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बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

gopi chadan





गोपी चंदन क्या है ?
गोपी तिलक क्यो लगाया जाता है ?
कौनसे भक्त गोपी तिलक करते है?
यु तो हम सभी ने देखा है कि सभी भक्त अपने माथे पर
अलग अलग प्रकार के तिलक करते है| कोई लाल तिलक
करता है तो कोई मिट्टी के रंग का तिलक करता है |और
उनका लगाने का प्रकार भी सभी परम्पराओं मे भिन्न भिन्न
प्रकार का होता है|
जो भक्त भगवान श्री कृृष्ण को मानते है और वैष्णव सनातन
धर्म पर चलते है | वे भक्त सदैव अपने मस्तक पर
गोपीचंदन के तिलक का उपयोग करते है|
गोपी तिलक क्यो किया जाता है ? एक तो अगर हम संसारिक
दृष्टिकोण से देखेगे तो ,उसे हम ऐसे देख सकते है, कि जिस
प्रकार हर देश का अपनी अपनी एक पहचान होती है, अर्थात
उनके झंडे के रुप में| जैसे हम अगर किसी क
झंडा दिखायेगे तो सामने वाला व्यक्ति समझ जायेगा कि हम
भारत से है| ऐसे ही जब कोई भक्त वैष्णव परम्परा ग्रहण
करता है तो गोपी तिलक करता है | या दुसरे उदारण से हम
इसे ऐसे समझ सकते है , कि जैसे हर एक स्कुल की अपनी एक
अलग युनिर्फाम होती है | जिसे हमे पता चलता है कि ये
बच्चा किस स्कुल का है| बस इसी प्रकार गोपीचंदन
का तिलक भी वैष्णव परम्परा की पहचान है|
ये तो हमने भौतिक दृष्टिकोण से जाना कि गोपीचंदन
का तिलक क्यो किया जाता है| अब इस बात को हम
आध्यतामिक दृष्टिकोण से जानते है एक भक्त जब भगवान
की शरण ग्रहण करता है और ठाकुर जी को अपने ह्दय कमल
में विराजमान करता है तो उस भक्त का ये शरीर एक मंदिर
के समान हो जाता है और वो गोपी चंदन से अपने इस मंदिर
को सजाता है | अर्थात श्रृगाँर करता है|
जय-जय श्री राध

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

देवराहा बाबा के अमृत वचन सेवा,सहानुभूति और उदारता

   देवराहा बाबा के अमृत वचन सेवा,सहानुभूति और उदारता 


                         (ब्रह्मलीन योगिराज श्रीदेवराहा बाबाजी के अमृत वचन )

        प्रेम ही सृष्टि हैं , सबके प्रति प्रेम भाव रखो। 
       
       भूखो को रोटी देने में और दुखियों के आसूं पोछने में जितना पुण्य लाभ होता हैं और , उतना वर्षो के जप तप भी नहीं होता। 

       परमात्मा  पृथक कुछ भी नहीं हैं। यह सर्व्यापक ईश्वर प्रकृति के कण -कण  व्याप्त हैं। अतः चराचर को भगवत स्वरूप मानकर सबकी सेवा करो। 

       गीता का सार हैं , दुखी को सांत्वना तथा कष्ट में सहायता देना एवं उन्हें दुःख भय  से मुक्त करना। 

        आत्मचिंतन , दैन्य -भाव और सदगुरु  की सेवा इन तीनो बातों को कभी मत भूलो। 

       प्रतिदिन  यथासाध्य कुछ- न -कुछ दान अवश्य करों ,इससे त्याग की प्रवृति जागेगी। 

      प्रेम एंव स्नेह से दुसरो की सेवा करना ही सर्वोच्च धर्म हैं , उससे ऊँचा कोई नहीं। 

     सम्पूर्ण जप और तप दरिद्रनारायण की सेवा और उनके प्रति करुणा के समान हैं। 

     अठारह पुराणो में व्यासदेव के दो ही वचन हैं -परोपकार  पुण्य हैं और दुसरो को पीड़ा पहुँचाना  पाप हैं। 

