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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

हमें कष्ट क्यों होता है?

                         हमें कष्ट क्यों होता है?




 जब हम हर समय ईश्वर के ध्यान में उनकी लीलाओं में और मंत्र जाप में अपने आप को व्यस्त रखते हैं, तो हम महसूस करते हैं कि दुख हो कर भी हम दुखी नहीं होते, क्योंकि प्रभु स्मरण ही हमें कष्ट का अनुभव नहीं होने देता। जब हम अपने ईश्वर को भूलकर संसार में व्यस्त हो जाते हैं, तो हमें छोटे से छोटे कष्ट का भी अनुभव होने लगता है।
दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ मे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट ,चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें,हमें याद करें ।भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया है ,और सद्बुद्धि प्राप्त की है ।सद्बुद्धि बनी रहे ,इस बात की ही  तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है ।अपनी वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए  ,तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता  ,प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है।(कल्याण)

गीता माधुर्य अध्याय २का शेष(श्री मद्भागवत गीता का सरल रूप)

                    गीता माधुर्य अध्याय २का शेष

क्या मैं यह सह नही सकता भगवन्?
नही, तू सह नही सकता,क्योंकि तेरे शत्रुओं को वैरभाव निकालने का मौका मिल जायेगा। वेे तेरी सामर्थ की निन्दा करते हुये तुझे बहुत सी न कहने वाली बातें कहेंगे। उससे बढ़कर दुख और क्या होगा?॥३६॥
और अगर मैं युद्ध करूं तो? 
युद्ध करते हुए अगर तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग मिल जायेगा और अगर तू युद्ध जीत गया तो तुझे पृथ्वी का राज्य मिल जायेगा। अतः हे कुन्ती नन्दन! तू युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा॥३७॥
क्या युद्ध से मुझे पाप नही लगेगा भगवन् ?
नहीं, पाप तो स्वार्थ बुद्धि से ही होता है, अतः तू जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख - दुख में समबुद्धि रखकर युद्ध कर। इस प्रकार युद्ध करने से तुझे पाप नही लगेगा॥३८॥
जिस समबुद्धि से कर्म करते जरा भी पाप नही लगता, उसकी और क्या विशेषता है भगवन्? 
इस समबुद्धि की बात मैंने पहलें सांख्ययोग मेंं कह दी है अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन-
१.  इस सम बुद्धि से युक्त हुआ तू  संपूर्ण  कर्मों के  बंधन से  छूट जाएगा ।
२.  इस सनबुद्धि के  आरंभ मात्र का भी नाश नहीं होता।
३.  इसके अनुष्ठान का कभी उल्टा फल नहीं होता।
४.  इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान जन्म मरण रूप महान भव से रक्षा कर लेता है ।।३९-४०।।
जिस समबुद्धि की आपने इतनी महिमा गाई है उसको प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इस समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका( एक परमात्मा प्राप्ति की निश्चय वाली) बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चय नहीं है ,ऐसे मनुष्य की बुद्धियाँ अनंत और बहू शाखाओं वाली होती है।
उनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चित क्यों नहीं होता?
जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं ,स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं ,वेदों में कहे हुए तमाम कर्मों में ही प्रीति रखने वाले हैं, तथा भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं -ऐसा कहने वाले हैं, वह बेसमझ मनुष्य इस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्मफल को देने वाली है तथा वह भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भी बहुत ही क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ।भोगों का वर्णन करने वाली पुष्पित वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है तथा भोगों की तरफ खींच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन मनुष्य की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं हो सकती।

