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सोमवार, 13 मई 2019

देवराहा बाबा के वचनामृत

                    देवराहा बाबा के वचनामृत

 जितना सत्संग करें उससे दुगना मनन करें ।
प्रतिदिन यथा  संभव कुछ ना कुछ दान अवश्य करें इससे त्याग की प्रवृत्ति जागेगी।
 संसार सराय की तरह है, हमारा अपना स्थाई आवास तो प्रभु का धाम है।
 खूब जोर जोर से भगवान का नाम उच्चारण करें ,उच्च स्वर में भजन करने से मन संकल्प विकल्प से मुक्त हो जाता है ।
सत्य ईश्वर का स्वरूप है और असत्य के बराबर कोई पाप नहीं।
 मन को निविषय करना ध्यान है ,मन के विकारों को त्यागना  स्नान है ।
भक्ति  चरम अवस्था पर तब पहुंचती है जब भक्त के लिए भगवान व्याकुल होते हैं ।
संपत्ति पाकर भी जिन में उदारता पूर्वक दान की ,या सेवा की भावना नहीं आती है वह भाग्य हीन है।
 इस भाव का बारंबार बनाकर रखना चाहिए कि संसार हमसे प्रति दिन छूट रहा है ।
कलयुग में पाप नहीं करना ही महान पुण्य है।
 संसार में कितना कितना सुख भाग  हमें प्राप्त होगा, पहले ही ईश्वर ने सुनिश्चित कर दिया है ।
जो व्यक्ति वाणी का, मन का,तृषणा का वेग सहन कर लेता है वही महामुनि है ।
वाणी को मधुर और विवेक सम्मत बनाने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करें ।
देवता, गुरु, मंत्र ,तीर्थ ,औषधि और महात्मा श्रद्धा से फल देते हैं तर्क से नहीं।
 मन का शांत रखना ही योग का लक्षण है।
 पर दोष दर्शन भगवत प्राप्ति में बड़ा विघ्न है।
 मानव जीवन का परम लक्ष्य केवल दुख सुख भोगना नहीं है ,उनके बंधन से मुक्त होना है।
 ध्यान के बिना ईश्वर की अनुभूति नहीं होती ।
स्नान करने से तन की शुद्धि, दान करने से धन की और ध्यान करने से मन की शुद्धि होती है।
 जगत के किसी भी पदार्थ से इतना स्नेह ना करो कि  प्रभु भक्ति में बाधक बन जाए ।
मानसिक पापो का परित्याग करो मन में जमी जीर्ण वासना भी दुष्कर्म कराती है।
 भूखे को रोटी देने में, दुखियों के  आंसू पोछने में जितना पुण्य लाभ होता है उतना वर्षों के जप तप से नहीं होता है ।
संसार में रहने से नहीं ,संसार में मन लगाने से पतन होता है।
संसार में रहो पर अपने में संसार को मत रखो।
 ईश्वर गुप्त है ,उसकी प्राप्ति के लिए जो साधना करो, वह गुप्त रखो।
भक्ति तीन प्रकार की होती है,पहली जो पत्थर के सामान डूब जाती है, और बाहर से गीली हो जाती है,कितु भीतर से सूखी रहती है ।दूसरी जो कपड़े के समान सब तरफ  से गीली हो जाती है फिर भी पानी से अलग रहती है। तीसरी शक्कर के समान पानी मे घुलकर  एक हो जाती है, वही भक्ति श्रेष्ठ है ।
 सच्चे भक्तों  की यही पहचान है कि वह परम विश्वास के साथ एक बार भगवान के सामने अपनी बात रख कर, चुपचाप भगवान का निर्भय भजन करता रहता है। (प्रेषक श्री ललन प्रसाद जी सिन्हा )