      अतिथि सत्कार श्रद्धा पूर्वक करो ;अतिथि का गुरु और देवता की तरह सम्मान करों। 

     जिस घर में गरीबों का आदर होता हैं और न्याय द्वारा अर्जित सम्पति हैं  वैकुण्ठ के सदृश हैं। 

      जब चलो तो समझो कि मैं भगवान की परिक्रमा कर रहा हूँ ,  जब पियो तो समझो कि मैं भगवान का चरणामृत पान कर रहा हूँ। भोजन करो तो समझो कि मैं भगवान का प्रसाद पा रहा हूँ ,सोने लगो तो समझो मैं उन्ही की गोद में विश्राम कर रहा हूँ.

     प्रत्येक कर्म को ईश्वर की सेवा और परिणाम को भगवत्प्रसाद समझना। सबके प्रति शिष्ट एंव समान भाव रखना , क्रोध -लोभ का परित्याग करना ही प्रभु  की सेवा हैं। 

     सभी मनुष्यों से मित्रता करने से ईष्या की निवृति हो जाती हैं। दुखी मनुष्यों पर दया करने से दुसरो का बुरा करने की इच्छा समाप्त हो जाती हैं। पुण्यात्मा को देखकर प्रसन्नता होने से असूया की निवृति हो जाती हैं। पापियों की उपेक्षा करने से अमर्ष , घृणा आदि के भाव समाप्त हो जाते हैं। यह साधको के लिए आचार हैं। 

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

राम रक्षा स्तोत्र हिदी में

         प्रभु हमारी हर संकट से रक्षा करें
एक मात्र केवल और केवल उन्ही का सहारा हैं      
                 राम रक्षा स्तोत्र हिदी में
                                
आज मैं आप सबके सामने एक ऐसे स्तोत्र के रखना चाहती हूँ, जिसके महत्व की जानकारी  मेने जाने कितनी बार विभिन्न पत्रिकाओ में एवं ,गुरु जी के .श्री मुख से सुनी हैं। बहुत से लोगो ने अपने साथ होने वाले आश्चर्यजनक अनुभव के बारे में भी बताया हैं जो कि बिलकुल सत्य थी। बल्कि मैंने स्वंय महसूस किया कि अगर इस  पाठ को पूरी निष्ठा के साथ किया जाए  तो यह चमत्कार दिखलाता हैं। किसी को भी जब कोई समस्या का समाधान न मिल रहा हो तो एक बार जरूर विश्वास के साथ इस पाठ  को करें, अवश्य ही लाभ होगा।  यह मैं हिंदी में ही करने की सलाह दूँगी , ताकि कोई गलती न हो। पाठ इस प्रकार हैं -                                           
                                                                                   
  .                         राम रक्षा स्तोत्र
                                                            
                                                                                      विनियोगः 

इस रामरक्षा स्तोत्र -मंत्र के बुध कौशिक ऋषि हैं , सीता और रामचन्द्र देवता हैं , अनुष्टप् छन्द हैं , सीता शक्ति हैं , श्रीमान हनुमानजी कीलक हैं तथा श्री रामचन्द्रजी की प्रसन्नता के लिए रामरक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं। 
      
                                                                                         ध्यानम् :-
जो धनुष -बाण धारण किए हुए हैं , बद्ध पद्मासन से विराजमान हैं , पीतांबर पहने हुए हैं , जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमल दल से स्पर्धा करते तथा वामभाग में विराजमान श्री सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं , उन आजानुबाहु , मेघश्याम , नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित तथा विशाल जटाजूटधारी श्री रामचन्द्र जी का  ध्यान करे। 

                                                                                   स्तोत्रम :-

                     श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ विस्तारवाला हैं और उसका एक -एक अक्षर भी महान पापो को नष्ट करने वाला हैं।।१।।