भोग और ऐश्वर्या की आसक्ति से बचने के लिए मुझे क्या करना चाहिए भगवन?
वेद तीनों गुणों के कार्य (संसार) का वर्णन करने वाला है, इसलिए हे अर्जुन! तू वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों से रहित हो जा ,राग द्वेष आदि द्वदों से रहित हो जा और नित्य निरंतर रहने वाले परमात्मा तत्व में स्थित हो जा ।तू अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की और प्राप्त वस्तु की रक्षा की भी चिंता मत कर और केवल परमात्मा के परायण हो जा अर्थात एक परमात्मा प्राप्ति का ही लक्ष्य रख।।४५।।
ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होने पर छोटे  सरोवर का कोई महत्व नहीं रहता ,कोई जरूरत नहीं रहती ।ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में संपूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है अथार्त उनके मन में संसार का, भोगों का कोई महत्व नहीं रहता।
मेरे लिए ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हां ,कर्म योग है ।तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है ,फल में कभी नहीं अथार्त तू फल की इच्छा ना रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्म फल का हेतु भी मत बन अथार्त जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर, इंद्रियां ,मन, बुद्धि आदि में भी ममता  ना रख।
तो फिर मैं कर्म करूं ही क्यों ?
कर्म ना करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
 तो फिर कर्म करूं कैसे ?
सिद्धि- असिद्धि में सम होना योग कहलाता है, इसलिए हे धनंजय !तू  आसक्ति  का त्याग करके योग में स्थित होकर कर्म कर ।
अगर योग में स्थित होकर कर्मका कर्म ना करूं तो?
 इस समता के बिना सकाम कर्म अत्यंत ही निकृष्ट है ।अतः हे धनंजय !तू सम बुद्धि का ही अाश्रय ले क्योंकि कर्म फल की इच्छा करने वाली कृपण है अर्थात कर्म फल के गुलाम है ।
कर्म फल की इच्छा वाले कृपण है तो फिर श्रेष्ठ कौन है ?समबुद्धि संयुक्त मनुष्य श्रेष्ठ है सम बुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तू समता में ही स्थित हो जा, क्योंकि कर्मों में समता ही कुशलता है ।
समबद्धि का क्या परिणाम होगा भगवन?
 समता से युक्त मनुष्य कर्म जन्य फल का त्याग करके और जन्म रूप बंधन से रहित होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं ।
यह मैं कब समझूँ कि मैंने कर्म जन्य फल का त्याग कर दिया? 
जब तेरी बुद्धि   मोह रूपी दलदल  को तर जाएगी तब तुझे सुने हुए और  सुनने में आने वाले  भोगों से वैराग्य हो जाएगा ।वैराग्य होने पर फिर क्षमता की प्राप्ति कब होगी?
 शास्त्रों के अनेक सिद्धांतों से, मतभेदों से विचलित हुए तेरी बुद्धि जब संसार में सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में अचल हो जाएगी तब तुझे योग शब्द रूप समता की प्राप्ति हो जाएगी। अर्जुन बोले- क्षमता की प्राप्ति हुए बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ?
भगवान बोले- हे पार्थ ! जब साधक मन में रहने वाले संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है  और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है ।तब वह स्थितप्रज्ञ सिद्धि वाला कहलाता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2


