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गुरुवार, 11 जनवरी 2024

गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

           गीता के दसवें अध्याय का सरल अर्थ

मनुष्य के पास चिंतन करने की जो शक्ति है उसको भगवान  के चिंतन में ही लगाना चाहिए। संसार में जिस किसी में, जहां कहीं विलक्षणता, विशेषता, मेहत्ता, अलौकिकता, सुंदरता आदि दिखती है, उसमें वह खिंचता है,वह विलक्षणता आदि सब वास्तव में भगवान ही है। अतः वहां भगवान का ही चिंतन होना चाहिए। उस वस्तु, व्यक्ति आदि का नहीं। यही विभूतियों के वर्णन का तात्पर्य है।

गीता के नवें अध्याय का सरल अर्थ

                 गीता के नवें अध्याय का तात्पर्य 


सभी मनुष्य भगवत प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम,संप्रदाय,देश, वेश आदि के क्यों ना हो। वे सभी भगवान की तरफ चल सकते हैं। भगवान का आश्रय लेकर, भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। भगवान को इस बात का दुख है, खेद है,पश्चाताप है कि यह जीव मनुष्य शरीर पाकर, मेरी प्राप्ति का अधिकार पाकर भी ,मेरे को प्राप्त न करके, मेरे पास ना आकर मौत (जन्म मरण)में जा रहे हैं। मेरे से विमुख होकर भी कोई तो मेरी अवहेलना करके, कोई आसुरी संपत्ति का आश्रय लेकर और कोई साकाम भाव से यज्ञ आदि का अनुष्ठान करके, जन्म मरण के चक्कर में जा रहे हैं। वह पापी से पापी हों, किसी नीच योनि में पैदा हुए हो, किसी भी वर्ण, आश्रम, देश आदि के हों, वे सभी मेरा आश्रय लेकर मेरी प्राप्ति कर सकते हैं अतः इस मनुष्य शरीर को पाकर जीव को मेरा भजन करना चाहिए

गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ

              गीता के आठवें अध्याय का सरल अर्थ


अंतकालीन चिंतन के अनुसार ही जीव की गति होती है। इसलिए मनुष्य को हरदम सावधान रहना चाहिए, जिससे अंत काल में भागवत स्मृति बनी रहे। अंत समय में शरीर छुटते समय मनुष्य जिस वस्तु व्यक्ति आदि का चिंतन करता है, उसी के अनुसार उसको आगे का शरीर मिलता है। जो अंत समय में भगवान का चिंतन करता हुआ शरीर छोड़ता है वह भगवान को ही प्राप्त होता है। उसका फिर जन्म मरण नहीं होता। अतः मनुष्य को सब समय में, सभी अवस्थाओं में और शास्त्र विहित सब काम करते हुए भगवान को याद रखना चाहिए जिससे अंत समय में भगवान ही याद आए। जीवन भर रागपूर्वक जो कुछ किया जाता है प्राय: वहीं अंत समय में याद आता है।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने स्वभाव, प्रकृति, और पुरुष के तात्पर्य को स्पष्ट किया है। वह यह बताते हैं कि सभी जीवों का अधिष्ठान प्रकृति है और उनका नियंत्रण पुरुष करता है। कर्मों के माध्यम से पुरुष को प्रकृति से मुक्ति प्राप्त होती है। इसके साथ ही, भक्ति और ज्ञान के माध्यम से भी व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यह अध्याय जीवन को संतुलित रूप से जीने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्रदान करता है।

गीता के सातवें अध्याय का तात्पर्य

                गीता के सातवें अध्याय का सरल अर्थ



सब कुछ वासुदेव ही है, भागवत रूप ही है– इसका मनुष्य को अनुभव कर लेना चाहिए।

 सूत के मणियों से बनी हुई महिलाओं में सूत की तरह भगवान ही सब संसार में ओत प्रोत है। पृथ्वी, जल, तेज,वायु आदि तत्वों में; चांद, सूर्य आदि रूपों में; सात्विक, राजस्व और तमस भाव, क्रिया आदि में भगवान ही परिपूर्ण है। ब्रह्म, जीव ,क्रिया, संसार, ब्रह्मा और विष्णु रूप से भगवान ही हैं। इस तरह तत्व से सब कुछ भगवान ही भगवान हैं।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि भक्ति में समर्पण करने से सब कुछ संभव है और व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा में मिला सकता है। इस अध्याय के माध्यम से जीवन में उद्दीपना और मार्गदर्शन मिलता है, जो सच्चे धर्म की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है?

