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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

हमारा कर्त्वय

                                   कर्तव्य


 अपने कर्तव्य का सावधानी से पालन करना चाहिए। अच्छे विचार रखने चाहिए। मन ,वाणी ,शरीर  को सत्संग में लगाना चाहिए। बुरे विचार ,कुसंग से हमेशा बचना चाहिए ।हम सभी के अंदर सत्य, सच बोलना ,दया, दूसरों को क्षमा करना,आदि का पालन करने से मन ,बुद्धि और शरीर का विकास होता है ।हमेशा बड़ों को प्रणाम और उनकी सेवा से आयु, विद्या ,यश की प्राप्ति होती है। मन में शुद्ध विचारों को रखकर जीवन का प्रथम भाग विद्या के अध्यन मे  बिताना चाहिए। विद्या के पढ़ने के साथ विवेक को उत्पन्न करना चाहिए। क्या उचित है, या अनुचित है ।इसे बुद्धि के द्वारा निर्णय करके ही करम करना चाहिए ।बिना विचारे ,जल्दबाजी में किसी भी काम को करने से बाद  ,में पछताना पड़ता है। इसलिए बिना विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। बड़ों से शिक्षा अध्ययन करना चाहिए ,छोटों को शिक्षा देना चाहिए ।अध्ययन करते समय भी अध्यापन करना चाहिए। ईश्वर ने आपको जिस रूप में भी इस धरती पर भेजा है। चाहे वह महिला ,पुरुष ,मां ,बेटा ,बहन  ,भाई,पिता ,पुत्र, पुत्री जो भी हमें रिश्ते निभाने के लिए भेजा है हमें उस रिश्ते को न्याय पूर्वक सच्चाई के साथ अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निभाना चाहिए। क्योंकि हर रिश्ते का अपना अपना कर्तव्य होता है। जिससे हम भली भांति परिचित होते हैं ।उसका हमें इमानदारी से पालन करना चाहिए।
।। जय श्री राधे ,श्री सीताराम।।

भगवान् का भक्त कोन है?

                       भगवान् का भक्त कौन है?

भगवान् की भक्ति का आरम्भ अपरे घर से ही होता है। घर के बड़े बूढ़े, माता-पिता में श्रद्धा रखना, उनकी सेवा करना, घर के ,परिवार के लोगों से जो निष्काम प्रेम करेगा ।वह भगवान की भक्ति कर सकेगा। संबंधित लोगों से ईर्ष्या, द्वेष रखने वाले भगवान के भक्त नहीं हो सकते। अतः सृष्टि को भगवान की मान करके ,उसे प्रेम करना चाहिए। माया से भरी  हुई   तामसी सृष्टि से दूर रहना चाहिए। जो प्रसन्न रहता है और दूसरों को प्रसन्न करता है। वही भगवान का भक्त है  जिसके व्यवहार से लोगों के मन में अशांति और दुख हो वह भगवान का भक्त नहीं हो सकता। जिससे सभी सुखी रहते हैं वह भगवान का सच्चा भक्त  है। जिससे लोग दुखी रहते हैं, वह  भगवान का भक्त नहीं हो सकता।
दादा गुरु भक्तमाली जी महाराज( वृंदावन )के श्रीमुख से 

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

भजन करने से ही राम जी की कृपा प्राप्त होती है।

             
          भजन करने से ही प्रभु कृपा प्राप्त होती है।
मन कर्म वचन छाँडि चतुराई। भजन कृपा करिहै रघुराई।।

मन ,वाणी और कर्म से कपट का त्याग करके जो भजन करते हैं ,उन पर अवश्य ही श्री राम जी की कृपा होती है। अलौकिक कामनाएं ,जिनका प्रभु भजन से कोई संबंध नहीं है  केवल संसारी लोगों से ही संबंध है। ऐसी कामनाओं से भजन करना, कपट पूर्ण भजन है। निष्काम भाव से  जिनसे भजन में सहायता मिलती है। जिनसे परोपकार होता है। ऐसी कामनाएं रखकर भजन करना  चतुराई को छोड़कर भजन करना है। खाने ,पीने ,रहने की सुविधा,लौकिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति , ईश्वर की कृपा का उत्तम फल नहीं है। बुद्धि की पवित्रता, नाम- रूप लीला -धाम का आश्रय, सत्संग में, भक्त भावनाओं में, प्रेम की प्राप्ति भगवान की कृपा को उत्तम फल है। शरीर, परिवार, संपत्ति जो कुछ भी प्रभु ने दिया है, उसमें संतुष्ट रहना, नौकरी खेती ,व्यापार आदि को ईश्वर की प्रसन्नता के लिए करना ।भगवान का भजन है। भगवान का भजन करने में आलस्य का त्याग करना चाहिए ,भगवान की कृपा सब पर रहे  परस्पर सद्भावना हो,
 जय श्री सीताराम (प दादा गुरु जी महाराज वृंदावन