                          गीता माधुर्य  अध्याय 2


रथ के मध्य भाग में बैठे बैठ जाने पर अर्जुन की क्या दशा हुई संजय? 
 संजय बोले- हे राजन्! जो बड़े उत्साह से युद्ध करने आए थे, पर कायरता के कारण जो विषाद कर रहे हैं और जिनके नेत्रों में इतने आंसू भर आए हैं कि देखना भी मुश्किल हो रहा है, ऐसे अर्जुन से भगवान मधुसूदन बोले कि हे अर्जुन! इस बेमौके पर  तुझ में यह कायरता कहां से आ गई? यह कायरता ना तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा धारण करने लायक है, ना स्वर्ग देने वाली है,और ना कीर्ति देने वाली है। इसलिए हे पार्थ! तू इस कायरता को अपने में मत आने दे; क्योंकि तेरे जैसे पुरुष में इसका आना उचित नहीं है। अतः है परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥१-३॥
ऐसा सुनकर अर्जुन क्या बोले संजय ?
अर्जुन बोले- महाराज! मैं मरने से थोड़े ही डरता हूं, मैं तो मारने से डरता हूं। हे हरीसूदन! यह भीष्म और द्रोण तो पूजा करने योग्य हैं। इसलिए हे मधुसूदन! ऐसे पूज्य जनों को तो कटु शब्द भी नहीं कहना चाहिए। फिर उनके साथ मैं बाणों से युद्ध कैसे करूं? ॥४॥
अरे भैया! केवल कर्तव्यपालन के सामने और कुछ भी देखा जाता है क्या?
 महाराज!  महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस मनुष्य लोक में भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर आपके कहे अनुसार मैं  युद्ध भी करूं तो गुरुजनों को मारकर उनके खून से लथपथ तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही भोगूँगा! इस से मुझे शांति थोड़े ही मिलेगी॥५॥
फिर तुम क्या करना चाहते हो ?
हे भगवान्! हम लोग यह नहीं समझ पा रहे युद्ध करना ठीक है या युद्ध ना करना ठीक है तथा युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वह हमको जीतेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है भगवन्! कि हम जिन को मार कर जीना भी नहीं चाहते, वही धृतराष्ट्र के संबंधी हमारे सामने खड़े हैं। फिर इनको हम कैसे मारे?॥६॥
जब तुम निर्णय नहीं ले सकते हो तो फिर तुमने क्या उपाय सोचा?
 हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा क्षात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।  इसलिए जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूं और आप की शरण में हूं। आप मुझे शिक्षा दीजिए।
परंतु महाराज आपने पहले जैसे युद्ध करने के लिए कह दिया था वैसा फिर ना करें क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहां का धन धान्य से संपन्न और निष्कंटक राज्य मिल जाए अथवा देवताओं का अधिपत्य मिल जाए तो भी मेरा यह इंद्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाए,ऐसा मैं नहीं देखता॥७-८॥
फिर क्या हुआ संजय?
 संजय बोलें - हे राजन्! निंद्रा विजय अर्जुन, अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से " मैं युद्ध नहीं करूंगा " - ऐसा साफ-साफ कह कर चुप हो गए॥९॥
 अर्जुन के चुप होने पर भगवान ने क्या कहा?
अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुए कहने लगे-तू शोक ना करने लायक का शोक करता है, और पंडिताई की सी बड़ी - बड़ी बातें करता है; परंतु जो मर गए हैं उनके लिए और जो जीते हैं उनके लिए भी पंडित लोग शौक नहीं करते॥१०-११
शोक क्यों नहीं करते भगवन्?
मैं,तू और यह राजा लोग पहले नहीं थे - यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है अर्थात हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पंडित शौक नहीं करते॥१२॥
 इस बात को कैसे समझा जाए ?
अरे भैया! देह धारी शरीर में जैसे कुमार, युवा, और वृद्धा अवस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीर की प्राप्ति भी होती है। इस विषय में पंडित लोग मोहित नहीं होते ॥१३॥कुमार आदि अवस्थाएं शरीर की होती है ,यह तो ठीक है ,पर अनुकूल- प्रतिकूल ,सुखदाई -दुखदाई ,पदार्थ सामने आ जाएँ, तब क्या करे?
 हे कुन्तीनन्दन!  इन्द्रियों के जितने विषय हैं, वह सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुख देने वाले हैं। परंतु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिए उनको तुम सहन करो,उनमें तू निर्विकार रहो ॥१४॥
उनको सहने से, उनमे निर्विकार रहने से क्या लाभ होता है?
पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुख में समान रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय सुखी दुखी नहीं करते, वे स्वयं परमात्मा की प्राप्ति का अनुभव कर लेता है॥१५॥
 वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है? 
सत्(चेतन त्तव) - की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् यानी कि जड़ पदार्थों की सत्ता ही नहीं है। इन दोनों के तत्व को ज्ञानी महापुरुष जान लेते हैं, इसलिए भी अमर हो जाते हैं॥१६॥
वह सत् (अविनाशी) क्या है भगवन्? 
जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो । इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता॥१७॥
