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बुधवार, 1 अगस्त 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 4



अध्याय : 4 

श्लोक : 1

जय श्री राधे अभी तक श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में तीसरे अध्याय तक जो भावार्थ था वह थोड़ा समझने में कठिन लग रहा था, इसलिए अब मैं स्वामी रामसुखदास जी के श्रीमुख से कहीं गई श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी को आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं आशा करती हूं इसे समझने में आपको सुविधा रहेगी जय श्री राधे



श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
        विवस्वान्मनवे प्राह         मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्यसे कहा था। (फिर) सूर्यने (अपने पुत्र) (वैवस्वत) मनुसे कहा (और) मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।
'इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्—भगवान्ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओंका उल्लेख किया है, वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रममें रहते हुए ही कर्मयोगके द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अत: यहाँके 'इमम्अव्ययम्योगम् पदोंका तात्पर्य पूर्वप्रकरणके अनुसार तथा राजपरम्पराके अनुसार 'कर्मयोग’ लेना ही उचित प्रतीत होता है।
 यद्यपि पुराणोंमें और उपनिषदोंमें भी कर्मयोगका वर्णन आता है, तथापि वह गीतामें वर्णित कर्मयोगके समान सांगोपांग और विस्तृत नहीं है। गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका सरल और सांगोपांग विवेचन किया है। कर्मयोगका इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदोंमें देखनेमें नहीं आता।
 भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान्के साथ जीवका सम्बन्ध भी नित्य है। अत: भगवत्प्राप्तिके सब मार्ग (योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग आदि) भी नित्य हैं। यहाँ 'अव्ययम्’ पदसे भगवान् कर्मयोगकी नित्यताका प्रतिपादन करते हैं।
 परमात्माके साथ जीवका स्वत:सिद्ध सम्बन्ध (नित्य- योग) है। जैसे पतिव्रता स्त्रीको पतिकी होनेके लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पतिकी तो है ही, ऐसे ही साधकको परमात्माका होनेके लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्माका है ही; परन्तु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदिके साथ जब वह अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे 'नित्ययोग’ अर्थात् परमात्माके साथ अपने नित्यसम्बन्धका अनुभव नहीं होता। अत: उस अनित्यके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटानेके लिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओंको संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूलका छोटा-से-छोटा कण भी विशाल पृथ्वीका ही एक अंश है, ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्डका ही एक अंश है। ऐसा माननेसे 'कर्म’ तो संसारके लिये होंगे, पर 'योग’ (नित्ययोग) अपने लिये होगा अर्थात् नित्य-योगका अनुभव हो जायगा।

श्रीमद भगवत गीता में कर्म योग का शेष भाग

             श्रीमद्भागवत गीता में कर्म योग की व्याख्या


यहां भी निश्चित ’ कहा और दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी ‘निश्चितम्’ कहा है। भाव यह है कि मेरे लिये कल्याणकारक अचूक रामबाण उपाय होना चाहिये। वहाँ अर्जुनने प्रश्न करते हुए कहा— ‘ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन’ (३। १); यहाँ ‘ज्यायसी’ पद है। इस ज्यायसीका भगवान्ने ‘कर्मज्यायो ह्यकर्मण:’ (३। ८)में