           रामचरितमानस और रामायण में क्या अंतर है



"रामचरितमानस" और "रामायण" दोनों ही महाकाव्य हैं जो भगवान राम के जीवन को बयान करते हैं, लेकिन इनमें कुछ अंतर हैं। "रामचरितमानस" का रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास था, जबकि "रामायण" का अद्भुत महाकाव्य वाल्मीकि ने लिखा।

तुलसीदास ने "रामचरितमानस" को अपनी भक्ति भावना से भरा हुआ बनाया, जिसमें भगवान राम की प्रशंसा और भक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें अधिकतर भक्ति भावनाओं को सुरक्षित करने के लिए विशेष पहलुओं का उल्लेख है।

वहीं, वाल्मीकि की "रामायण" ने राम के जीवन को ऐतिहासिक और तात्कालिक पृष्ठभूमि से दर्शाने का प्रयास किया है। इसमें राम, सीता, हनुमान, लक्ष्मण आदि के चरित्रों को अद्वितीय रूप से प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह एक महाकाव्य और एक ऐतिहासिक ग्रंथ भी है।

"रामचरितमानस" ने भगवान राम के कथानक को अपने धार्मिक दृष्टिकोण से दर्शाया है, जिसमें भक्ति, नैतिकता, और आदर्शवाद को महत्वपूर्ण स्थान मिलता है। तुलसीदास ने भक्ति मार्ग को प्रमोट किया और राम के चरित्र को एक नेतृत्वपूर्ण आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया।

"रामायण" में वाल्मीकि ने राम के जीवन को एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण से दिखाया है, जिसमें युद्ध, राजनीति, और मानवीय धरोहर को बड़े रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें समय-समय पर आनेवाली कई विचारशील प्रवृत्तियों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझाने का प्रयास किया गया है।

यद्यपि दोनों महाकाव्य भगवान राम की महत्व पूर्णता पर चर्चा करते हैं, उनका दृष्टिकोण और प्रस्तुतिकरण विभिन्न हैं, जिससे वे अद्वितीय रूप से महत्वपूर्ण हैं।

।।जय श्री राम।।

सोमवार, 8 जनवरी 2024

श्रीमद भागवत गीता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

                        श्रीमद् भागवत  गीता सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 1 से 4 तक


1प्रश्न – गौरव सेना के तो शंख ,भेरी, ढोल आदि कई बाजे बजे ,पर पांडव सेना के केवल शंख ही बजे, ऐसा क्यों?

उत्तर- युद्ध में विपक्ष की सेना पर विशेष व्यक्तियों का ही असर पड़ता है, सामान्य व्यक्तियों का नहीं। कौरव सेना के मुख्य व्यक्ति भीष्म जी के शंख बजाने के बाद संपूर्ण सैनिकों ने अपने-अपने कई प्रकार के बाजे बजाए, जिसका पांडव सेना पर कोई असर नहीं पड़ा। परंतु पांडव सेना के मुख्य व्यक्तियों ने अपने-अपने शंख बजाए जिनकी तुमुल ध्वनि ने कौरवों के हृदय को विदीर्ण कर दिया।

2 प्रश्न – भगवान तो जानते ही थे कि भीष्मजी ने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए ही शंख बजाया है, यह युद्ध आरंभ की घोषणा नहीं है। फिर भी भगवान ने शंख क्यों बजाया?