 असत्(विनाशी) क्या है भगवन्? 
इस अविनाशी, अप्रमेय, में और नित्य रहने वाली शरीरी के सब शरीर अंत वाले हैं, विनाशी हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य कर्म का पालन करो॥१८॥
 युद्ध में तो मरना- मारना ही होता है; इसलिए अगर शरीर को मरने -मारने वाला माने, तो?
 जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इस को मारने वाला मानता है। वे दोनों ही ठीक नहीं जानते; क्योंकि यह ना किसी को मारता है और ना स्वयं मारा जाता है॥१९॥
 यह शरीरी मरने वाले क्यों नहीं है भगवन् ? 
यह शरीरी ना तो कभी पैदा होता है और ना कभी मरता ही है।  यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्म रहित नित्य-निरंतर रहने वाला शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 ऐसा जानने से क्या होगा?
 हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय  मानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है? ॥२१॥
तो फिर मरता कौन है भगवन् ? 
 यह शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नई शरीरों में चला जाता है॥२२॥
 नये-नये शरीरों को धारण करने से इसमें कोई ना कोई विकार तो आता ही होगा?
 नहीं, इसने कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी  को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती॥२३॥
यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं? 
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता,जलाया भी नहीं जा सकता, गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता; क्योंकि यह है नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण,  स्थिर  स्वभाव वाला, अचल और सनातन है। यह देही- इंद्रियों आदि का विषय नहीं है अथार्त यह अप्रत्यक्ष नहीं दिखता। यह अन्त:करण का भी विषय नही हैं और इसमें कोई विकार भी नहीं होता है इसलिए इस देही को ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२४-२५॥
 इस शरीरी को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
 हे महाबाहो! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इस का शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है,वह जरूर पैदा होगा। इस नियम को कोई भी हटा नहीं सकता। अतः शरीरी को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२६-२७॥
 शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए, यह तो ठीक है ;पर शरीर को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्.! 
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में प्रकट दिखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही कौन सी है?॥२८॥
तो फिर शोक क्यों होता है?
 ना जानने से।
जानना कैसे हो? 
वह जानना अथार्त अनुभव करना इंद्रियां, मन  बुद्धि से नहीं होता, इसलिए इस शरीरी  को देखना, कहना, सुनना  सब आश्चर्य की तरह ही होता है। अत:इस  को सुनकर के कोई भी नहीं जान सकता अर्थात इसको अनुभव तो स्वयं ही होता है॥२९॥
 तो फिर यह कैसा है?
 हे भरतवंशी अर्जुन! सबके देह में रहने वाला यह देही नित्य ही अवध्य है, ऐसा जानकर तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥३०॥
 शोक दूर करने की तो आपने बहुत सी बातें बता दी पर मुझे जो पाप का भय लग रहा है वह कैसे दूर हो? 
अपने धर्म क्षत्रिय धर्म को देख कर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म में युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है॥३१॥
 तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिए?
 नहीं, जो युद्ध आप से आप प्राप्त हो जाए सामने आ जाए, वह युद्ध क्षत्रिय के लिए स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिए पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रिय को प्राप्त होता है, वही वास्तव में सुखी होते हैं*॥३२॥(भोगों का मिलना कोई सुख नहीं है प्रत्युत वह तो महान दुखों का कारण है वास्तविक सुख वही है जो दुख से रहित हो। दुख से रहित सुख  यही है कि स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म करने का अवसर मिल जाए अतः जिन को कर्तव्य पालन का अवसर प्राप्त हुआ है वही वास्तव में सुखी और भाग्यशाली हैं।)
 ऐसे आप से आप प्राप्त युद्ध को मैं ना करूं, तो? 
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षत्रिय धर्म का और तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तुझे कर्तव्य पालन ना करने का पाप भी लगेगा॥३३॥
अप कीर्ति से क्या होगा ?
अरे, तो युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। यह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुखदाई होती है। ॥३४॥
और क्या होगा भगवान्,? 
जिन भीष्म द्रोणाचार्य आदि महारथियों की दृष्टि में तू श्रेष्ठ माना गया है, उनकी दृष्टि में तू तुच्छता को प्राप्त हो जाएगा और वह महारथी लोग तुझे मरने के भय के कारण युद्ध से उपरत हुआ मानेंगे।
 शेष कल-


शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

(सच्चाई ) पढो़, समझो और करों

                       गरीब महिला की ईमानदारी

 जय श्री राधे ,गीता प्रेस वालों की कल्याण मैगजीन को मैं हमेशा पढ़ती रहती हूं, उसी में कुछ हमें शिक्षाप्रद कहानियां सुनने को मिलती हैं ,जिसमें सच्चाई होती है। उसी में से यह एक कहानी मैंने पढ़ी और मुझे लगा कि आप सबके साथ भी इसको शेयर करूँ-

घटना इस प्रकार है- मुझे कुछ प्लास्टिक डिब्बे तथा स्टील के बर्तनों की खरीदारी करनी थी और इसके लिए मैं अपने पौत्र के साथ सोनिया विहार स्थित मार्केट में एक दुकान पर गया जहां पर अष्टमी - नवमी की वजह से वह काफी बड़ी भीड़ थी दुकानदार को मैंने अपना सामान नोट कराया तथा उसने कहा कि आपको आधे घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। मैं दुकान में एक तरफ खड़ा हो गया। तभी मेरी दृष्टि एक महिला पर पड़ी जो दुकानदार से दो - 4 मिनट अपनी भाषा में झगड़ती और फिर एक तरफ बैठ कर रोने लगती, ऐसा तीन - चार बार हुआ। दुकानदार को कोई परवाह नहीं थी। लेकिन उस महिला के आंसू देख कर, मेरी व्याकुलता बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया कि मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और उससे जानना चाहा कि आखिर हुआ क्या है?परेशानी की वजह से उसकी भाषा स्पष्ट समझ नहीं आ रही थी लेकिन जो कुछ मैं समझ पाया उसके अनुसार ऐसा लगा कि महिला ने अपना सामान ख़रीदा और भुगतान करते समय उसने दुकानदार को एक की जगह ₹500 के दो नोट गलती से दे दिए और अब वह ₹500 का एक नोट वापस लेना चाहती है। दुकानदार इस बात को कतई मानने को तैयार नहीं था, और बार - बार यह कह रहा था कि एक नोट तुम से कहीं गिर गया होगा। महिला कुछ बोलती और फिर बैठ कर रोने लगते। वेशभूषा से महिला गरीब परिवार की लग रही थी। लेकिन उसके दृढ़ता तथा आंसू उसकी इमानदारी की गवाही दे रहे थे। मुझे उसकी सहायता करने की इच्छा हुई और मैंने ₹500 का एक नोट निकालकर उसको देना चाहा। तो वह और जोर से रोने लगी। उस नोट को काफी प्रयत्न्न करने के पश्चात भी मुझसे नहीं लिया और दुकानदार की ओर इशारा करते रही, जिससे लगता था कि वह दुकानदार से ही लेना चाहती है । लेकिन दुकानदार को उसकी कोई परवाह नहीं थी। मेरा सामान अभी तक नहीं हुआ था 15 मिनट और बीत गए। मैंने एक तरकीब निकाली और चुपके से ₹500 का नोट दुकानदार को पकड़ा दिया और इशारो- इशारो में उसको देने के लिए कह दिया। थोड़ी देर बाद दुकानदार ने उस महिला को दिया तो उसने उसे लेने से मना करते हुए धीरे-धीरे बताया कि ₹500 नहीं, केवल सो रुपए चाहिए। 1 घंटे के घटना क्रम के पश्चात पता चला कि उस महिला ने ₹200 का सामान लेकर ₹500 का नोट दिया जिसमें दुकानदार ने गलती से 300 स्थान पर उस महिला को मात्र ₹200 वापस किए थे ।अब दुकानदार को भी धीरे-धीरे याद आ रहा था और उसने उस महिला को सो रुपए का नोट दे दिया। जिसे लेकर वर आँसू पोंछती हुई अपने घर चली गई। मैं उससे बस इतना कुछ पाया कि उस के पति क्या करते हैं? उसने मुस्कुराती उत्तर दिया- अखबार बेचते हैं। ऐसी देवी को मेरा प्रणाम है। जिसे ₹500 के नोट की जगह अपनी मेहनत का ₹१०० का नोट अधिक मूल्यवान लगा। दुकानदार ने मेरा नोट धन्यवाद के साथ वापस किया और काफी कोशिश करने के पश्चात भी महिला को दिये ₹१00 भी नहीं लिये जिन्हें मैं देना चाहता था।
एम एल शर्मा( कल्याण मैगजीन के द्वारा सच्ची घटना पर आधारित)

गीता माधुर्य अध्याय 1 का शेष

                   गीता माधुर्य अध्याय 1 का शेष


 कौरव सेना के बाजे बजने के बाद पांडव सेना के बाजे बजने चाहिए थे पर उस सेना को कोई आज्ञा नहीं मिली। तब सफेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे हुए भगवान श्री कृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक और अर्जुन ने देवदत्त नामक दिव्य शंख को बड़ी जोर से बजाया। उसके बाद भीम ने पाैण्ड्र नामक, युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक, नकुल ने सुघोष नामक और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक अलग अलग शंख बजाये
फिर और किसने शंख बजाये? 
हे राजन्! पांडव सेना के श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज, महारथी शिखंडी, तथा धृष्टधुम्न, राजा विराट, अजय सत्यकि, राजा द्रुपद, द्रोपदी के पांचों पुत्र और महाबाहु सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु - इन सभी महारथियों ने अपने-अपने शंख बजाएं।
पांडव सेना की उस शंख ध्वनि का क्या परिणाम हुआ? 
पांडव सेना की उस शंखो की ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुँजाते हुए अन्याय पूर्वक राज्य हड़पने वाले कौरवों के ह्दय विदीर्ण कर दिए।
शंख बजाने के बाद पांडवों ने क्या किया संजय?