ईश्वर का कहना है कि मै तुम्हारे अंग- संग हूं, तुम महसूस तो करो

                         मैं तुम्हारे अंग संग हूं


 एक नई भोर के आगमन के साथ आज जब तुम उठे, तो मैंने तुम्हें देखा ,सोचा कि तुम अपने दिन की शुरुआत करने से पहले मेरा आशीर्वाद लेना जरूरी समझोगे ।भले ही तुम चुप रहोगे पर मुझे प्रणाम जरूर करोगे, पर तुम तो पहनने के लिए सही कपड़े ढूंढने में व्यस्त थे और इधर उधर भाग कर काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे।
 तुम नाश्ता करने बैठे ,मुझे लगा ,अब तुम मुझसे भी दो निवाले खाने को कहोगे, पर तुम इतनी जल्दी में थे कि यह भूल ही गए कि तुम्हारे द्वारा प्यार से खिलाया गया एक निवाला ही मेरी भूख मिटा सकता है। फिर भी तुम्हें जी भर कर खाता देख ,मैं अपनी भूख भी भूल गया ।खाने के पश्चात तुम्हारे पास 15 मिनट का समय था, तुम खाली बैठे मन ही मन कुछ सोचते रहे, मैंने सोचा कि अब तुम मुझसे बात करने के लिए हिचकिचा  रहे हो कि कहीं मैं तुमसे नाराज तो नहीं, नादान समझ, मैंने तुम्हारी तरह अपना पहला कदम उठाया ब ही था कि तुम अपनी फोन की तरफ भागे ,अपने मित्र से ताजी खबर लेने के लिए। मेरी आशा एक बार फिर टूट गई। परंतु तुम्हें हंसता हुआ देख, मैं मुस्कुरा दिया। तुम घर से निकलने लगे, मेरा विश्वास था कि अब तो तुम जाने से पहले मुझे प्रणाम करना नहीं भूलोगे, पर मेरा विश्वास तब टूटा जब मैंने देखा कि तुम्हें शीशे में अपने चेहरा देखना तो याद था पर मेरी आंखों में अपने लिए  स्नेह नहीं । तुमने जरूरत तो ना समझी, पर फिर भी मैंने तुम्हें अपना आशीर्वाद दिया।
 वह आशीर्वाद जो कभी हर परीक्षा में तुम्हारे लिए अमूल्य था, पर दुनिया की भाग दौड़ ने तुम्हें इसका मूल्य भुलवा दिया है। तुम घर से निकले यह सोच कर कि तुम अकेले हो, पर तुम्हें अपने कदमों के साथ मेरे कदमों की आहट सुनाई ही नहीं दी। पूरा समय तुम अपने कार्यों में तथा मित्रों के बीच व्यस्त थे और मैं पहले की तरह ही तुम्हें एक टक देख रहा था। दोपहर हुई मैंने देखा कि भोजन करने से पहले तुम इधर उधर नजर घुमा रहे थे ,संकोच में भरी तुम्हारी आँखें क्या मुझे याद करने से रोक रही थी और संकोच किस से, मित्र जन से, दुनिया से या फिर अपने आप से। समय का पहिया यूं ही चलता रहा और मेरे इंतजार का क्षण यूं ही बीतते रहे। इसी प्रकार शाम हो गई और तुम लौट आए। एक बार फिर मैंने अपने आशा के दीपक जलाए, यह सोच कर कि अपने कार्य को समाप्त करने के बाद तुम मुझसे बात करना चाहोगे। पर यह क्या? तुम तो टीवी देखने बैठ गये। तुम उसमें कुछ देखना तो नहीं चाहते थे, पर ना जाने किस विवशता  से उसके सामने बैठकर चैनल बदलते रहे। मैं समझ चुका  था कि कोई बात तुमहें अंदर ही अंदर खा रही है और तुम्हारे  मन की मंशा को मैने तुम्हारी आंखों में पढ़ लिया था । मुझे लगा कि अब तुम मुझ से राय लेने के लिए मेरे पास आओगे। तुम्हें यह तो याद होगा कि हर मुश्किल घड़ी में मैंने तुम्हारा साथ दिया है, पर अब शायद तुम्हें मेरी सहायता की जरूरत नहीं इसलिए तुम अपने मन को मन में दबाए हुए सोने के लिए बिस्तर पर लेट गए। तुम कुछ सोचने लगे। तुम्हारी आंखों में ना तो नींद थी, ना ही चैन। तुम्हारी यह बेचैनी जब मुझसे देखी ना गई तो मैं तुम्हारी तरफ बढा़, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख कर मन ही मन सोचा कि अब तुम आँखो खोलोगे और यह देखोगे कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, पर तुम तो सो चुके थे और इसी के साथ मेरा इंतजार अधूरा रह गया । लेकिन आज अगर मेरी आशा का दीपक बुझ गया ,तो क्या हुआ कल यह दीप मैं फिर जला लूंगा। तुम मेरी संतान हो , मेरा ही अंश हो, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं। तुम्हें पाने के लिए मेरे मन में जो चाहत  और धीरज है, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह जरूरी नहीं कि तुम किसी विवशता पूर्वक मेरा ध्यान करो।
 मैं तुम्हारे मुख से अपनी  प्रशंसा नहीं, बल्कि प्यार के दो बोल सुनना चाहता हूं। मैं तुम्हारी आंखों में दुनिया से संकोच नहीं बल्कि अपने लिए स्नेह देखना चाहता हूं ,और हां मैं तुम्हारी बातों में डर और इच्छा ही नहीं, बल्कि  आदर और स्नेह देखना चाहता हूं। तुम्हारा भय, तुम्हारी इच्छाएं ,तुम्हारा दुख, सब मेरे होंगे और मैं तुम्हारा।
 कल फिर तुम नींद से उठोगे, एक नई भोर के साथ और मैं फिर तुम्हारा स्नेह पूर्वक इंतजार करूंगा। एक बार फिर अपनी आशा का दीपक जलाएं ,यह सोच कर कि कभी तो तुम्हें मेरी उपस्थिति का एहसास होगा ।
तुम्हारा साथी- भगवान। (प्रेषक- श्री एमके राय जी)