उत्तर –भीष्म जी का शंख बजते ही कौरव सेवा के सब बाजे एक साथ बजे उठे। अतः ऐसे समय पर अगर पांडव सेना के बाजे ना बजते तो बुरा लगता, पांडव सेना की हार सूचित होती और व्यवहार भी उचित नहीं लगता। अतः भक्तपक्षपाती भगवान ने पांडव सेना के सेनापति धृष्टधुम्न की परवाह न करके सबसे पहले शंख बजाया।

3 प्रश्न– अर्जुन ने पहले अध्याय में धर्म की बहुत सी बातें कही है, जब वह धर्म  की इतनी बातें जानते थे, तो फिर उनका मोह क्यों हुआ?

उत्तर –कुटुंब की ममता विवेक को दबा देती है, उसकी मुख्यता  को नहीं रहने देती और मनुष्य को मोह ममता में तल्लीन कर देती है। अर्जुन को भी कुटुंब की ममता के कारण मोह हो गया।

4 प्रश्न –जब अर्जुन पाप के होने में लोभ को कारण मानते थे, तो फिर उन्होंने ‘मनुष्य ना चाहता हूं भी पाप क्यों करता है’ यह प्रश्न क्यों किया?

उत्तर –कोतुम्बिक मोह के कारण अर्जुन पहला अध्याय में युद्ध से निवृत होने को धर्म और युद्ध में प्रवृत होने को धर्म मानते थे अर्थात शरीर आदि को लेकर उनकी दृष्टि केवल भौतिक थी, अत: वह युद्ध में स्वजनों को मारने में लोभ को हेतु मानते थे। परंतु आगे गीता का उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने कल्याण की इच्छा जागृत हो गई अतः वह पूछते हैं कि मनुष्य ना चाहते हुए भी ना करने योग्य काम में प्रवृत क्यों होता है? तात्पर्य यह है कि पहला अध्याय में तो अर्जुन मोहाविष्ट होकर कह रहे हैं और तीसरे अध्याय में वे साधक की दृष्टि से पूछ रहे हैं।

यह प्रश्न उत्तर गीता दर्पण (स्वामी रामसुखदास जी के वचन) पुस्तक से लिए गए हैं।

शनिवार, 6 जनवरी 2024

श्री राम स्तुति का सरल अर्थ।।

                       ।।श्री राम स्तुति का सरल अर्थ।।



"श्री रामचंद्र कृपालु भजुमन" का स्वरूप इस प्रकार है:


1. श्री रामचंद्र: स्तुति का आरंभ हो रहा है भगवान राम की महिमा के साथ।

2. हरण भवभय दारुणं: भगवान राम भक्तों के लिए संसारिक भयों को दूर करने वाले हैं।

3. नव कंज लोचन... कंजारुणं:यह श्लोक भगवान के सुंदर रूप, आँखें, मुख, हाथ, और पैर की प्रशंसा करता है।

हे मन, कृपानिधान प्रभु श्रीरामचंद्र को नित्य भज जो भवसागर के जन्म-मृत्यु रूपी कष्टप्रद भय को हरने वाले हैं। उनके नयन नए खिले कमल की तरह हैं। मुँह-हाथ और पैर भी लाल रंग के कमल की तरह हैं ॥१॥


4. कन्दर्प अगणित अमित छवि... नोमि जनक सुतावरं इसमें हरिवंश (कृष्ण) के अनगिनत रूपों की प्रशंसा है और राम को  कहकर स्तुति की जा रही है।

उनकी सुंदरता की अद्भुत छ्टा अनेकों कामदेवों से अधिक है। उनके तन का रंग नए नीले-जलपूर्ण बादल की तरह सुन्दर है। पीताम्बर से आवृत्त मेघ के समान तन विद्युत के समान प्रकाशमान है। ऐसे पवित्र रूप वाले जानकीपति प्रभु राम को मैं नमन करता हूं। ॥२॥


5. भजु दीनबन्धु... चन्द दशरथ नन्दनं: इसमें भक्त को भगवान की पूजा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, जो दीनबंधु हैं और दैत्यों के वंश को नष्ट करने वाले हैं।हे मन, दीनबंधु, सूर्य देव की तरह तेजस्वी, दैत्य-दानव के वंश का विनाश करने वाले, आनंद के मूल, कोशल-देश रूपी व्योम में निर्दोष चन्द्रमा की तरह दशरथ के पुत्र भगवान राम का स्मरण कर ॥३॥