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण , कमलनयन , जटाओं के मुकुट से सुशोभित , हाथों में खड्ग , तूणीर , धनुष और बाण धारण करने वाले , राक्षसों के संहारकरी  तथा  संसार की रक्षा के लिए अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं , उन अजन्मा और सर्वव्यापक भगवान रामजी , जानकीजी और लक्ष्मणजी के सहित स्मरण कर प्राज्ञ पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करे। मेरे सिर की राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करे।।२-४ ।।

कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें , विश्वामित्र प्रिय कानों को सुरक्षित रखे तथा यज्ञ रक्षक घ्राण की और  सौ मित्रिवत्सल  मुख की रक्षा करें।।५।।

मेरी जिव्हा की विद्यानिधि , कंठ की भरतवन्दित , कंधो की दिव्यायुध और भुजाओं की भग्नेशकार्मुक (महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले )रक्षा करें।।६।।

हाथों की सीतापति , हृदय की जामदग्न्यजित (परशुरामजी को जीतने वालें  ), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करने वाले )और नाभि की जाम्ब्वदाश्रय रक्षा करें।।७।।

कमर की सुग्रीवेश , सक्थियों की हनुमत्प्रभुः और उरुओं की राक्षसकुल विनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें।।८।।

जानुओं की सेतुकृत् , जंघाओं की दशमुखान्तक (रावण को मारने वाले ), चरणों की विभीषण श्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले )और सम्पूर्ण शरीर की श्री राम रक्षा करें।।९।।

जो पुण्यवान् पुरुष रामबल से सम्पन्न  इस रक्षा का पाठ करता हैं , वह दीर्घायु , सुखी , पुत्रवान , विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता हैं।।१०।।

जो जीव पताल , पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और छद्मवेश से घूमते रहते हैं , वे राम नाम से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं सकते।।११।।

'राम','रामभद्र ','रामचन्द्र 'इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य पापों में लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं।।१२।।

जो पुरुष जगत को विजय करने वाले एकमात्र मन्त्र राम नाम से सुरक्षित इस स्त्रोत को कंठ में धारण कर लेता हैं , सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं।।१३।।

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक  इस राम कवच का स्मरण करता हैं , उसकी आज्ञा का  कहीं भी उल्लघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती हैं।।१४।।

श्री शंकरजी ने रात्रि के समय स्वप्न में इस राम रक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था , उसी  प्रकार प्रातः काल जागने पर बुध कौशिक जी ने इसे लिख दिया।।१५।।

जो मानो कल्पवृक्ष के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं , जो तीनो लोक में परम सुंदर हैं , वे श्री राम हमारे प्रभु हैं।।१६।।

जो तरुण अवस्था वाले , रूपवान , सुकुमार , महाबली , कमल के सामान विशाल नेत्रों वाले , चीर वस्त्र और कृष्ण मृगचर्म धारी ,फल -मूल  आहार वाले , संयमी , तपस्वी , ब्रह्मचारी , सम्पूर्ण जीवो को शरण देने वाले , समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षस कुल का नाश करने वाले हैं , वे रघुश्रेष्ठ दसरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करे।।१७ -१९।

जिन्होंने संधान किया हुआ धनुष ले रखा हैं , जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिए हुए हैं , वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मार्ग में सदा ही मेरे आगे चले।।२०।।

सर्वदा उद्यत , कवचधारी , हाथ में खड्ग लिए , धनुष बाण धारण किये तथा युवा अवस्था वाले भगवान राम लक्ष्मण जी सहित आगे -आगे  चलकर  हमारे मनोरथों की रक्षा  करें।।२१।।

