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सोमवार, 10 अगस्त 2020

ह्रदय व्याकुल हो जाए प्रभु से मिलने के लिए तो, प्रभु दूर नहीं है।

ह्रदय व्याकुल हो जाए प्रभु से मिलने के लिए तो, प्रभु दूर नहीं
है।



कौन कहता है मुलाकात नहीं होती है, रोज मिलते हैं केवल बात नहीं होती है।
मामाजी भक्तमालीजी के श्री मुख से
हम प्रभु से रोज मिलते हैं क्या हम मिलने के लिए कहीं से आते हैं या कहीं जाते हैं नहीं क्योंकि वह तो हर पल हर क्षण हमारे साथ ही रहते हैं इसलिए
मिले ही रहते हैं। पर बात नहीं होती, एक साथ रहते हैं पर बात नहीं होती। क्यों? हम 36 हो रहे हैं। दुनिया के लिए हम खूब रो रहे हैं, उसके लिए रोना नहीं आता है। कभी आंसू आते भी तो उसमें प्रदर्शन का भाव आ जाता है और सूख जाते हैं। 
 हम प्रभु के लिए रोना शुरू कर दें। बलिहारी, बलिहारी। एक बार मैं बक्सर से पटना जा रहा था, डुमराव स्टेशन पर एक सज्जन एक बच्चे को गोद में लिए हुए थे, गाड़ी में बैठ गए। बाप रे बाप, उस बच्ची का रोना सारे डिब्बे के लोग परेशान हो गए, डांटने लगे उसको, तुम क्यों नहीं  चुप करा रहे हो। इसके रुदन से हमारे कान फट रहे हैं,उसने कहा कि बाबूजी आप लोग ही चुप करा कर देख लीजिए, कोशिश कर लीजिए। सब लोगों ने पूछा बात क्या है? बात यह है कि यह सोई हुई थी, इसकी माँ लाचारी में इलाज के लिए पटना चली गई है।अब मां के लिए यह इतना रो रही है, हम लोगों ने सोचा कुछ खिला पिला कर मना देंगे। पर यह चुप नहीं हो रही है, कितना सामान दिया है, पर यह चुप नहीं हो रही है। अब लगता है जब तक यह पटना नहीं पहुंचेगी और मां को नहीं देखेगी तब तक चुप नहीं होगी। इसलिए लाचार होकर इसकी मां के पास लेकर जाना पड़ रहा है। सारे डब्बे के लोग परेशान थे और मुझे इतनी खुशी हुई बच्ची के रोने को देखकर,जैसे शरीर संबंध की बच्ची,शरीर संबंध की मां के लिए बेचैन हो रही है और इसकी मां तक पहुंचाया जा रहा है। इसी तरह हम आत्मा की मां, त्वमेव माता च पिता त्वमेव, सचमुच में अगर उस बच्ची की तरह हम भी रोना प्रारंभ करते हैं तो या तो वह मां स्वयं आ कर, मेरे पास तक आएगी या मुझको मेरा ही हिमायती मुझे उस माँ तक पहुंचाएगा। हमें वह रोना तो आए,हमें व्याकुलता हो तो उसके लिए। अपने प्रभु के लिए तो वह क्षण दूर नहीं जब प्रभु स्वयं आकर हमसे मिलेंगे