है महीपते! शंखो के बजने के बाद युद्ध आरंभ होने के समय आप के संबंधियों(कौरवों) को देखकर कपिध्वज अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष उठा लिया और अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से बोले कि 'हे अच्युत! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दीजिए।'
रथ को बीच में क्यों खड़ा करूं अर्जुन? 
मैं इस रणभूमि में खड़े हुए युद्ध की इच्छा वाले शूरवीरों को देख लूं कि मुझे किन किन के साथ युद्ध करना है। यहां युद्ध में जो यह  राजा लोग दुर्योधन का प्रिय करने की इच्छा से इकट्ठे   हुए है, उनको भी मैं देख लूं।
अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान ने क्या किया संजय  
संजय बोले - हे राजन! निद्राविजयी अर्जुन के ऐसा कहने पर अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य भाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने रथ को खड़ा करके कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरूवंशियों को देख'।
भगवान के कहने पर क्या हुआ? 
तब हम दोनों सेना में स्थित पिता, पितामह  आचार्य, मामा  भाई, पुत्र, पौत्र तथा मित्र  ससुर तथा इनके सिवाय अंन्य कई संबंधियों को देखकर अर्जुन अत्यंत कायरता युक्त होकर विषाद करते हुए बोले।
अर्जुन क्या बोले संजय? 
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! अपने खास कुटुंबियों को युद्ध के लिए सामने खड़े देख कर मेरे सब अंग शिथिल हो रहे हैं, मुंह सूख रहा है, शरीर में कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथों से गांडीव धनुष गिर रहा है और अभी त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूं।
इसके सिवा और क्या देख रहे हो अर्जुन?
हे केशव! मैं शकुनों को भी विपरीत दिशा में देख रहा हूं और युद्ध में इन कुटुंबियों को मारकर कोई लाभ भी नहीं देख रहा हूं ।
इनको मारे बिना राज्य कैसे मिलेगा? 
हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं, ना राज्य चाहता हूं और ना सुखों को ही चाहता हूं। हे गोविंद! हम लोगों को राज्य से, भोंगों से अथवा जीने से क्या लाभ?
तुम विजय अादि क्यों नहीं चाहते? 
हम जिनके लिए राज्य, भोग और सुख चाहते हैं वही सब के सब लोग अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हैं।
वह लोग कौन है अर्जुन? 
आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पुत्र तथा और भी बहुत से संबंधी हैं।
यही लोग अगर तुम्हें मारने के लिए तैयार हो जाए, तो? 
यह भले ही मुझे मार डालें, पर हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिल जाए तो भी मैं इन को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या है?
अरे भैया राज्य   मिलने पर भी तो बड़ी प्रसन्नता होती है क्या तुम उसको भी नहीं चाहते?
 हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र के संबंधियों को, (जो कि हमारे भी संबंधी हैं) मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिए हे माधव!इन धृतराष्ट्र- संबंधियों को हम मारना नहीं चाहते; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुंबियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं।
यह तो तुम्हें मारने के लिए तैयार ही हैं, तुम ही पीछे क्यों हट रहे हो? 
महाराज! इन को तो लोभ के कारण विवेक - विचार लुप्त हो गया है, इसलिए यह दुर्योधन आदि कुल के नाश से होने वाले दोष को और मित्र द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देख रहे हैं। तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को तो इस पाप से बचना ही चाहिए।
अगर कुल का नाश हो भी जाए तो क्या होगा? 
कुल का नाश होने पर सदा से चले आए कुलधर्म, कुल परम - परंपरा नष्ट हो जाते हैं।
कुल धर्म के नष्ट होने पर क्या होता है  
कुलधर्म के नष्ट होने पर संपूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है। अधर्म के फैल जाने से क्या होता है? 
अधर्म के फैल जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं।
स्त्रियोंके  दूषित होने से क्या होता है?
स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर पैदा होता है।
वर्णसंकर  पैदा होने से क्या होता है? 
यह वर्णसंकर कुलघातियों( कुल का नाश करने वालों) को और संपूर्ण कुल को नर्क में ले जाने वाला होता है तथा पिंड और पानी (श्राद्ध- तर्पण) ना मिलने से उनके पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषों से कुल घाटियों के सदा से चलते आए कुल धर्म और जाति धर्म - - दोनों नष्ट हो जाते हैं।
जिनके कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्य का क्या होता है?
हे जनार्दन! उन मनुष्य को बहुत समय तक नरक में निवास करना पड़ता है। ऐसा हम सुनते आए हैं,।
युद्ध के परिणाम को जब तुम पहले से ही जानते हो तो फिर युद्ध  के लिए तैयार क्यों हुए? 
यही तो बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुटुंबियों को मारने के लिए तैयार हो गए हैं। अब तुम क्या करना चाहते हो? 
मैं अस्त्र-शस्त्र छोड़कर युद्ध से हट जाऊंगा। अगर मेरे द्वारा ऐसा करने पर भी हाथों में शस्त्र लिये दुर्योधन आदि मुझे मार दे तो वह मारना भी मेरे लिए बड़ा हितकर होगा।
ऐसा कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया संजय? 
संजय बोले- ऐसा कहकर शौक से व्याकुल मन वाले अर्जुन ने बाण सहित धनुष का त्याग कर दिया औरत के मध्य भाग में बैठ गए।
पहला अध्याय समाप्त
॥ जय श्री कृष्ण॥

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

शुभ विचार

                                  शुभ विचार

पत्थर व लाठी से हड्डियां टूट जाती है परन्तु शब्दों से प्रायः संबंध टूट जाते हैं, इसलिए यदि आप क्रोध में हैं ,तो शांत रहिए और बोलना है तो सोच समझ कर बोलिए।
 जय श्री राधे