(भगवान का कथन हैं कि )राम , दशरथि ,शूर , लक्ष्मणानुचर , बलि , काकुत्स्थ , पुरुष , पूर्ण , कौसल्येय , रघुत्तम , वेदान्तवेद्य ,यज्ञेश ,पुराण पुरुषोत्तम , जानकी वल्ल्भ , श्रीमान और अप्रमेयपराक्रम - इन नाम का नित्य प्रति श्रद्धा पूर्वक जप करने से मेरा भक्त  अश्वमेध  यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता हैं -इसमें कोई संदेह नहीं हैं।।२२ -२४।

जो लोग दूर्वादल के समान श्याम वर्ण , कमल नयन , पीताम्बरधारी भगवान राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं , वे संसार चक्र में नहीं पड़ते।।२५।।

लक्ष्मणजी के पूर्वज , रघुकुल में श्रेष्ठ , सीताजी के स्वामी , अतिसुन्दर , ककुत्स्थ कुलनन्दन , करुणा सागर , गुणनिधान , ब्राह्मणभक्त , परमधार्मिक , राजराजेश्वर , सत्यनिष्ठ , दशरथ पुत्र , श्याम  और शांतिमूर्ति , सम्पूर्ण लोको में सुंदर , रघुकुल तिलक , राघव और रावणारी  भगवा न राम की मैं वंदना करता /करती हूँ।।२६।।

राम , रामभद्र , रामचन्द्र , विधार्त स्वरूप , रघुनाथ , प्रभु सीतापति को नमस्कार हैं।।२७।।

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरताग्रज भगवान राम ! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये।।२८।।

मैं श्री राम चन्द्र के चरणों का मन से स्मरण करता हूँ , श्री रामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ , श्री रामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्री रामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ।।२९।।

राम मेरी माता हैं , राम मेरे पिता हैं , राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं , दयामय राम ही मेरे सर्वस्व हैं , उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानती।।३०।।

जिनकी दायीं और लक्ष्मणजी , बाएँ और जानकीजी और सामने हनुमानजी विराजमान हैं , उन रघुनाथजी की मैं वंदना करता हूँ।।३१।।

जो सम्पूर्ण लोकों में सुंदर , रणक्रीडा में धीर , कमलनयन , रघुवंश नायक , करुणामूर्ति और करुणा के भंडार हैं, उन श्री रामचन्द्र जी की मैं शरण लेता हूँ।।३२।।

जिनकी  मन के सामान गति और वायु के सामान वेग हैं , जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानो में श्रेष्ठ हैं। उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्री रामदूत मैं शरण लेता हूँ।।३३।।

कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरो वाले राम -राम इस मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकिरूप  कोकिल की मैं वंदना करता हूँ।।३४।।

आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ।।३५।।

'राम -राम 'ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसार बीजों  को भून डालनेवाला , समस्त सुख -सम्पति की प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करनेवाला हैं।।३६।।

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीरामजी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान राम का भजन करता हूँ। जिन रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षस सेना का ध्वंस कर दिया था , मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई आश्रय नहीं हैं। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्त सदा राम में ही लीन रहें ;हे राम !आप मेरा उद्धार कीजिये।।३७।।

(श्री महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं -)हे सुमुखि !रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम के तुल्य हैं। मैं सर्वदा 'राम-राम , राम 'इस प्रकार मनोरम रामनाम में ही रमण करता हूँ।।३८।।
         
                              इति श्री बुधकौशिकमुनिविरचितं श्री राम रक्षास्तोत्रं सम्पुर्णम्। 
( यह पाठ करते समय ध्यान रखे की शुद्ध स्थान और शुद्ध आसन होना चाहिए। मन में पूर्ण विश्वास , श्रद्धा होनी चाहिए। )