अपने जन्म को सफल कैसे करें

                             मानव कल्याण

 मानव जीवन की सफलता भगवत प्राप्ति में है, ना कि विषय भोगों की प्राप्ति में , जो मनुष्य जीवन के असली लक्षय, भगवान को भूलकर विषय भोगो की प्राप्ति और उनके भोग में ही रचा बसा रहता है, वह अपने दुर्लभ अमूल्य जीवन को केवल व्यर्थ ही नहीं खो रहा है, बल्कि अमृत के बदले में भयानक विष ले रहा है।
बहुत जन्मों के बाद बड़े पुण्य बल तथा भगवत कृपा से जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, इंद्रियों के भोग तो अन्यान्य योनियों में भी मिलते हैं, पर भगवत प्राप्ति का साधन तो केवल इसी शरीर में है, इस को पा कर भी जो मनुष्य विषय भोगो में ही फंसा रहता है ,वह तो पशु से भी अधिक मूर्ख है।
 तुम मनुष्य हो , अपने मनुष्यत्व को सदा जगाए रखो। एक क्षण के लिए भी भगवान को मत भूलो, सदा याद रखो कि यहां इस शरीर में भगवान ने तुमको पशु की भांति केवल इंद्रिय भोगो को भोगने के लिए नहीं भेजा है, तुम्हें उस बहुत बड़ी सफलता को प्राप्त करना है जिससे अब तक तुम वंचित रहते आए हैं, वह सफलता है भगवत प्राप्ति। इस सफलता को लक्ष्य बनाकर जो मनुष्य निरंतर भगवान में मन रखकर जगत के कार्य करता है, उनमें कभी मन को फंसाता नहीं है, वही बुद्धिमान है। जीवननिर्वाह में जो काम आवश्यक हो ,उसे करो, पर करो भगवान को याद करते हुए ,जो भी कार्य करो वह भगवान को अर्पित करते हुए चलो। तो कोई भी आपसे जाने-अनजाने गलत कार्य नहीं होगा।
 जय सियाराम