हमें क्रोध क्यों नहीं करना चाहिए?

                हमें क्रोध क्यों नहीं करना चाहिए?


प्रभु कृपा से बुद्धि शुद्ध और सात्विक रहे ।परस्पर प्रेम बनाए रखें। किसी से कोई भूल हो तो उसे क्षमा करें , उसे समझा दे, क्रोध ना करें, जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है ,उसकी हानि नहीं होती है ।जो क्रोध करता है ,उसी का रक्त जलता है ।क्रोध करने से बुद्धि का नाश होता है। विकास की गति मंद हो जाती है ।क्रोध से हिंसा के और बदला लेने के भावों का उदय होता है। उसे बार-बार जन्म मरण होता है ।जन्म लेना है ,सत्संग भजन के लिए। बदला चुकाने के लिए नहीं, इसलिए क्रोध से बचना चाहिए ।कभी क्रोध आ जाए ,तो मौन हो जाना चाहिए और जब आप शांत हो जाएं  तो विचार जरूर करना चाहिए। जय श्री राधे( दादा गुरु भक्तमाली जी के श्रीमुख से)

हमें कष्ट क्यों होता है?

                         हमें कष्ट क्यों होता है?




 जब हम हर समय ईश्वर के ध्यान में उनकी लीलाओं में और मंत्र जाप में अपने आप को व्यस्त रखते हैं, तो हम महसूस करते हैं कि दुख हो कर भी हम दुखी नहीं होते, क्योंकि प्रभु स्मरण ही हमें कष्ट का अनुभव नहीं होने देता। जब हम अपने ईश्वर को भूलकर संसार में व्यस्त हो जाते हैं, तो हमें छोटे से छोटे कष्ट का भी अनुभव होने लगता है।
दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ मे सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट ,चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें,हमें याद करें ।भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया है ,और सद्बुद्धि प्राप्त की है ।सद्बुद्धि बनी रहे ,इस बात की ही  तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है ।अपनी वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए  ,तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता  ,प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है।(कल्याण)

गीता माधुर्य अध्याय २का शेष(श्री मद्भागवत गीता का सरल रूप)