गुरुवार, 22 जनवरी 2015

हम अपने बने।





                                                        अपने बने                                        

दुखी व्यक्ति के लिए वास्तव में यह संसार दुःख का जंगल हैं। दुःख  से घिरे  हुए व्यक्ति के अंदर केवल एक ही विचार कार्य करता हैं कि  वह अकेला हैं और सब और से घृणा से भरा हैं। उसे ऐसा लगता हैं कि  कोई भी व्यक्ति को उससे संवेदना नहीं हैं और न ही उसके प्रति कोई आकृष्ट नहीं हैं। और तो और उसका स्वंय पर से भी विश्वास उठ जाता हैं। पर उसके मन से यह बात अलग नहीं होती कि शायद किसी अन्य के द्वारा उसे दुःख से छुट्टी मिल जाए। 
             दुःख के समय मन से किसी प्रकार की सहायता नही मिलती ;क्योंकि उसकी अनर्गल  इच्छाएisही दुःख उत्पन्न करती हैं.इच्छाओ से उत्पन्न सुख को तो वह गले लगा लेता हैं, पर दुःख के उपस्थित होने पर उसकी कुछ सुने बिना ही वह उसे भगा  देना चाहता हैं। परिस्थितियों के अनुकूल होने पर उसे कभी -कभी सफलता मिल भी जाती हैं और ऐसे में बुद्धि निस्सहाय होकरसुषुप्ति -अवस्था में चली जाती हैं और दुःख के विषय में गंभीर विचार करने में असमर्थ हो जाती हैं। मन के चक्र में फंस कर मनुष्य अधिक समय तक दुःख भोगता रहता हैं। ऐसे ही कितने जीवन दुःख के कारण नष्ट हो जाते हैं। 
           कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दुःख की घड़ी आने पर उस पर कुछ विचार करते भी हैं और सत्संग का आश्रय लेते हैं। लकिन अधूरे विचार और बाहरी सत्संग से उन्हें विशेष लाभ नहीं होता , क्योंकि दुःख पर विचार करते समय या सत्संग के अवसर पर उसका मन पूरी तरह से वहाँ नहीं रहता। उसका  सदा इधर -उधर भटकता रहता हैं और दुसरो की बातों में दुःख  छुटकारा पाने के लिए समाधान ढूँढता हैं , जो उसे कभी नहीं मिलता। कारण , वह अपने इन्द्रिय -सुख को कभी छोड़ना  नही चाहता। दुःख के अवसर मनुष्य के जीवन में बार -बार आते हैं और हर बार  गहरी चोट पहुँचाते हैं। मनुष्य उससे तिलमिलाता हैं , रोता हैं , चिल्लाता हैं , पश्चाताप करता हैं और उसके मन में भोगो से मुँह मोड़ने की इच्छा होती हैं , लेकिन पुरानी आदत अवसर आने पर उसे फिर भोगों की और आकर्षित कर देती हैं और फिर से मनुष्य दुखो में घिर कर रोना शुरू कर देता हैं। यदि मनुष्य खुद नहीं संभला तो ऐसी कोई ताकत नहीं हैं जो उसे सही पथ पर ला सके। 
           जिस मनुष्य ने जिंदगी की बातों को या उसके सुख -दुःख को समझ लिया हैं और उसके अंदर दुखों से तीव्र छुटकारा पाने की इच्छा हो गई हैं उसे सुखी होने से फिर कोई नहीं रोक सकता। ऐसे व्यक्ति को किसी सत्संग की जरूरत नहीं क्योंकि मनुष्य को अल्पकाल के लिए सत्संग से लाभ हो सकता हैं परन्तु पूर्ण लाभ तो तभी होगा जब वह अपने को समझा सकेगा। मनुष्य का जीवन एक सुंदर रंग बिरंगे  फूलों का उपवन हैं अगर इसमें कोई सुंदरता को नष्ट करने वाली कोई चीज़ उग जाती हैं तो उसे उखाड़ फेंको। अपनी व्यर्थ की इच्छाओं  को पूरा करने की होड़ में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि  हमे मालूम ही नहीं चलता कि जीवन के कितने अनमोल पल हमने अपनी  व्यर्थ के भविष्य के सुख प्राप्ति के कारण नष्ट कर दिए। इसलिए  दुःख की अवस्था में होश में रहकर अवसर को हाथ से न जाने दो , जितनी जल्दी हो सके अपने दुःख को दूर कर देना चाहिए। मनुष्य को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि इच्छा कभी पूरी नहीं होती और उम्र पूरी हो जाती हैं। इसलिए आपके  पास जितना भी  हैं उसी में संतुष्ट रहने की आदत डालो।  शेष कल : 
जय श्री राधे !