‘ज्याय:’ कहकर उत्तर दिया कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। यहाँ भगवान्ने भीख माँगनेकी बात काट दी। तो फिर कर्म कौन-सा करे ? इसपर बतलाया कि जो स्वधर्म है, वही कर्तव्य है; उसीका आचरण करो। अर्जुनके लिये स्वधर्म क्या है ? युद्ध करना। १८वें अध्यायके ४३वें श्लोकमें भगवान्ने क्षत्रियके जो स्वाभाविक कर्म बतलाये हैं, क्षत्रिय होनेके नाते अर्जुनके लिये वे ही कर्तव्यकर्म हैं। वहाँ भी भगवान्ने ‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’—(१८। ४७) कहा है। स्वधर्मका नाम स्वकर्म है। यहाँ स्वकर्म है—युद्ध करना। ‘स्वधर्म:’ के साथ ‘विगुण:’ विशेषण क्यों दिया ? अर्जुनने तीसरे अध्यायके पहले श्लोकमें युद्धरूपी कर्मको ‘घोर कर्म’ बतलाया है। इसीलिये भगवान्ने उसके उत्तरमें उसे ‘विगुण:’ बतलाकर यह व्यक्त किया कि स्वधर्म विगुण होनेपर भी कर्तव्यकर्म होनेसे श्रेष्ठ है। अत: अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है; तथा दूसरे अध्यायके बत्तीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने बतलाया कि धर्मयुद्धसे बढक़र क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक श्रेष्ठ साधन है ही नहीं।परधर्मात् स्वनुष्ठितात्’
मतलब यह है कि परधर्ममें गुणोंका बाहुल्य भी हो और उसका आचरण भी अच्छी तरहसे किया जाता हो तथा अपने धर्ममें गुणोंकी कमी हो और उसका आचरण भी ठीक तरहसे नहीं बन पाता हो, तब भी परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ —अति श्रेष्ठ है। जैसे पतिव्रता स्त्रीके लिये अपना पति सेव्य है, चाहे वह विगुण ही हो। श्रीरामचरितमानसमें कहे हुए—
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥
—ये आठों अवगुण अपने पतिमें विद्यमान हों और उसकी सेवा भी साङ्गोपाङ्ग नहीं होती हो, तथा पर-पति गुणवान् भी हो और उसकी सेवा भी अच्छी तरह की जा सकती हो, तो भी पत्नीके लिये अपने पतिकी सेवा ही श्रेष्ठ है, वही सेवनीय है; पर-पति कदापि सेवनीय नहीं। उसी प्रकार स्वधर्म ही ‘श्रेयान्’ (श्रेष्ठ) है, परधर्म कदापि नहीं।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥
—इससे भगवान्ने यह भाव बतलाया है कि कष्टोंकी सीमा मृत्यु है और स्वधर्म-पालनमें यदि मृत्यु भी होती हो तो वह भी परिणाममें कल्याणकारक है। तात्पर्य यह कि परधर्ममें प्रतीत होनेवाले गुण, उसके अनुष्ठानकी सुगमता और उससे मिलनेवाले सुखकी कोई कीमत नहीं है; क्योंकि वह परिणाममें महान् भयावह है। बल्कि अपने धर्ममें गुणोंकी कमी, अनुष्ठानकी दुष्करता और उसमें होनेवाले कष्ट भी महान् मूल्यवान् हैं; क्योंकि वह परिणाममें कल्याणकारक है। फिर जिस स्वधर्ममें गुणोंकी कमी भी न हो, अनुष्ठान भी अच्छी प्रकार किया जा सकता हो तथा उसमें सुख भी होता हो, वह सर्वथा श्रेष्ठ है—इसमें तो कहना ही क्या है।उपर्युक्त श्लोककी व्याख्याके अनुसार मनुष्योंको कर्तव्य- कर्मोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करनेमें लग जाना चाहिये।

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कर्म योग का जीवन में महत्व

                                    कर्मयोग


समतापूर्वक कर्तव्यकर्मोंका आचरण करना ही कर्मयोग कहलाता है। कर्मयोगमें खास निष्कामभावकी मुख्यता है। निष्कामभाव न रहनेपर कर्म केवल ‘कर्म’ होते हैं; कर्मयोग नहीं होता। शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म करनेपर भी यदि निष्कामभाव नहीं है तो उन्हें कर्म ही कहा जाता है, ऐसी क्रियाओंसे मुक्ति सम्भव नहीं; क्योंकि मुक्तिमें भावकी ही प्रधानता है। निष्कामभाव सिद्ध होनेमें राग-द्वेष ही बाधक हैं— ‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३। ३४); वे इसके मार्गमें लुटेरे हैं। अत: राग-द्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये। तो फिर क्या करना चाहिये ?—

श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥

(गीता ३। ३५)

—इस श्लोकमें बहुत विलक्षण बातें बतायी गयी हैं। इस एक श्लोकमें चार चरण हैं। भगवान्ने इस श्लोककी रचना कैसी सुन्दर की है ! थोड़े-से शब्दोंमें कितने गम्भीर भाव भर दिये हैं। कर्मोंके विषयमें कहा है—

‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुण:’

यहाँ ‘श्रेयान्’ क्यों कहा ? इसलिये कि अर्जुनने दूसरे अध्यायमें गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भीख माँगना ‘श्रेय’ कहा था— ‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (२। ५); कतु

‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२। ७) में अपने लिये निश्चित ‘श्रेय’ भी पूछा और तीसरे अध्यायमें भी पुन: निश्चित ‘श्रेय’ ही पूछा— ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’शेष कल:

एक संत की अमृत वाणी

                         एक संत की अमृत वाणी(आत्म - दर्शन )
संत श्री रामसुखदास जी ने कल्याण मैगजीन में अपने श्री मुख से आत्मदर्शन के ऊपर प्रवचन दिए-

उस परमात्मा का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करना है जिसने हमें यह बहुमूल्य मानव शरीर दिया है। वरना पशु-पक्षी की योनि मिलने पर किसी अन्य के सहारे को स्वीकारना पड़ता। इस शुभ अवसर को पाकर कितना अच्छा होगा कि हम अपनी   पहचान कर लें। वैसे तो दुनिया में मनुष्य के लिए जानने और मानने में कोई कमी नहीं है। बहुत विस्तार से वह ना जाने कितनी खोजकर्ता जा रहा है किसी ने हवाई जहाज उड़ा दिया तो किसी ने रेडियो-टीवी, कंप्यूटर जैसी आश्चर्यजनक चीजें जुटा डाली हैं फिर भी उसकी समझ का अंत नहीं आया, उसे स्वर को तो जाना समझा ही नहीं कि आखिर मेरा लक्ष्य क्या है? मनुष्य को सबसे बड़ा डर है वह मौत का! जो जन्म के बाद क्रमशः हर पल प्रत्येक सांस पर हो रही है चाहे ब्रह्माजी ही क्यों ना हो। अतः इस बहते हुए जीवन से कुछ ऐसा प्राप्त कर लें, जिसका कभी विनाश ना हो। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को बहुत हल्का बनाए रखना चाहता है। फिर भी वह जीवन पर्यंत ना जाने कितने अलौकिक कूड़े कचरे को समेटता रहता है बिना किसी समझकर, व्यर्थ में बोझ के  भार से मर रहा है, सभी रो रहे हैं पर इसका कचरे के भार को कोई भी फेकने को तैयार नहीं है जब जीवन की सारी शक्ति उसी शक्तिमान के आश्रित है तो फिर किसी और का सहारा क्यों लेना। चाहे जितने जन्म भी जाए एक दिन शक्तिमान के आश्रित होना ही होगा तभी अपना काम पूरा होगा। सारा सौंदर्य हमारे अंदर ही समाया हुआ है कहीं बाहर की वस्तु - पुस्तक में नहीं, उस सुंदरता का ना तो वाणी द्वारा ही बखान हो सकता है , और ना लिखने के द्वारा लेखन। प्रकृति की बाहरी छटा निहार निहार कर अनंयंत्र  मन पहुंच जाएगा, परंतु जहां सौंदर्य का सौंदर्य स्वता ही विराजमान है उसके बाद तो देखना सुनना सब खत्म हो जाता है। जो जितने दिनों के लिए आया है वह उतनी ही क्षण टिकेगा इसका एक पल भी ज्यादा नहीं, हीं फिर चाहे कोई सारी दुनिया का धन वैभव सब एक दाव पर लगा दे, पर एक पल भी यहां रुका नहीं जा सकता। यहां अधिक रुके रहने की जरूरत भी नहीं है, जरूरत तो है जल्द से जल्द अपना काम निपटा लें। 

मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए

                       मन में अच्छे विचार कैसे लाने चाहिए


मन तो चंचल है यह बात सभी जानते हैं , परंतु हमें चाहिए कि हम सदैव अपने मन में केवल सकारात्मक विचार ही लाएं। सकारात्मक सोच जब आपकी रहेगी तो मन प्रसन्न रहेगा और जब मन प्रसन्न रहेगा तो सेहत पर इसका सीधा असर पड़ेगा और सेहत अच्छी रहेगी। इसके विपरीत अगर हम नकारात्मक विचारों को ही सोचते रहेंगे, तो बेचारा दुखी मन सेहत पर भी प्रभाव डालेगा और सेहत खराब होने लगेगी। अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो जाएंगे और उसका सीधा असर यह होगा कि आपको अपनी जिंदगी रोचक नहीं लगेगी, भार लगने लगेगी, साथ ही साथ अधिक बीमारियां के घेरे में आप कैद हो जायेंगे। डॉक्टर, दवाई का साथ मजबूत हो जाएगा और अंत में जीवन जीने की ललक नहीं रहेगी। अतः आप कम से कम अपने स्वंय के स्वार्थ के लिए ही केवल प्रतिफल सकारात्मक सोच को अपने पवित्र मन में स्थान दें। इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है कि आपके विचारों का प्रभाव आपके मन पर पड़ता है। इस मानव जीवन को अच्छा व्यतीत करने के लिए प्रतिफल केवल अच्छे-अच्छे विचार मन में सोचे, अच्छे विचार सोचने में आपकी जीवन शक्ति बढ़ेगी और साथ में प्रतिपल स्फूर्ति आप महसूस कर सकेंगे। अगर सोचते समय कोई नकारात्मक विचार आते हैं और तुरंत उसे जाने भी दे और फिर केवल सकारात्मक विचारों की ओर ही अपना मुंह मोड़ ले। इससे आपको आपकी जिंदगी कुछ ज्यादा रोचक लगने लगेगी और आप ज्यादा गतिशील व्यक्तित्व वाले व्यक्ति बन जाएंगे। 
कल्याण पत्रिका के सौजन्य से। 