                    गीता माधुर्य अध्याय २का शेष

क्या मैं यह सह नही सकता भगवन्?
नही, तू सह नही सकता,क्योंकि तेरे शत्रुओं को वैरभाव निकालने का मौका मिल जायेगा। वेे तेरी सामर्थ की निन्दा करते हुये तुझे बहुत सी न कहने वाली बातें कहेंगे। उससे बढ़कर दुख और क्या होगा?॥३६॥
और अगर मैं युद्ध करूं तो? 
युद्ध करते हुए अगर तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्ग मिल जायेगा और अगर तू युद्ध जीत गया तो तुझे पृथ्वी का राज्य मिल जायेगा। अतः हे कुन्ती नन्दन! तू युद्ध का निश्चय करके खड़ा हो जा॥३७॥
क्या युद्ध से मुझे पाप नही लगेगा भगवन् ?
नहीं, पाप तो स्वार्थ बुद्धि से ही होता है, अतः तू जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख - दुख में समबुद्धि रखकर युद्ध कर। इस प्रकार युद्ध करने से तुझे पाप नही लगेगा॥३८॥
जिस समबुद्धि से कर्म करते जरा भी पाप नही लगता, उसकी और क्या विशेषता है भगवन्? 
इस समबुद्धि की बात मैंने पहलें सांख्ययोग मेंं कह दी है अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन-
१.  इस सम बुद्धि से युक्त हुआ तू  संपूर्ण  कर्मों के  बंधन से  छूट जाएगा ।
२.  इस सनबुद्धि के  आरंभ मात्र का भी नाश नहीं होता।
३.  इसके अनुष्ठान का कभी उल्टा फल नहीं होता।
४.  इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान जन्म मरण रूप महान भव से रक्षा कर लेता है ।।३९-४०।।
जिस समबुद्धि की आपने इतनी महिमा गाई है उसको प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इस समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका( एक परमात्मा प्राप्ति की निश्चय वाली) बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चय नहीं है ,ऐसे मनुष्य की बुद्धियाँ अनंत और बहू शाखाओं वाली होती है।
उनका परमात्मा प्राप्ति का एक निश्चित क्यों नहीं होता?
जो कामनाओं में तन्मय हो रहे हैं ,स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं ,वेदों में कहे हुए तमाम कर्मों में ही प्रीति रखने वाले हैं, तथा भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं -ऐसा कहने वाले हैं, वह बेसमझ मनुष्य इस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्मफल को देने वाली है तथा वह भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भी बहुत ही क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ।भोगों का वर्णन करने वाली पुष्पित वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है तथा भोगों की तरफ खींच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन मनुष्य की परमात्मा में एक निश्चय वाली बुद्धि नहीं हो सकती।

भोग और ऐश्वर्या की आसक्ति से बचने के लिए मुझे क्या करना चाहिए भगवन?
वेद तीनों गुणों के कार्य (संसार) का वर्णन करने वाला है, इसलिए हे अर्जुन! तू वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों से रहित हो जा ,राग द्वेष आदि द्वदों से रहित हो जा और नित्य निरंतर रहने वाले परमात्मा तत्व में स्थित हो जा ।तू अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की और प्राप्त वस्तु की रक्षा की भी चिंता मत कर और केवल परमात्मा के परायण हो जा अर्थात एक परमात्मा प्राप्ति का ही लक्ष्य रख।।४५।।
ऐसा एक निश्चय कोई कर ले तो उसका क्या परिणाम होता है?
जैसे बहुत बड़े सरोवर के प्राप्त होने पर छोटे  सरोवर का कोई महत्व नहीं रहता ,कोई जरूरत नहीं रहती ।ऐसे ही वेदों और शास्त्रों के तात्पर्य को जानने वाले तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष की दृष्टि में संपूर्ण वेदों का उतना ही तात्पर्य है अथार्त उनके मन में संसार का, भोगों का कोई महत्व नहीं रहता।
मेरे लिए ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का कोई उपाय है?
हां ,कर्म योग है ।तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है ,फल में कभी नहीं अथार्त तू फल की इच्छा ना रखकर अपने कर्तव्य का पालन कर। तू कर्म फल का हेतु भी मत बन अथार्त जिनसे कर्म किया जाता है, उन शरीर, इंद्रियां ,मन, बुद्धि आदि में भी ममता  ना रख।
तो फिर मैं कर्म करूं ही क्यों ?
कर्म ना करने में भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
 तो फिर कर्म करूं कैसे ?
सिद्धि- असिद्धि में सम होना योग कहलाता है, इसलिए हे धनंजय !तू  आसक्ति  का त्याग करके योग में स्थित होकर कर्म कर ।
अगर योग में स्थित होकर कर्मका कर्म ना करूं तो?
 इस समता के बिना सकाम कर्म अत्यंत ही निकृष्ट है ।अतः हे धनंजय !तू सम बुद्धि का ही अाश्रय ले क्योंकि कर्म फल की इच्छा करने वाली कृपण है अर्थात कर्म फल के गुलाम है ।
कर्म फल की इच्छा वाले कृपण है तो फिर श्रेष्ठ कौन है ?समबुद्धि संयुक्त मनुष्य श्रेष्ठ है सम बुद्धि से युक्त मनुष्य इस जीवित अवस्था में ही पाप पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तू समता में ही स्थित हो जा, क्योंकि कर्मों में समता ही कुशलता है ।
समबद्धि का क्या परिणाम होगा भगवन?
 समता से युक्त मनुष्य कर्म जन्य फल का त्याग करके और जन्म रूप बंधन से रहित होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं ।
यह मैं कब समझूँ कि मैंने कर्म जन्य फल का त्याग कर दिया? 
जब तेरी बुद्धि   मोह रूपी दलदल  को तर जाएगी तब तुझे सुने हुए और  सुनने में आने वाले  भोगों से वैराग्य हो जाएगा ।वैराग्य होने पर फिर क्षमता की प्राप्ति कब होगी?
 शास्त्रों के अनेक सिद्धांतों से, मतभेदों से विचलित हुए तेरी बुद्धि जब संसार में सर्वथा विमुख होकर परमात्मा में अचल हो जाएगी तब तुझे योग शब्द रूप समता की प्राप्ति हो जाएगी। अर्जुन बोले- क्षमता की प्राप्ति हुए बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ?
भगवान बोले- हे पार्थ ! जब साधक मन में रहने वाले संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है  और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है ।तब वह स्थितप्रज्ञ सिद्धि वाला कहलाता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