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

मेरे मन की आवाज

                                                                           


                                                                           आपका दिन मंगलमय हो !



मैं  एक  पेज़  और शु रू  करने जा रही हूँ। जिसमे कभी -कभी मेरे अंतर्मन में कुछ विचार उठते हैं जिनको मैं आपके साथ शेयर करना  चाहती हूँ।
इस पेज़ को मैं नाम दे रही हूँ -मेरे अंतर्मन की आवाज !


                                 आजकल धर्म को लेकर बहुत चर्चाए चल रही हैं। धर्म परिवर्तन हो रहे हैं। जगह -जगह धर्म के नाम पर दुखी लोगो का फायदा उठाकर अपनी तिजोरी को भरा जा रहा हैं।

हम आप से यह पूछते हैं कि जब हमे कोई दुःख या कष्ट होता हैं। तो हम उस परमपिता परमेश्वर की ही शरण में क्यों नहीं जाते। हमे उनके पास अपनी बात को पहुंचाने के लिए किसी midiater की ही जरूरत क्यों पड़ती हैं। हम सीधे ही अपने माँ- पिता से सीधे ही बात क्यों नहीं करते। एक बार आप उस परमेश्वर से कोई रिश्ता बना कर तो देखिये। मैं पुरे विश्वास के साथ कहती हूँ कि फिर आपको किसी अन्य के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कोई भी आपका फायदा नहीं उठा पायगा। लकिन शर्त एक ही हैं कि  आपको अपने आपको पूरी तरह से समर्पित करना पड़ेगा। (यहाँ पर मैं समर्पण किसी
इंसान के आगे करने के लिए नहीं कह रही हूँ बल्कि
ईश्वर के आगे समर्पण करने के लिए कह रही हूँ। )मुझेभी कई बार ऐसी उलझन हुई हैं कि मन ने कहाँ कि किसी ज्योतिषी की शरण में चला जाए , लकिन तभी मेरी अंतरात्मा मुझे रोक लेती हैं। जो इस सारे विश्व की देखभाल कर रहा हैं , वो क्या हमको नजरअंदाज करेंगे। हम तो उन्ही की संतान हैं।

अगर आपने कभी गोर किया हो तो जाना होगा की अक्सर हमारे मन में दो विचार आते हैं एक गलत होता हैं व एक सही। यह हमे  निर्णय लेना हैं कि  हम किस को चुने।

एक बात और कोई भी धर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। मेरा सिर तो जितने आस्था के साथ मंदिर में झुकता हैं। उसी आस्था के साथ मस्जिद में , गुरूद्वारे में , चर्च में भी झुकता हैं। मेरे माता -पिता के रूप में अगर मेरे भोले बाबा व गोऱा माँ हैं, तो वही जीसस , नानक देव , व पीर मोहम्मद भी मेरे माता -पिता ही हैं।
आपके कारण किसी को दुःख न पहुंचे। हर असहाय  की तुम सहायता करो। तुम्हारे पास कोई भी वस्तु ज्यादा हैं उसे किसी जरूरत मंद को दे दो।
 आप जब किसी के होठों पर मुस्कान लाओगे  तब जो खुशी आपको मिलेगी वो सब से हट कर होगी।

!