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

संत सदगुरुदेव में श्रद्धा की आवश्यकता है

             संत सदगुरुदेव में श्रद्धा की आवश्यकता है।

संत सदगुरुदेव में श्रद्धा की आवश्यकता है। जहां पर श्रद्धा होगी वहीं पर प्रभु अपना रूप प्रकट करके अनुभव करा देते हैं और अश्रद्धा के द्वारा दिया गया दान, हवन तुच्छ फल देता है। श्रद्धा पूर्वक थोड़ा दान भी महान फल देता है। शिष्य विदेश जाने लगा तो गुरु ने कहा कि वापस आओगे तो रहस्य कि बात बताऊंगा। वापस आते आते गुरु का शरीर छूट गया, पर अपनी श्रद्धा के कारण उसने गुरु के शरीर त्याग को स्वीकार नहीं किया। बिना मुझे, उस बात को बताए, गुरुदेव भगवान वैकुंठ नहीं जा सकते। गुरु की वाणी में शिष्य को विश्वास था अतः गुरुदेव वैकुंठ से वापस आ गए और कहा संत में मुझसे अधिक श्रद्धा रख कर सेवा करो।' गुरु वचन में विश्वास यह संदेश मिला।वैकुंठ जाकर कोई वापस नहीं आता है पर शिष्य की श्रद्धा ने गुरु को वापस बुला लिया, पुनर्जीवित कर लिया। शिष्य ने गुरु को जिंदा करवाया। गुरुदेव प्रदेश जाने लगे तो शिष्य से कहा गंगा जी को गुरु मानो मेरे स्थान पर, उन्हें प्रणाम करो। शिष्य ने गंगा जी में स्नान, वस्त्र धोना बंद कर दिया।गुरु के आने पर भी गंगा में गुरु भाव बना रहा, लोगों के मन में गुरु भक्ति जाग्रत करने के लिए गुरु ने गंगा में प्रवेश कर के शिष्य से वस्त्र मांगे, गुरु आज्ञा पालन करना है वस्त्र देना है, पर गंगा में पैर नहीं रखना। धर्म संकट के समय धर्म की निष्ठा की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं कमल पत्र प्रकट हो गए, उन पर चलकर वस्त्र दिया।गुरु वचनों में विश्वास का यह अद्भुत
दृष्टांत है।
।।श्री गुरुभ्य नमः।।

श्री कृष्ण ही जगतगुरु हैं।

             परमार्थ के पत्र पुष्प- भगवान श्री कृष्ण ही जगतगुरु है।




भगवान श्री कृष्ण जगद्गुरु हैं। जहां-जहां से हितकारी उपदेश प्राप्त होते हैं वे सब गुरु तत्व है। श्री कृष्ण ही सब गुरुओं में व्याप्त होकर फिर उपदेश देते हैं। प्रत्येक श्रद्धालु शिष्य का गुरु श्री कृष्ण का स्वरुप है। सर्वत्र उपदेशक श्री कृष्ण ही है। सर्वत्र गुरु तत्व श्री कृष्ण ही हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण और गुरुदेव एक है इनमें अभेद है।'संत सबै गुरुदेव हैं व्यासहिं यह परतीति।' हरिराम जी व्यास कहते हैं कि मुझे यह विश्वास है भक्त संत गुरुदेव हैं। 'संत भगवंत अन्तर निरंतर नहीं किमपि मती विमल कह दास तुलसी।।' विमल बुद्धि से विचार कर श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि 'संत और भगवंत में नाम मात्र का भी अंतर नहीं है। इस प्रकार भक्तमाल का दिव्य सत्य सिद्धांत ही सत्य है कि( संत )भक्त, भक्ति, भगवंत, गुरु यह चारों एक है इनमें कोई अंतर नहीं है। इनके चरण कमल की वंदना करने से सभी प्रकार के विघ्नों का नाश होता है। यह समझ में आ जाय, इस सिद्धांत में विश्वास हो जाए तो कल्याण है। इससे ही शांति, भक्ति की प्राप्ति होती है। श्री भक्तमाल का, श्री गुरुदेव भगवान का यह वाक्य हमारे लिए मान्य है कि बिना भक्तमाल भक्ति रूप अती दूर है।' संत संग में भक्तमाल ही प्रधान है। भक्तमाल में भागवत, रामायण आदि के सारांश आ जाते हैं।
।।श्री सीताराम।।
दादागुरु भक्तमाली श्री गणेश दासजी के श्री मुख से।

रविवार, 26 जुलाई 2020

क्पा आप जानते है प्रभु के चरणों में कौन-कौन से चिन्ह है,और उनके दर्शन करने से क्या लाभ होता है?

प्रभु के चरणों में जो चिन्ह है उनके दर्शन करने से क्या लाभ होता है और उनका अर्थ क्या है।