गीता माधुर्य अध्याय 2


                          गीता माधुर्य  अध्याय 2


रथ के मध्य भाग में बैठे बैठ जाने पर अर्जुन की क्या दशा हुई संजय? 
 संजय बोले- हे राजन्! जो बड़े उत्साह से युद्ध करने आए थे, पर कायरता के कारण जो विषाद कर रहे हैं और जिनके नेत्रों में इतने आंसू भर आए हैं कि देखना भी मुश्किल हो रहा है, ऐसे अर्जुन से भगवान मधुसूदन बोले कि हे अर्जुन! इस बेमौके पर  तुझ में यह कायरता कहां से आ गई? यह कायरता ना तो श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा धारण करने लायक है, ना स्वर्ग देने वाली है,और ना कीर्ति देने वाली है। इसलिए हे पार्थ! तू इस कायरता को अपने में मत आने दे; क्योंकि तेरे जैसे पुरुष में इसका आना उचित नहीं है। अतः है परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥१-३॥
ऐसा सुनकर अर्जुन क्या बोले संजय ?
अर्जुन बोले- महाराज! मैं मरने से थोड़े ही डरता हूं, मैं तो मारने से डरता हूं। हे हरीसूदन! यह भीष्म और द्रोण तो पूजा करने योग्य हैं। इसलिए हे मधुसूदन! ऐसे पूज्य जनों को तो कटु शब्द भी नहीं कहना चाहिए। फिर उनके साथ मैं बाणों से युद्ध कैसे करूं? ॥४॥
अरे भैया! केवल कर्तव्यपालन के सामने और कुछ भी देखा जाता है क्या?
 महाराज!  महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस मनुष्य लोक में भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करना भी श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर आपके कहे अनुसार मैं  युद्ध भी करूं तो गुरुजनों को मारकर उनके खून से लथपथ तथा धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही भोगूँगा! इस से मुझे शांति थोड़े ही मिलेगी॥५॥
फिर तुम क्या करना चाहते हो ?
हे भगवान्! हम लोग यह नहीं समझ पा रहे युद्ध करना ठीक है या युद्ध ना करना ठीक है तथा युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वह हमको जीतेंगे। सबसे बड़ी बात तो यह है भगवन्! कि हम जिन को मार कर जीना भी नहीं चाहते, वही धृतराष्ट्र के संबंधी हमारे सामने खड़े हैं। फिर इनको हम कैसे मारे?॥६॥
जब तुम निर्णय नहीं ले सकते हो तो फिर तुमने क्या उपाय सोचा?
 हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा क्षात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।  इसलिए जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूं और आप की शरण में हूं। आप मुझे शिक्षा दीजिए।
परंतु महाराज आपने पहले जैसे युद्ध करने के लिए कह दिया था वैसा फिर ना करें क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहां का धन धान्य से संपन्न और निष्कंटक राज्य मिल जाए अथवा देवताओं का अधिपत्य मिल जाए तो भी मेरा यह इंद्रियों को सुखाने वाला शोक दूर हो जाए,ऐसा मैं नहीं देखता॥७-८॥
फिर क्या हुआ संजय?
 संजय बोलें - हे राजन्! निंद्रा विजय अर्जुन, अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण से " मैं युद्ध नहीं करूंगा " - ऐसा साफ-साफ कह कर चुप हो गए॥९॥
 अर्जुन के चुप होने पर भगवान ने क्या कहा?
अंतर्यामी भगवान श्री कृष्ण दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कुराते हुए कहने लगे-तू शोक ना करने लायक का शोक करता है, और पंडिताई की सी बड़ी - बड़ी बातें करता है; परंतु जो मर गए हैं उनके लिए और जो जीते हैं उनके लिए भी पंडित लोग शौक नहीं करते॥१०-११
शोक क्यों नहीं करते भगवन्?