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

गीता माधुर्य प्रथम अध्याय हिंदी मे

                                 गीता माधुर्य

श्रीमद्भागवत गीता मनुष्य मात्र को सही मार्ग दिखाने वाला सार्वभौम महाग्रंथ है। लोगों में इसका अधिक से अधिक प्रचार हो, इस दृष्टि से परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज ने इस ग्रंथ को प्रश्नोत्तर शैली में बड़े सरल ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे गीता पढ़ने में सर्वसाधारण लोगों की रुचि पैदा हो जाए और वह इसके अर्थ को सरलता से समझ सके। नित्य पाठ करने के लिए भी है पुस्तक बड़ी उपयोगी है। आप  से मेरा निवेदन है कि इस को स्वयं भी पढ़े व औरों को भी प्रेरित करें।
                               श्री परमात्मने नमः
                                 श्री गणेशाय नमः
                      गीता माधुरी प्रथम पहला अध्याय
वसुदेव सुतम देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
 देवकीपरमानंद कृष्णम वंदे जगतगुरुम् ॥
जिज्ञासापूर्तये  टीका लिखित साधकस्य या।     
संजीवप्रवेशाया माधुर्य  लिख्यते मया॥
पांडवों ने 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य मांगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, किसी सुई की नोक जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं किया। अतः पांडवों ने माता कुंती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध होना निश्चित हो गया और दोनों और युद्ध की तैयारी होने लगी। महर्षि वेदव्यास का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था उसी के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा की युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान संहार होना अवश्यंभावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता, यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूं। जिसे तुम भी बैठे-बैठे युद्ध की अच्छी तरह कैसे देख सकते हो। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि "मैं जन्म भर अंधा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं देखना नहीं चाहता हूँ। परंतु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर मैं जानना चाहता हूँ। 'व्यास जी ने कहाकि मैं संजय को दिव्य दृष्टि देता हूं, जिससे वह संपूर्ण युद्ध को, संपूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आई हुई बातों को, भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा। ऐसा कह कर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। उधर निश्चित समय के अनुसार कुरुक्षेत्र में दोनों सेना युद्ध के लिए तैयार थी।
अब प्रश्न होता है कि जब युद्ध के लिए दोनों सैन्य सेना तैयार थी ऐसे मौके पर भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश क्यों दिया? 
 शोक दूर करने के लिए ही भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया।
अर्जुन को शौक कब हुआ और क्यों हुआ? 
जब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने ही निजी कुटुंबियों को देखा और सोचा कि दोनों तरफ हमारे कुटुंबी मरेंगे, तब ममता के कारण उनको शौक हुआ।
अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने कुटुंबियों को क्यों देखा?  भगवान श्री कृष्ण ने जब दोनों सेनाओं के बीच में रख खड़ा करके अर्जुन से कहा कि' तुम युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए इन कुरूवंशियों को देखो' तब अर्जुन ने अपने कुटुंबियों को देखा। भगवान ने अर्जुन को दोनों सेनाओं में वंशियों को देखने के लिए क्यों कहा? 
 अर्जुन ने पहले भगवान से कहा था कि 'हे अच्युत! दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ खड़ा करो, जिससे मैं देखूं कि यहां मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं? '
अर्जुन ने ऐसा क्यों कहा? 
जब युद्ध की तैयारी के बाजे बजे, तब उत्साह से भर कर अर्जुन ने दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए भगवान से कहा।
बाजे क्यों बजे? 
कौरव सेना के मुख्य सेनापति भीष्म जी ने जब सिहं की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया, तब कौरव और पांडव सेना के बाजे बजे।
भीष्मजी ने शंख क्यों बजाया?    
दुर्योधन को हर्षित करने के लिए भीष्मजी ने शंख बजाया।
   दुर्योधन अप्रसन्न क्यों था? 
 दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर कहा कि आपके प्रतिपक्ष में पांडवों की सेना खड़ी है, इसको देखिए अथार्त जिन पांडव पर आप प्रेम-स्नेह करते हैं वही आप के विरोध में खड़े हैं। पांडव सेना की व्यूह रचना भी धृष्टधुम्न    के द्वारा की गई है। जो आप को मारने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार दुर्योधन की चालाकी से, राजनीति से भरी हुई बातों को सुनकर द्रोणाचार्य चुप रहे  कुछ बोले नहीं। इससे दुर्योधन अप्रसन्न हुआ।
द्रोणाचार्य चुप क्यों रहें?
दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए चालाकी से राजनीति की जो बातें कहीं ,वह बातें द्रोणाचार्य को बुरी लगी  । उन्होंने यह सोचा कि अगर मैं इन बातों का खंडन करूं, तो युद्ध के मौके पर आपस में खटपट हो जाएगी। जो उचित नहीं है। मैं इन बातों का अनुमोदन भी नहीं कर सकता क्योंकि यह चालाकी से बातचीत कर रहा है। सरलता से बातचीत नहीं कर रहा है, इसलिए द्रोणाचार्य चुप रहे।
दुर्योधन ने ऐसी बातें कब कहां और क्यों कहीं? 
दुर्योधन ने   व्यूहाआकार  खड़ी हुई पांडव सेना को देखकर गुरु द्रोणाचार्य को उकसाने के लिए ऐसी बातें कहीं  इसका वर्णन संजय ने धृतराष्ट्र के प्रति किया है।
संजय ने यह वर्णन धृतराष्ट्र के प्रति क्यों किया? 
जब धृतराष्ट्र युद्ध की कथा को आरम्भ से विस्तार पूर्वक सुनना चाहा, तब संजय ने यह सब बातें धृतराष्ट्र से कहीं।
धृतराष्ट्र ने संजय से क्यों सुनना चाहा?
10 दिन युद्ध होने के बाद संजय ने अचानक आकर धृतराष्ट्र से यह कहा कि कौरव, पांडवों के पितामह, शांतनु के पुत्र भीष्म मारे गए(रथ से गिरा दिए गए) जो संपूर्ण योद्धाओं में मुख्य और संपूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ थे। ऐसे पितामह भीष्म आज शर शैया पर सो रहे हैं। इस समाचार को सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुख हुआ और वह विलाप करने लगे। फिर उन्होंने युद्ध का सारांश सुनाने के लिए कहा और पूछा-
 है संजय! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? संजय बोले उस समय व्युरचना से खड़ी हुई पांडवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास गया और उनसे कहा कि आचार्य आप अपने बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र प्रदुमन के द्वारा  व्युह रचना से खडी की  हुई पांडवों की इस बड़ी सेना को देखिए। पांडवों की सेना में किन-किन को देखूं दुर्योधन? 
पांडवों की सेना में बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष है, तथा जो बल में भीम के समान है और युद्धकला में अर्जुन के समान है। इन में युयुधान (सात्यकि) राजा विराट और महारथी  द्रुपद भी है। धृष्टकेतु, चेकितान और पराक्रमी काशीराज भी है और पुरूजित और कुंती भोज यह दोनों भाई तथा मनुष्य में श्रेष्ठ शैब्य भी है। पराक्रमी युधामन्यु और बलवान उत्तमोेजा भी है। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रोपदी के पांचों पुत्र भी हैं। यह सब के सब महारथी हैं।
पांडव सेना के शूरवीरों के नाम तो तुम ने बता दिए पर अपनी सेना के शूरवीर कौन-कौन है दुर्योधन? 
हे  द्विजोत्तम जो हमारी सेना में जो विशेष विशेष पुरुष हैं, उन पर भी ध्यान दीजिए। आप (द्रोणाचार्य), पितामह भीष्म, कर्ण, संग्राम विजय कृपाचार्य अश्वत्थामा और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा तथा इनके सिवाएं और भी बहुत से शुरूवीर है जिन्होंने मेरे लिए अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण तथा युद्ध कला में अत्यंत चतुर हैं।
दोनों सेनाओं के प्रधान प्रधान योद्धाओं को दिखाने के बाद दुर्योधन ने क्या किया संजय? 
दुर्योधन ने अपने मन में विचार किया कि वह उभयपक्षपाती (दोनों का पक्ष लेने वाले) भीष्म के द्वारा रक्षित हमारी सेना पांडव सेना पर विजय करने में असमर्थ हैं। और निजपक्ष पाती (केवल अपना ही पक्ष लेने वाले) भीम के द्वारा रचित पांडवों की सेना हमारी सेना पर विजय करने में समर्थ है।
मन में ऐसा विचार करने के बाद दुर्योधन ने क्या किया? 
उसने सभी शूरवीरों से कहा कि आप सब के सब लोग अपने-अपने मोर्चा पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
अपनी रक्षा की बात सुनकर भीष्म जी ने क्या किया?
पितामह भीष्म ने दुर्योधन को प्रसन्न करते हुए बड़े जोर से शंख बजाया
भीष्मजी के द्वारा शंख बजाने के बाद क्या हुआ संजय?
 भीष्मजी ने तो दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए ही शंख बजाया था, पर कौरव सेना ने इसको युद्धारम्भ की घोषणा ही समझी। अत:भीष्मजी के शंख बजाते ही कौरव सेना के शंख, ढोल, बाजे एक साथ बज उठे। उनका शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
 कौरव सेना के बाजें बजने के बाद क्या हुआ संजय?
शेष कल-

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