बुधवार, 13 मार्च 2019

श्री कृष्ण जी के नामों के अर्थ का वर्णन

 श्री कृष्ण जी के नामों के अर्थ का वर्णन परम भागवत श्री संजय जी के द्वारा-

 श्री कृष्णा माया से आवरण  करते हैं , यानी कि ढके रहते हैं और सारा जगत उन में निवास करता है ,तथा वे प्रकाशमान है इसलिए इन्हें 'वासुदेव' कहते हैं। अथवा सब देवता इन में निवास करते हैं, इसलिए इन्हें 'वासुदेव' कहते हैं।
 सर्व व्यापक होने के कारण इनका नाम विष्णु है। मा यानी आत्मा कि उपाधि रूप बुद्धि वृत्ति को ,मौन, ध्यान या योग से दूर कर देते हैं ।इससे श्री कृष्ण का नाम 'माधव' है।
 मधु अर्थात पृथ्वी आदि तत्वों के संहार-कर्ता होने से अथवा वे सब तत्व इन में लय को प्राप्त होते हैं।इन्हें 'मधुहा' भी कहते हैं ।
मधु नामक देत्य का वध करने के कारण इनका नाम 'मधुसूदन' कहा जाता है ।
कृषि शब्द सत्ता वाचक है व 'ण 'सुख वाचक है, दोनों धातु के अर्थ रूप सत्ता व आनंद के संबंध से भगवान का नाम 'कृष्ण' हो गया।
 अक्षय ,अविनाशी ,परम स्थान का या हृदय कमल का नाम पुंडरीक है, भगवान वासुदेव उस में विराजित रहते हैं और उसका कभी क्षय नहीं होता ,इसलिए इन्हें 'पुंडरीकाक्ष' भी कहते हैं।
 दस्यु का दलन करते हैं ,इससे भगवान का नाम 'जनार्दन' है वह सत्य से कभी विमुक्त नहीं होते और सत्य उनमें कभी अलग नहीं होता। वृषभ का अर्थ है वेद , और   ईक्षण का अर्थ है ज्ञापक  अथार्त  वेद के द्वारा भगवान जाने जाते हैं इसलिए उनका नाम 'वृषभेक्षण' है।
वे किसी के गर्भ से जन्म ग्रहण नहीं करते, इससे  उन्हें 'अज' कहते हैं ।
वे इंद्रियों का दमन किए हुए हैं, और इंद्रियों में स्व- प्रकाश है ,इससे भगवान का नाम 'दामोदर' है।
 हर्ष- स्वरूप ,सुख, ऐश्वर्य तीनों ही भगवान श्रीकृष्ण में है इसलिए इन्हें 'ऋषिकेश' भी कहते हैं।
 अपनी दोनों विशाल भुजाओं से इन्होंने स्वर्ग व पृथ्वी को संभाल रखा है, इसलिए यह 'महाबाहु' भी कहलाते हैं।
 वे संसार से कभी लिप्त नहीं होते इसलिए इन्हें 'अधोक्षज' भी कहते हैं।
नर इनके  आश्रय हैं, इसलिए इन्हें 'नारायण' भी कहते हैं ।
वे सब भूतों के पूर्ण करता है और सभी भूत उनमें लय को प्राप्त होते हैं ,इसलिए उनको 'सर्व 'कहा जाता है।
 श्री कृष्ण सत्य है ,और सत्य उनमें है ,इससे उनका नाम 'सत्य' भी है।
 चरणों द्वारा विश्व को व्याप्त करने वाले होने से विष्णु और सब पर विजय प्राप्त करने के कारण भगवान को 'जिष्णु' कहते हैं।
 शाश्वत और अनंत होने से उनका नाम 'अनंत' है ।
और गो यानी इंद्रियों के प्रकाशक होने से 'गोविंद 'कहे जाते हैं।

नारायण कवच( इस पाठ के द्वारा शत्रु से रक्षा हो जाती है)