मैं,तू और यह राजा लोग पहले नहीं थे - यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है अर्थात हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पंडित शौक नहीं करते॥१२॥
 इस बात को कैसे समझा जाए ?
अरे भैया! देह धारी शरीर में जैसे कुमार, युवा, और वृद्धा अवस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीर की प्राप्ति भी होती है। इस विषय में पंडित लोग मोहित नहीं होते ॥१३॥कुमार आदि अवस्थाएं शरीर की होती है ,यह तो ठीक है ,पर अनुकूल- प्रतिकूल ,सुखदाई -दुखदाई ,पदार्थ सामने आ जाएँ, तब क्या करे?
 हे कुन्तीनन्दन!  इन्द्रियों के जितने विषय हैं, वह सभी अनुकूलता और प्रतिकूलता के द्वारा सुख और दुख देने वाले हैं। परंतु वे आने-जाने वाले और अनित्य ही हैं। इसलिए उनको तुम सहन करो,उनमें तू निर्विकार रहो ॥१४॥
उनको सहने से, उनमे निर्विकार रहने से क्या लाभ होता है?
पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुख में समान रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय सुखी दुखी नहीं करते, वे स्वयं परमात्मा की प्राप्ति का अनुभव कर लेता है॥१५॥
 वह अमरता का अनुभव कैसे कर लेता है? 
सत्(चेतन त्तव) - की सत्ता का कभी अभाव नहीं होता और असत् यानी कि जड़ पदार्थों की सत्ता ही नहीं है। इन दोनों के तत्व को ज्ञानी महापुरुष जान लेते हैं, इसलिए भी अमर हो जाते हैं॥१६॥
वह सत् (अविनाशी) क्या है भगवन्? 
जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उसको तुम अविनाशी समझो । इस अविनाशी का विनाश कोई भी नहीं कर सकता॥१७॥
 असत्(विनाशी) क्या है भगवन्? 
इस अविनाशी, अप्रमेय, में और नित्य रहने वाली शरीरी के सब शरीर अंत वाले हैं, विनाशी हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य कर्म का पालन करो॥१८॥
 युद्ध में तो मरना- मारना ही होता है; इसलिए अगर शरीर को मरने -मारने वाला माने, तो?
 जो इस अविनाशी शरीरी को शरीरों की तरह मरने वाला मानता है और जो इस को मारने वाला मानता है। वे दोनों ही ठीक नहीं जानते; क्योंकि यह ना किसी को मारता है और ना स्वयं मारा जाता है॥१९॥
 यह शरीरी मरने वाले क्यों नहीं है भगवन् ? 
यह शरीरी ना तो कभी पैदा होता है और ना कभी मरता ही है।  यह पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्म रहित नित्य-निरंतर रहने वाला शाश्वत और अनादि है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 ऐसा जानने से क्या होगा?
 हे पार्थ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्म रहित और अव्यय  मानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है और कैसे किसी को मरवा सकता है? ॥२१॥
तो फिर मरता कौन है भगवन् ? 
 यह शरीर मरता है। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नई शरीरों में चला जाता है॥२२॥
 नये-नये शरीरों को धारण करने से इसमें कोई ना कोई विकार तो आता ही होगा?
 नहीं, इसने कभी कोई विकार नहीं आता, क्योंकि इस शरीरी  को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गिला नहीं कर सकता और वायु सूखा नहीं सकती॥२३॥
यह शस्त्र आदि से कटता, जलता, गलता और सूखता क्यों नहीं? 
यह शरीरी काटा भी नहीं जा सकता,जलाया भी नहीं जा सकता, गीला भी नहीं किया जा सकता और सुखाया भी नहीं जा सकता; क्योंकि यह है नित्य रहने वाला, सब में परिपूर्ण,  स्थिर  स्वभाव वाला, अचल और सनातन है। यह देही- इंद्रियों आदि का विषय नहीं है अथार्त यह अप्रत्यक्ष नहीं दिखता। यह अन्त:करण का भी विषय नही हैं और इसमें कोई विकार भी नहीं होता है इसलिए इस देही को ऐसा जानकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२४-२५॥