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

जीवन में आन्नद चाहते हो तो करो


जीवन में आन्नद चाहते हो तो 





सुबह उठकर धरती माँ को प्रणाम करो , माता -पिता को प्रणाम करो , प्रभु को याद करो। माता -पिता को  कष्ट देंगे तो दुखी रहेंगे

अतः हमेशा उनकी सेवा करो व् उनको सुखी रखो। 

अपनी शक्ति के अनुसार गरीबो की ,जरूरतमंद की , असहायों की मदद करो। उसी समय आनंद की अनुभूति हो जाायेगी।

किसी से प्यार करोगे, तो प्यार पाओगे , गाली दोगे तो गाली पाओगे। तो क्यों न प्यार का माहौल बना कर रहा जाए। आनंद ही आनंद का अनुभव होगा।

जीवन में ऐसा कोई भी कार्य या कर्म न करे कि दिन का चैन व् रातो की नींद चली जाए।

दुसरो की अच्छाई देखे , कमी अपनी देखें और उसे दूर करने का प्रयास करे।

चरित्र बहुत बड़ी पूंजी हैं। धन गया तो वापिस आ जाएगा लेकिन चरित्र गया तो, सब कुछ चला जाएगा।

परोपकार सिर्फ धन से ही नहीं होता बल्कि इसके और भी रूप हैं प्यासे को पानी , भूखे को रोटी , असमर्थ व्यक्ति को उसके निवास तक पंहुचा कर आदि तरीके से भी परोपकार किया जा सकता हैं।

मनुष्य आता अकेले हैं व् जाता भी अकेले हैंI ईसलिए ऐसा कर्म कर के जाए कि सभी हमारी अनुपस्थिति में हमे याद करे।

गलती इंसान से ही होती हैं ,गलती होना स्वभाविक भी हैं, किन्तु गलती करने के बाद उस गलती को मान लेना महानता हैं। ऐसा प्रयास करे कि फिर वो गलती दुबारा न हो। जीवन मंगलमय बनेगा।

मानव शरीर के अंन्दर विकार ही विकार हैं और. प्रभु उसे किसी न किसी माध्यम से बाहर निकलते रहते हैं जैसे -कान से गन्दा wax , आँख से कीचड़ , मुख से बलगम , त्वचा से पसीना आदि। पर एक हम हैं जो मन और बुद्धि के विकार बाहर नहीं निकाल सकते।

धन से अधिक परिवार में बच्चो को अच्छे संस्कार देने की आवश्यकता हैं , यदि संस्कार अच्छे नहीं होगे तो बच्चे सारी सम्पति बर्बाद कर देंगे। जिस परिवार में अच्छे संस्कार हैं , उस परिवार में किसी चीज का आभाव नहीं हो सकता। परिवार हमेशा सुखी रहेगा।
राधे-राधे

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

bhakt himmtdas





भक्त  हिम्मतदास 

भगवान सदा अपने भक्तो का ध्यान रखते हैं। उनके बड़े से बड़े कष्टो को पलमात्र में नष्ट कर देते हैं, परन्तु वह उन्ही भक्तो का साथ देते हैं जो पूर्णरूप से प्रभु के चरणो में समर्पित हो जाते हैं। ऐसे ही प्रभु  के कृपापात्र हुए हैं -भक्त हिम्मतदास।