रविवार, 29 जुलाई 2018

शत्रुता खत्म करने के लिए नरसिंह स्तुति का जाप करें

                         श्री नरसिंह स्तुति
(इस मंत्र का नित्य जप करने से शत्रु का नाश होता है व दुष्ट की दुष्टता खत्म हो जाती है,)

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां ध्यायन्तु भुतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥

अथार्त्- समग्र विश्व का कल्याण हो, दुष्ट भी प्रसन्न हो जाएं (दुष्टों की दुष्टता समाप्त होकर उनमें साधुता का उदय हो, क्योंकि जब तक वह दुष्टता की आग में जलते रहेंगे तब तक प्रसन्न कैसे रह सकते हैं?) सभी प्राणी परस्पर एक दूसरे के कल्याण का चिंतन करें। हमारा मन शुभ संकल्प करने वाला हो और हे इंद्रियातीत भगवान नृसिंह! हमारी निष्काम बुद्धि निरंतर आप में ही लगी रहे।

अगर आप संस्कृत में इसका जाप नहीं कर सकते, तो आप हिंदी में अनुवाद के द्वारा भी स्तुतिं  भी कर सकते हैं। आपकी भाषा कोई भी हो ईश्वर सब समझ जाते हैं इसलिए केवल हृदय से प्रार्थना कीजिए।

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय-3 का शेष

            श्रीमद् भागवत गीता (हिंदी में अध्याय 3 का शेष)
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा- वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, , समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥
 हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है । तो भी मैं क्रम में ही बरतता हूं॥२२॥
 क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् में सावधान हो कर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥२३॥
इसलिए यदि मैं कर्म ना करूं, तो यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं सडंक्रता का करने वाला होंऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥२४॥
 हे भारत! कर्म में आसक्त से अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करें॥२५॥
 परमात्मा के स्वरुप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अथार्त कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें । किंतु स्वंय शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाएं॥२६॥
 वास्तव में संपूर्ण करम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अंहकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं करता हूं' ऐसा मानता है॥२७॥
 परंतु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग( त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पांच महाभूत और मन, बुद्धि  अहंकार तथा पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और शब्द आदि पांच विषय इन सबके समुदाय का नाम' गुण विभाग' है और इनकी परंपरा  की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है) के तत्वों को जानने वाला ज्ञान योगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझ कर उनमें आसक्त नहीं होता॥२८॥
प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करें ॥२९॥
मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्तद्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध कर ॥३०॥
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा युक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥३१॥
 परंतु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हुए मेरी इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खों को तो तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥३२॥
 सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी और प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? ॥३३॥
इंद्रिय- इंद्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपी हुई स्थित है। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु है॥३४॥
 अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म को देने वाला है॥३५॥
                          अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भांति किस से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ॥३६॥
                                श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अथार्त   भोगों से कभी ना अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ॥३७॥
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मेल से दर्पण ढका हुआ होता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है ,वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका  रहता है॥३८॥
 और यह अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वेरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है॥३९॥
 इंद्रियां, मन और बुद्धि यह सब इसके वास स्थान  कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ॥४०॥इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥४१॥
 इंद्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सुक्षम कहते हैं; इन इंद्रियों पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है॥४२॥
 इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात  सुक्ष्म, बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाला॥४३॥
ऊँ तत्सत श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद तृतीय अध्याय 

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