अब इसमें अलग-अलग चिन्हों का महत्व का वर्णन करते हैं।
राजराजेश्वर रामचंद्र जी ने अपने चरण सरोज में सुख सुविधा के चिन्ह धारण कर रखे हैं।अगर कोई अपने मन को काबू में नहीं कर पाता हो तो, उसको प्रभु के चरणों में धारण अंकुश का ध्यान करना चाहिए। याद करें,ध्यान करें तो   मनु रूपी मतवाला हाथी काबू में आ जाता है।जैसे महावत मतवाले हाथी को अंकुश के द्वारा बस में कर लेता है ऐसे ही भगवान के चरणों के चिह्न में अंकुश का ध्यान करने से हमारा मन मतवाला काबू में आ जाता है 
अंकुश के बाद अंबर।अंबर कहते हैं वस्त्र को, अंबर आकाश को भी कहते हैं। तो अगर अंबर का अर्थ अकाश लिया जाए, तो जैसे आकाश अनंत है ऐसे भगवान भी अनंत हैं और अगर अंबर का अर्थ यहां वस्त्र लिया गया है, तो जाड़े में वस्त्र की जरूरत होती है और उसमें भी गरम कपड़ा,तो सठता रूपी शीत अगर सता रहा हो तो इस वस्त्र के चिन्ह का ध्यान करने वाले का शोक दूर हो जाता है। इस चिन्ह का ध्यान करने से बड़ा ही सुख मिलता है। जैसे जाड़े में रजाई ओढ़ने पर सुख मिलता है। ऐसे ही भगवान के चरण चिन्ह में अंबर का ध्यान करने से सुख मिलता है, शोक दूर हो जाता है।
तीसरा है कुलिश। कुलिश माने वज्र,भगवान के चरणों में वज्र का चिन्ह है।पाप रूपी पर्वत को चूर चूर कर देने के लिए,भगवान के चरण में कुलिश माने वज्र का चिन्ह है।अगर आप यह चिन्ह याद करेंगे,तो आपके पूर्व के पाप चाहे कितने पहाड़ सरीकें रहे होंगे वह सब चूर चूर हो जाएंगे

भगवान के चरणों में कमल का चिन्ह बना हुआ है मन को उसमें लगा दीजिए।तो भक्ति रूपी शहद,मधुरता आपको खूब मिलेगी।
शेष कल- श्री सीताराम

रविवार, 19 जुलाई 2020

भगवान की भक्ति में खो जाने से लाभ

            भगवान की भक्ति में खो जाने से लाभ


भगवान में लीन हो जाने की प्रक्रिया । नानक लीन भयो  गोविंद संग ,ज्यों पानी संग पानी। तो मोक्ष पांच प्रकार के बताए गए हैं। तो इसमें जो एक मोक्ष है "एक्त"- तो इसमें मुक्ति है। भगवान में विलीन हो जाना अथवा एक निर्वाण  केवल्य पद कहलाता है। यह ज्ञान पद के सिद्धों को , साधकों को प्राप्त होता है ।वहां पहुंचने के बाद संसारी दुख और संसारी सुख दोनों से आप  किनारे होना जाएंगे। यह ज्ञान पथ के पथिको का गंतव्य और चरम उपलब्धि है और भक्ति पथ के पथिको को स्वर्ग से ऊपर -तो ज्ञान है, मोक्ष है और मोक्ष से ऊपर भी भगवान का धाम बताया गया है। जहां प्रभु अपने मित्र सिद्ध साधकों, सिद्ध परिकरों के सहित निवास करते हैं और विभिन्न प्रकार के आमोद-प्रमोद अपनी लीलाओं के द्वारा भक्तों को सुख प्रदान करते रहते हैं। भक्त अपनी सेवाओं के द्वारा भगवान को सुख प्रदान करते हैं और भगवान अपनी लीलाओं के द्वारा, अपनी कृपा दृष्टि के पोषण द्वारा उनको आनंद प्रदान करते रहते हैं। तो यह जो भगवत धाम है  उसको वैदिक भाषा मे त्रिपाक  विभूति कहां गया है। पौराणिक भाषा में भक्तों की भावना और उपासना के अनुसार साकेत, गोलाेक और वैकुंठ इत्यादि कहा जाता है। वह एक ऐसा स्थान है, जहां पहुंचना सबके बस की बात नहीं है और जहां भगवान के भक्ति मार्ग के जो पथिक हैं, भक्ति पथ के जो पथिक हैं, वह भगवान की कृपा द्वारा ही वहां पहुंच पाते हैं और वहां पहुंचने के बाद, ब्रह्मा जी उनके भाग्य में यह जबरदस्ती नहीं लिखेंगे , कि तुमने पिछले जन्म में ऐसा कर्म किया था, तो तुमको बैल बनना पड़ेगा, गधा बनना पड़ेगा, मनुष्य बनना पड़ेगा, बीमार पड़ोगे और कोड़ फूटेगा यह सब भगवान के धाम में जो पहुंच गए अब उनके लिए ब्रह्माजी शासन नहीं कर सकते और ब्रह्मा जी के, देवराज इंद्र जी के, यमराज जी के विभाग से बहुत ऊपर पहुंच गए हो। इसके लिए भगवान श्यामसुंदर गीता जी में कहते हैं कि जहां भक्ति मार्ग पर चलकर के  पहुंचा जा सकता है और जहां पहुंचने के बाद, जहां भगवान की कृपा के बाद, ही वहां पहुंचा जा सकता है। वहां पहुंचने के बाद फिर संसार में पुनरावर्तन नहीं होता है। वह है मेरा धाम। वहां मैं ही अपने मित्र सिद्ध-प्रसाधन  सिद्ध परिकरो के साथ निवास करता हूं। लक्ष्मी जी रहती हैं, भूदेवी रहती हैं और लीलादेवी निवास करती हैं और भगवान के सेवक,जय-विजय, नंद-सुनंद. विश्वतसैन इत्यादि पार्षद। अथवा जिन भक्तों ने भगवान की भक्ति की उनको भी, जटायु जी ने भगवान की भक्ति की और इनको अपना सा स्वरूप प्रदान करके, चतुर्भुज प्रभु ने अपने धाम में भेजा। गजराज ने  प्रभु की स्मरण भक्ति की और उनकी स्तुति की, उनकी प्रार्थना की, भगवान ने प्रसन्न होकर उनको  अपना चतुर्भुज रूप प्रदान करके, विमान पर बिठा करके और उनको सीधा धाम में पहुंचाया। वह भगवान का धाम, भक्ति पथ के पथिको को मिला करता है।