 इस शरीरी को निर्विकार मानने पर तो शोक नहीं हो सकता पर इसे विकारी मानने पर तो शोक हो ही सकता है?
 हे महाबाहो! अगर तू इस शरीरी को नित्य पैदा होने वाला और नित्य मरने वाला भी मान ले तो भी तुझे इस का शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि जो पैदा हुआ है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है,वह जरूर पैदा होगा। इस नियम को कोई भी हटा नहीं सकता। अतः शरीरी को लेकर तुझे शोक नहीं करना चाहिए॥२६-२७॥
 शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए, यह तो ठीक है ;पर शरीर को लेकर तो शोक होता ही है भगवन्.! 
शरीर को लेकर भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद फिर अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में प्रकट दिखते हैं। अतः इसमें शोक करने की बात ही कौन सी है?॥२८॥
तो फिर शोक क्यों होता है?
 ना जानने से।
जानना कैसे हो? 
वह जानना अथार्त अनुभव करना इंद्रियां, मन  बुद्धि से नहीं होता, इसलिए इस शरीरी  को देखना, कहना, सुनना  सब आश्चर्य की तरह ही होता है। अत:इस  को सुनकर के कोई भी नहीं जान सकता अर्थात इसको अनुभव तो स्वयं ही होता है॥२९॥
 तो फिर यह कैसा है?
 हे भरतवंशी अर्जुन! सबके देह में रहने वाला यह देही नित्य ही अवध्य है, ऐसा जानकर तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥३०॥
 शोक दूर करने की तो आपने बहुत सी बातें बता दी पर मुझे जो पाप का भय लग रहा है वह कैसे दूर हो? 
अपने धर्म क्षत्रिय धर्म को देख कर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिए; क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म में युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है॥३१॥
 तो क्या क्षत्रिय को युद्ध करते ही रहना चाहिए?
 नहीं, जो युद्ध आप से आप प्राप्त हो जाए सामने आ जाए, वह युद्ध क्षत्रिय के लिए स्वर्ग जाने का खुला दरवाजा है। इसलिए पार्थ! ऐसा युद्ध जिन क्षत्रिय को प्राप्त होता है, वही वास्तव में सुखी होते हैं*॥३२॥(भोगों का मिलना कोई सुख नहीं है प्रत्युत वह तो महान दुखों का कारण है वास्तविक सुख वही है जो दुख से रहित हो। दुख से रहित सुख  यही है कि स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्म करने का अवसर मिल जाए अतः जिन को कर्तव्य पालन का अवसर प्राप्त हुआ है वही वास्तव में सुखी और भाग्यशाली हैं।)
 ऐसे आप से आप प्राप्त युद्ध को मैं ना करूं, तो? 
अगर तू ऐसे धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो तेरे क्षत्रिय धर्म का और तेरी कीर्ति का नाश होगा तथा तुझे कर्तव्य पालन ना करने का पाप भी लगेगा॥३३॥
अप कीर्ति से क्या होगा ?
अरे, तो युद्ध नहीं करेगा तो देवता, मनुष्य आदि सभी तेरी बहुत दिनों तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे। यह अपकीर्ति आदरणीय, सम्माननीय मनुष्य के लिए मृत्यु से भी बढ़कर दुखदाई होती है। ॥३४॥
और क्या होगा भगवान्,? 
जिन भीष्म द्रोणाचार्य आदि महारथियों की दृष्टि में तू श्रेष्ठ माना गया है, उनकी दृष्टि में तू तुच्छता को प्राप्त हो जाएगा और वह महारथी लोग तुझे मरने के भय के कारण युद्ध से उपरत हुआ मानेंगे।
 शेष कल-


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