6. शिर मुकुट कुंडल तिलक... संग्राम जित खरदूषणं:श्री राम के शिर पर रत्नों से मंडित मुकुट है, कानों में कुंडल विद्यमान हैं, माथे पर तिलक है और अंग-प्रत्यंग में मनोहर आभूषण शोभायमान हैं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक दीर्घ हैं। वे धनुष व बाण धारण किए हुए हैं और संग्राम में खर-दूषण को पराजित कर दिया है।भगवान के रूप, भूषण, और धनुष धारण का वर्णन है, जो खरदूषण जैसे राक्षसों को जीतने के लिए संग्राम करते हैं।


7. इति वदति तुलसीदास... कामादि खलदल गंजनं:जो श्रीराम भगवान शंकर, शेष और ऋषि-मुनियों के मन को आनंदित करने वाले तथा कामना, क्रोध, लालच आदि खलों को विनष्ट करने वाले हैं, गोस्वामी तुलसीदास वंदन करते हैं कि वे रघुनाथ जी हृदय-कमल में हमेशा निवास करें ।

यह श्लोक संत तुलसीदास द्वारा बोला जा रहा है, जो अपने मन की निवास स्थान के रूप में भगवान से भक्ति की गुजारिश करते हैं और कामादि खलदल से मुक्ति की प्राप्ति का आशीर्वाद मांगते हैं।


8. मन जाहि राच्यो... स्नेह जानत रावरो:जिसमें मन रचा-बसा हो, वही सहज सुन्दर साँवला भगवान राम रूपी वर तुमको मिले। वह जो करुणा-निधान व सब जानने वाला है, तुम्हारे शील को एवं तुम्हारे प्रेम को भी जानता है।

इस श्लोक में साधक को भगवान के साथ संबंध में सरलता और भक्ति की भावना है।


9. एहि भांति गौरी असीस सुन सिय... मुदित मन मन्दिर चली:इस तरह माता पार्वती का आशीर्वचन सुन भगवती सीता जी समेत उनकी सभी सहेलियाँ अन्तःकरण में अह्लादित हुईं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं, आदि शक्ति भवानी का पुनः-पुनः पूजन कर माता सीता पुलकित हृदय से राजमहल को लौट गयीं।

 स्तुति अपने अंत में सीता जी, भगवान राम की पत्नी, की कृपा की आशीर्वाद को प्राप्त होने की इच्छा का अभिव्यक्ति करती है और संत तुलसीदास का मन मंदिर में भगवान की पूजा चलता है।

"श्री राम चंद्र कृपालु भजमन" स्तुति का भावार्थ निम्नलिखित है:


1. श्री राम चंद्र: यह भगवान राम को संदर्भित करता है, जो हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता है।

2. कृपालु:यह शब्द कृपा करने वाले को दर्शाता है, और यहां इससे भगवान की कृपा और अनुग्रह की बात है।

3. भजमन: इसका अर्थ है 'भजना' या 'पूजना'। यहां भक्ति और पूजा के माध्यम से भगवान की उपासना की जा रही है।

4.  काव्यिक रूप से भगवान की प्रशंसा और स्तुति का अभिव्यक्ति करने के लिए उपयुक्त है।

इस स्तुति में भक्त का भगवान राम के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और समर्पण व्यक्त होता है। हनुमान को भगवान के प्रमुख भक्त के रूप में स्वीकार किया जाता है और भक्त की माध्यम से भगवान से कृपा की प्राप्ति की गुजारिश की जाती है। इसमें आत्मा की मुक्ति की प्राप्ति और भगवान के साथ एकता की इच्छा का व्यक्तिगत अनुभव व्यक्त होता है। सम्पूर्ण स्तुति भक्ति और साधना के माध्यम से अपने आत्मा को भगवान के साथ मिलाने की आग्रह करती है।

।।जय सिया राम।।

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