भगवान और भगवान के भक्तो को प्रणाम करने से भी कष्ट दूर हो जाते है।


भगवान और भगवान के भक्तो को प्रणाम करने से भी कष्ट दूर हो जाते है।
गुरूदेव मलूकापीठेश्वर,वृन्दावन

भगवान का सिमरन करो पद वंदन करो तो सारे विघ्न नष्ट हो जाते हैं। गुरु का पद वंदन करो तो भी सारे कष्ट, नष्ट हो जाते हैं। भक्तों का पद वंदन करो, तो भी सारे कष्ट, विघ्न, नष्ट हो जाते हैं। इसका एक उदाहरण है कि आमिर के राजा माधव सिंह छोटे भाई थे उनकी पत्नी श्री रत्नावती जी, पहले तो उनकी भक्ति का विरोध किया लोगों ने। लेकिन फिर बाद में उनकी भक्ति का लोहा मान लिया लोगों ने, और परिवार वालों ने, कि यह भक्ति दिखावा नहीं है सच्ची भक्ति है। इसके बाद मान सिंह और माधव सिंह दोनों कहीं नोका में बैठकर कहीं जा रहे थे और नोका आपद् ग्रस्त हो गई लगा कि दोनों डूब जाएंगे। तो मानसिंह ने कहा कि अब क्या करना चाहिए,तो कहा कि आपकी अनुज बधू रत्नावती भक्त है और सिद्ध कोटि की भक्त हैं, उनका स्मरण करें उनका पद वन्दन करें, उनके नाम की दुहाई दे,नैया पार लग जाएगी।तो सचमुच में रत्नावती जी के नाम की दुहाई की, पद वंदन किया, सिमरन किया तो नासे विघ्न अनेक।मान सिंह जी ने इच्छा व्यक्त की कि मैं उनका दर्शन करना चाहता हूं। आ गए दर्शन करने के लिए और दर्शन करके इनको बड़ी प्रसन्नता हुई और बढ़ाई करने लगे तो रत्नावती जी ने कहा इससे मेरी कोई विशेषता नहीं थी, ठाकुर जी की कृपा और  भक्ति महारानी की कृपा थी। जिनके हृदय में भक्ति महारानी आकर विराजमान हो जाए उनका माया कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है 

बुधवार, 15 जुलाई 2020

परमार्थ के पत्र पुष्प भाग 2

( दादा गुरु श्री गणेश दास भक्तमाली जी महाराज के श्री मुख से कुछ प्रवचन हमारे जीवन का उद्धार करने के लिए)