    हिम्मतदास और उनकी पत्नी में अगाध प्रेम था। दोनों ही भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित थे। एकबार लक्ष्मीजी ने भगवान से पूछा कि महाराज  क्या आपसे बड़ा भी कोई हैं ? भगवान विष्णु ने सरल भाव से कहा -हाँ हैं , वह हैं हमारा भक्त। लक्ष्मीजी ने कहा -तब तो वे रिश्ते में मेरे जेठ हुए। जेठ अथवा ससुर से नारियो में पर्दे का विधान हैं अत:मैं भी आपके भक्तो से पर्दा करती रहूंगी। आप देखते हैं कि  जो भगवान का सच्चा भक्त होता हैं वह लक्ष्मीजी की कृपा से तो वंचित रहता हैं परन्तु प्रभु  की कृपा का पात्र बन जाता हैं , और प्रभु उसके सभी कष्टो को दूर करने के लिए वैसा ही रूप धारण कर लेते हैं , जिससे उसके कष्ट दूर हो।
इसी प्रकार भक्त हिम्मतदास भी अपनी पत्नी के साथ प्रभु चरणो में लीन होकर राम नाम जपते थे तथा साधु संतो को भगवान का रूप मानकर उनकी सेवा में दिन रात तल्लीन रहते थे। परन्तु लक्ष्मीजी की कृपा से वंचित थे।
                 एक दिन संत हिम्मतदास के घर में कुछ संत आगए , और उन्होंने भोजन की इच्छा  प्रगट की। उस समय संत हिम्मतदास के पास स्वंय के खाने के लिए कुछ नहीं था, तो वह संतो को कहा से खिलाते परन्तु फिर भी संतो को बड़े आदर सत्कार के साथ आसन दिया। संतो को बिठाकर भक्त अंदर गया और अपनी पत्नी से सलाह करने लगा कि संतो की भोजन की व्यवस्था कैसे हो। पत्नी बोली -आप चिंता क्यों करते हो ? दुकानवाले सेठ आपके व्यवहारी हैं। आप उनसे आटा -दाल उधार ले  आइये , जिससे संतो की सेवा हो जाएगी। भक्त हिम्मतदास सेठ के पास आटा -दाल  उधार  लेने चले गए।
        सेठ को अपनी व्यथा सुनाई , परन्तु सेठ ने उधार देने से मना कर दिया और पहले वाली उधारी चुकाने के लिए बोला। निराश होकर भक्त घर आ गया , और पत्नी को सब बात बताई। भक्त की पत्नी कमरे में गई और बक्से में खोजने लगी कि कुछ मिल जाए तभी उन्हें अपने मायके की नथ  दिखी उन्होंने उस नथ को अपने पति को दिया और भोजन की सामग्री लाने को कहा।
भक्त ने वह नथ  गिरवी रख कर समान ला दिया। भक्त ने अपनी पत्नी से कहा तुम आँगन लीप देना इतने मैं संतो को स्नान करवा कर लाता हूँ। उनकी पत्नी आँगन लीपने लगी। उधर ठाकुरजी को अपने भक्त की दशा देखकर दुःख हुआ और वह संत हिम्मतदास का रूप बना कर सेठ के पास पहुंचे और अपने भक्त की उधारी चुकाई और नथ  लेकर  अपने भक्त के घर आये। संत हिम्मतदास की पत्नी को नाथ देने लगे , संत की पत्नी ने कहा कि मेरे हाथो में मिटटी लगी हैं अत :तुम ही पहना दो ठाकुरजी ने अपने हाथों से पहना दी और बोले तुम भोजन तैयार करो ,मैं संतो को लेकर आता हूँ और रस्ते में ही अंतर्धान हो गए। उधर संत हिम्मतदास संतो को लेकर आया , पत्नी को नथ पहने देख हैरान हो गया और बोला यह नथ तो मैं सेठ को गिरवी रख कर आया था  तुम्हारे पास कहाँ से आ गई। उनकी पत्नी ने कहा की अभी आपने ही तो पहनाई हैं और आटा , दाल , चावल की बोरियां रखकर गए थे। संत हिम्मतदास हैरान हो गया। संतो को भोजन करवा कर अंत में सेठ के पास गया और सेठ से नथ के बारे में पूछा तो सेठ ने कहाँ कि तुम ही तो आये थे। भक्त हिम्मतदास समझ गया कि आज फिरसे नरसी का भात भरने वाला फिर से हिम्मतदास बन गया। धन्य हो प्रभु आपसे अपने भक्तो की कठनाई नहीं देखी  जाती। अब तो भक्त हिम्मतदास और उनकी पत्नी संतो की सेवा करते हुए प्रभु भक्ति में लीन रहने लगे और अंत में प्रभु की कृपा से सदगति को प्राप्त हुए। 

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