिलती है  और यदि उसके विरोध करने पर लोग भला समझेंगे तो, वह उन्हीं का विरोध भी करने लगता है ।इसका प्रत्येक  कार्य दम्भ और छल कपट से भरा होता है।

५. मैं ना करूं, तो सब चौपट हो जाएगा- यह भी मनुष्य के अभिमान का ही एक रूप है ,वह समझता है कि बस अमुक कार्य तो मेरे द्वारा  ही होता है ,मैं छोड़ दूंगा तो नष्ट हो जाएगा। मेरे मरने के बाद तो चलेगा ही नहीं। ऐसा विचार  दूसरों के प्रति हीनता  प्रकट करते हैं। उनके मन में द्रोह  उत्पन्न करने वाले होते हैं। संसार में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली पुरुष पैदा हुए हैं, होते हैं ,तुम अपने को बड़ा मानते हो, पर कौन जानता है कि तुम से कहीं अधिक प्रभाव तथा गुण संपन्न संसार में कितने हैं। जिनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। किसी पूर्व जन्म के पुण्य से अथवा भगवत कृपा से किसी कार्य में को सफलता मिल जाती है। तो मनुष्य समझ बैठता है कि सफलता मेरे ही पुरुषार्थ से मिली है ।मेरे ही द्वारा इसकी रक्षा होगी ,मैं जिंदा न रहूंगा तो पता नहीं क्या अनर्थ हो जाएगा। एसा  समझ कर अभिमान से नाच उठता है ।और जहां मनुष्य ने अभिमान के नशे में नाचना आरंभ किया कि चक्कर खाकर गिर गया ।

६. अपने को तो आराम से रहना -है यह इंद्रियां, रामविलासी पुरुषों का उद्गार है ।पैसा पास में चाहे ना हो  ,चाहे आय कम हो, चाहे कर्ज का बोझ सिर पर सवार हो  पर रहना है आराम से ।आज कल चलन है- उच्चस्तर का जीवन (हाई स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग) इसका अर्थ है -स्वाद शौकीनी,  विलासिता ,फिजूलखर्ची और झूठी शान की गुलामी। सादा धोती कुर्ता पहना है तो निम्न स्तर है, कोट पतलून उच्चस्तर है। जूते उतार कर,  हाथ पैर धोकर, फर्श पर बैठकर ,हाथ से खाइए तो निम्नस्तर है ।टेबल पर कपड़ा बिछाकर ,बिना हाथ धोए, जूते पहन कुर्सी पर बैठ कर, सब की जूठन खाना उत्सव है। अपनी हैसियत के अनुसार साधारण साग सब्जी के साथ दाल रोटी खाना निम्नस्तर है, और किसी प्रकार से प्राप्त करके अंडे खाना, शराब पीना ,नॉनवेज खाना ,उच्च है ।घर में कथा कीर्तन करना निम्न स्तर है ।और सिनेमा देखना, होटलों में जाना उच्च हैं। सीधे-साधे व्यापार ,व्यवहार में थोड़ी जीविका उपार्जन करना निम्न है ,और अपनी चमक-दमक तथा छल भरे व्यवहार से दूसरों को ठगकर अधिक पैसा कमाना उच्च है। थोड़े खर्च से घर का ब्याह शादी का काम चलाना है निम्न। और बहुत अधिक खर्च करके आडंबर करना चाहे कर्जो मे घिर जाओ,अपने जीवन भर की जमा -पूंजी खत्म करना हा उच्च स्तर । हमारे यहां उच्च स्तर के जीवन का अर्थ होता है- सादगी ,सदाचार ,त्याग ,पवित्र आचरण, आदर्श चरित्र, साधुवाद और भगवत भक्ति ।इसके स्थान पर आज झूठ, कपट ,छल, विलासिता ,दुराचार ,अनाचार और भोगमय जीवन को उच्चस्तर का जीवन माना जाता है। तो मनुष्य की सच्ची उन्नति कैसे हो सकती है।
इसी प्रकार और भी बहुत से दोष। हैं जो आदत या स्वभाव बने हुए हैं इन सब दोषो से सावधान होकर ,इनका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। लौकिक उन्नति चाहने वाले और मोक्ष की इच्छा वाले दोनों के लिए दोष घातक हैं।

एक मुखी रुद्राक्ष की महिमा और उसके पहनने से लाभ

                             एक मुखी रुद्राक्ष

श्री महादेव जी ,नारद जी से कहते हैं हे मुनिश्रेष्ठ जिस मनुष्य के घर में एक मुखी रुद्राक्ष रहता है ,उसके घर में भलीभांति स्थिर होकर लक्ष्मी जी निवास करती हैं । जो मनुष्य कंठ में अथवा भुजा में एक मुखी रुद्राक्ष को धारण करता है ,उसके दुर्भाग्य का उदय नहीं होता और ना तो उसकी अकाल मृत्यु होती है। अत्यंत कठिनता से प्राप्त होने वाले भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो जाते हैं।  मनुष्य जो भी श्रेष्ठ धर्म तथा कर्म करता है ,वह महान फलदायक होता है ।(महा भागवत पुराण)
रुद्राक्ष का वृक्ष एक सदाबहार वनस्पति है, जिसकी ऊंचाई 50 से 60 फीट तक होती है। रुद्राक्ष के वृक्ष के पत्ते लंबे होते हैं। यह एक कठोर तने वाला वृक्ष होता है। रुद्राक्ष के वृक्ष का फूल सफेद रंग का होता है और इसमें लगने वाला फल शुरू में हरा, पकने पर नीला एवं सूखने पर काला हो जाता है। रुद्राक्ष इसी काले फल की गुठली होता है। इसमें दरार के सदृश दिखने वाली धारियां होती हैं, जिन्हें प्रचलित भाषा में 'रुद्राक्ष का मुख' कहा जाता है। ये धारियां 1 से लेकर 14 तक की संख्या में हो सकती हैं।
आइए जानते हैं कि किस ग्रह की शांति के लिए कौन सा रुद्राक्ष धारण लाभदायक रहता है?
1. सूर्य- एकमुखी
2. चन्द्र- दोमुखी
3. मंगल- तीनमुखी
4. बुध- चारमुखी
5. गुरु- पांचमुखी
6. शुक्र- छहमुखी
7. शनि- सातमुखी
8. राहु- आठमुखी
9. केतु- नौमुखी
रुद्राक्ष धारण करने के लिए श्रावण मास सर्वाधिक उत्तम रहता है। आप श्रावण मास के सोमवार के दिन अपने लिए उपयुक्त रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। सर्वप्रथम भगवान भोलेनाथ की यथाशक्ति पूजा-अर्चना करें तत्पश्चात रुद्राक्ष को शिवलिंग पर अर्पण करें। इसके उपरांत रुद्राक्ष को धारण करें।

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