सत्संग करते रहोगे,सत्संग में आते-जाते रहोगे, सत्संग करते-करते सब कुछ का ज्ञान हो जाएगा। सत्संग से जुड़े रहो।सत्संग से जुड़े रहोगे तो  आपको क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए? इस बात का ज्ञान आपको हो जाएगा। आपके कर्तव्य का ज्ञान, आपका क्या कर्तव्य है?आपको क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए। सत्संग में आते-आते तरह-तरह की कथाएं आपको सुनने को मिलेंगीं। उससे आपको सब कुछ ज्ञान हो जाएगा। हम भगवान के शरण में हैं। अहंकार का त्याग होना जरूरी है।अहंकार का त्याग, जिसमें मैं राजा हूं,मैं धनी -मानी हूं,मैं बलवान हूं ,मैं रूपवान हूं। इस तरह से जाति में, उत्तम जाति में हूं। यह सब अहंकार छोड़ने के लिए होते हैं।एक अहंकार रहना चाहिए केवल, कि मैं भगवान का दास हूं। यह अहंकार नहीं छोड़ा जाएगा। वैष्णव के लक्षण, वैष्णव या भक्तों के लक्षण सभी रामायण, गीता, श्रीमद् भागवत सभी में बड़े-बड़े, लंबे चौड़े वाक्य में कहे गए हैं। मुख्य चार लक्षण श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि प्राणियों पर दया करनी चाहिए ।दया में सब धर्म आ जाते हैं। जिसके हृदय में दया होगी ,वह किसी की चोरी नहीं करेगा क्योंकि चोरी करेगा,तो उसे उसे लगेगा कि किसी को कष्ट होगा।किसी को कष्ट ना देना ,यह भक्तों का लक्षण है। सब के ऊपर दया करना प्राणी मात्र के ऊपर दया करना, व्यवहार करना है।जगत में सब प्रकार का व्यवहार करना है, लेना है, देना है। लेकिन उसमें दया रहनी चाहिए। दया होगी तो हम दूसरों को ठगेंगे नहीं। उचित व्यवहार करेंगे। धोखा नहीं देंगे क्योंकि धोखा देने से उसके मन में कष्ट हो जाएगा, इस प्रकार दया पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। यह वैष्णव का मुख्य लक्षण है। चलते फिरते पैर के नीचे जीव मर जाते हैं, या अनजानें में हो जाता है। तो सायः काल को या प्रातः काल को भगवान के आगे नमस्कार करने से, कीर्तन करने से ,वह अपराध दूर हो जाता है। जानबूझकर के हत्या नहीं करनी चाहिए और अनजाने में जो हो जाती है तो भगवान का नाम लेने से, प्रणाम करने से वह अपराध  दूर हो जाता है।जीवों के प्रति दया का भाव बना रहना चाहिए। भगवान के नाम में रुचि रखना,चलते-फिरते उठते बैठते जिस भी नाम में आपको रुचि है, उसका जाप करते रहना चाहिए। गीता का कहना है कि भगवान ने अर्जुन को कहा तुम युद्ध भी करो और मेरा स्मरण भी करो। तो अर्जुन ने कहाँ कि दोनों काम तो नहीं हो सकते हैं, युद्ध भी करूँ और स्मरण भी करूँ। दोनों काम अगर नहीं हो सकते तो कृष्ण नहीं कहते। तो जो कृष्ण ने अर्जुन को कहा वह सिर्फ अर्जुन को ही नहीं कहा, हम सब को भी कहा है कि संसार में रहकर जाप भी करों। यह संसार भी एक प्रकार का युद्ध है संसार का व्यापार ,व्यवहार जो है। यह एक युद्ध ही है। इसको करते-करते भी भगवान का नाम जपते रहना चाहिए। नाम के वियोग होने पर दुख होना, यह भक्तों का दूसरा लक्षण है ।भगवान का ज्यादा से ज्यादा नाम लेते रहे। मनसे, वाणी से स्वयं भी लेना चाहिए और दूसरा कोई सामने पड़ जाए तो भक्ति का दान करना चाहिए, भक्ति का दान क्या है? सामने कोई आपके आ गया- श्री कृष्ण का नाम लिया, जय श्री कृष्ण, जय श्री सीताराम,जय श्री राधे, तो आपने एक नाम का दान कर दिया।नाम का दान किया तो, तो आपको कोई दुख दरिद्रता नहीं आएगी।

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