                    Narayan Kavach नारायण कवच





।। श्री हरिः ।।
अथ श्रीनारायणकवच
राजोवाच
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम्।।१।। 
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे।।२।। 
राजा परिक्षित ने पूछा - भगवन् ! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को खेल-खेल में - अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की ।। १-२ ।। 
श्रीशुक उवाच 
वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः श्रुणु ।।३।। 
विश्वरुप उवाच 
धौताड़् घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः ।
कृतस्वांगकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ।।४ ।। 
नारायणमयं वर्म संह्येद् भय आगते ।
पादयोर्जानुनोरुर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ।।५।।
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोकांरादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ।।६।।
श्रीशुकदेवजी ने कहाः परीक्षित् ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३ 
उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ।।३।।
विश्वरुप ने कहा - देवराज इन्द्र ! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायणकवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिए । उसकी विधि यह है कि पहले हाथ - पैर धोकर आचमन करें, फ़िर हाथ में कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुहँ बैठ जाय. इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से ' ॐ नमो नारायणाय ' और ' ॐ नमो भगवते वासुदेवाय '-इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करें । पहले 'ॐ नमो नारायणाय ' इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरो, घुटनों, जांघो, पेट हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करें । अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के यकार से लेकर ॐ कारपर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगो में विपरीत क्रमसे न्यास करें। ।।४ -६ ।। 
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु।।७।। 
तदनन्तर “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस द्वादशाक्षर -मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बाँयीं तर्जनी तक दोनों हाँथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगुठों की दो-दो गाठों में न्यास करे।।७।। 
न्यसेद् धृदय ओंकारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।८।। 
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।९।। 
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति ।।१०।। 
फिर “ॐ विष्णवे नमः” इस मन्त्र के पहले के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में, ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र , में ‘ष’ का भौहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे इस प्रकर न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरूष मन्त्रमय हो जाता है ।।८-१०।। 
आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ।।११।। 
इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तद् रूप ही चिन्तन करे तत्पश्चात् विद्या, तेज, और तपः स्वरूप इस कवच का पाठ करे ।।११।। 
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताड़् घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापपाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१२।। 
भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१२।। 
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।१३।।
मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें 
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।१४।। 
जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।१४।। 
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।१५।।
अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।१५।। 
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।१६।।
भगवान् नारायण मारण – मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।१६।। 
सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।१७।।
परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।१७।।
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।१८।।
भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।१८।। 
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कलेः कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।१९।।
भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।१९।। 
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसंगवमात्तवेणुः ।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।२०।।
प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।२०।।
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।२१।।
तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।२१।।
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।२२।।
रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।२२।।
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।२३।।
सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।२३।।
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि। 
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।२४।।
कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर – चूर कर दिजिये ।।२४।।
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।२५।।
शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।२५।।
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ।।२६।।
भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।२६।। 
यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।२७।।
सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।२८।।
सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।२७-२८।।
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।२९।।
बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।२९।।
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।३०।।
श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।३०।।
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ।।३१।।
जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।३१।।
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।३२।।
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।३३।।
जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।३२-३३।।
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।३४।।
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।३४
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।३५।।
देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।३५।।
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।३६।।
इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है ।।३६।।
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।३७।।
जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।३७।।
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।३८।।
देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।३८।।
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ।।३९।।
जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।३९।।
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।४०।।
वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।४०।।
।।श्रीशुक उवाच।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।४१।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।४१।। 
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ।।४२।।
परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे ।।४२।। 
।।इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्।। 

( कोई भी कवच करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रातः काल स्नान इत्यादि करके शुद्ध  होकर, पवित्र आसन पर बैठे और पूर्व की ओर मुख करके बैठे, फिर शुद्ध चिंतन से कवच करें ,ईश्वर का ध्यान  करते हुए शुरू करें)

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

भजन कैसे करें?

                           भजन कैसे करें


'भजन करना ' एक बात है और 'भजन होना' दूसरी बात है। हम  सांस लेते नहीं है, हमें सांस आती है ।सांस लेने के लिए अभ्यास नहीं करना पड़ता, ना किसी शास्त्रज्ञ या सत्संग की आवश्यकता होती है। सांस सहज ही आती हैं ,कभी रुक जाती हैं, तो परम व्याकुलता होती है। इसी प्रकार सांस की भांति ,भजन होना चाहिए। क्षणभर भजन छुटने से व्याकुलता हो जाए ,तभी भजन है।

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