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सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

त्रिपुरारिसिरधामिनी (गंगा जी का यह नाम कैसे पडा़

                            त्रिपुरारिसिरधामिनी( शिव के मस्तक में निवास करने वाली)


जब महाराज भगीरथ ने ब्रह्मलोक से गंगा जी को प्राप्त कर लिया,तब यह कठिनाई सामने आई कि यदि गंगा जी की धारा वहां से सीधे भूलोक पर गिरेगी तो उससे भूलोक जलमग्न हो जाएगा। इसलिए उन्होंने भव भय हारी भगवान शंकर की स्तुति की और शंकर जी ने ब्रह्मलोक से अवतरित होती हुई गंगा की धारा को, अपनी जटा जाल में रोक लिया। इसी से श्री गंगा जी को त्रिपुरारी (शिव )के मस्तक में निवास करने वाली कहा जाता है।

जह्नु बालिका(गंगा जी)

                               जह्नु बालिका(गंगा जी)


जब महाराज भगीरथ गंगा जी को अपने रथ के पीछे पीछे भुलोक में ला रहे थे, उस समय गंगा का प्रवाह जह्नु मुनि के आश्रम से होकर निकला, मुनि ध्यानावस्थितथे, प्रवाह को आते देख उन्होंने उसे उठाकर पी लिया। पीछे महाराज भगीरथ ने उनकी स्तुति कर उनको प्रसन्न किया। तब मुनि ने जगत के हितार्थ गंगा जी को अपने जंघे से निकाल दिया। तभी से गंगा जी का नाम जह्नु सुता या जाह्नवी पड़ा।

कालकूट विष

                                 कालकूट विष




देवता और असुरों ने एक बार मेरु पर्वत की मथानी और शेषनाग का दण्ड बनाकर समुद्र का मंथन किया।उसमें सबसे पहले हलाहल विष निकला और उसने दसों दिशाओं को अपनी ज्वाला से व्याप्त कर दिया। फिर तो देवता और असुर सभी त्राहि-त्राहि करने लगे, सबों ने मिलकर विचारा कि बिना भक्तवत्सल भगवान शंकर के इस महाघातक वि‌ष से त्राण पाना कठिन है।इसलिए उन्होंने एक साथ आर्त स्वर से भगवान शंकर को पुकारा। भक्त आर्ति हर करुणामय भगवान शंकर जी प्रकट हुए और उनको भयभीत देखकर हलाहल विष को उठाकर पान कर गए। परंतु शीघ्र ही उन्हें स्मरण हुआ कि हृदय में तो ईश्वर अपनी अखिल सृष्टि के साथ विराजमान है। इसलिए उन्होंने इस विष को कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया गया और उस विघ्न के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और दोषपूर्ण वह विष भगवान का भूषण बन गया। तभी से शिव 'नीलकंठ' कहलाने लगे।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

काशी स्तुति(विनय पत्रिका)

                                 काशी स्तुति

इस कलयुग में काशी रूपी कामधेनु का प्रेम सहित जीवन भर सेवन करना चाहिए। यह शोक, संताप, पाप और रोग का नाश करने वाली तथा सब प्रकार के कल्याण की खानी है। काशी के चारों ओर की सीमा इस कामधेनु के सुंदर चरण है। स्वर्गवासी देवता इसके चरणों की सेवा करते हैं। यहां के शक्ति स्थान इसके शुभ अंग है और राष्ट्रहित अगणित शिवलिंग इसके रूप है अंतर्गत काशी का मध्य भाग इस कामधेनु का ऐन यानी के गद्दी है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों के चार थन है। वेद शास्त्रों पर विश्वास रखने वाले आस्तिक लोग इस के बछड़े हैं। विश्वासी पुरुषों को ही इस में निवास करने से मुक्ति रूपी अमृत में दूध मिलता है। सुंदर वरुणा नदी इसकी गल कंबल के समान शोभा बढ़ा रही है और असी नामक नदी पूछ के रूप में शोभित हो रही है। दंड धारी भैरव इसके सींग है, पाप में मन रखने वाले दुष्टों को उन सींगो से यह सदा डराती रहती है। लोलार्क कुंड और त्रिलोचन( एक तीर्थ) इसके नेत्र हैं और कर्ण घंटा नामक तीर्थ इसके गले का घंटा है। मणिकर्णिका  इसका चंद्रमा के समान सुंदर मुख है। गंगा जी से मिलने वाला पाप ताप नाश रूपी सुख इसकी शोभा है। भोग और मोक्ष रूपी सुखों से परिपूर्ण पंचकोशी की परिक्रमा इसकी महिमा है। दयालु ह्रदय विश्वनाथ जी इस कामधेनु का पालन पोषण करते हैं और पार्वती सरीखी स्मनेहमयी जगजननी इस पर सदा प्यार करती रहती हैं। आठों सिद्धियां सरस्वती और इंद्राणी शची उसका पूजन करती हैं ।जगत का पालन करने वाली लक्ष्मी सरीखी इसका रुख देखती रहती हैं। 'नमः शिवाय' यह पंचाक्षरी मंत्र ही इसके पांच प्राण है ।भगवान बिंदुमाधव ही आनंद है। पंच नदी पंचगंगा तीर्थ ही इसके पंचगव्य है। यह संसार को प्रकट करने वाले राम नाम के दो अक्षर र कार और मकार इस के अधिष्ठाता ब्रह्मा और जीव हैं। यहां मरने वाले जीवो का सब सुकर्म और कुकर्म रुपी  घास यह चार जाती है। जिससे उनको वही परम पद रूपी पवित्र दूध मिलता है, जिसको संसार के विरक्त महात्मा गण चाहा करते हैं। पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु ने संपूर्ण कला लगाकर अपने हाथों से इसकी रचना की है। हे तुलसीदास! यदि तू सुखी होना चाहता है तो काशी में रहकर श्री राम नाम का जप कर।।

शिव स्तुति 2(विनय पत्रिका)

                       शिव स्तुति-2

शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वे दीन दयालु है, देना ही उनके मन भाता है। मांगने वाले उन्हें सदा सुहाते हैं। वीरों में अग्रणी कामदेव को भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभु का प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है? करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनि गण जिस परम गति को भगवान हरि से मांगते हुए सकुचाते हैं, वही परम गति त्रिपुरारी शिवजी की पुरी काशी में कीट पतंगे भी पा जाते हैं। यह वेदों से प्रकट है। ऐसे परम उदार भगवान पार्वती पति को छोड़कर जो लोग दूसरी जगह मांगते मांगने जाते हैं, उन मूर्ख मांगने वालों का पेट भलीभांति कभी नहीं भरता।।

शिव स्तुति-1(विनय पत्रिका)

                            शिव स्तुति-1


भगवान शिव जी को छोड़कर और किससे याचना की जाय? आप दीनों पर दया करने वाले, भक्तों के कष्ट हरने वाले और सब प्रकार से समर्थ ईश्वर है। समुंद्र मंथन के समय जब कालकूट विष की ज्वाला से सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनों पर दया करने के प्रण की रक्षा के लिए तुरंत उसको पी गए। जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगत को बहुत दुख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाण से मार डाला। जिस परम गति को संत महात्मा, वेद और पुराण महान मुनियों के लिए भी दुर्लभ बताते हैं। हे सदाशिव! वही परम गति काशी में मरने पर आप सभी को समान भाव से देते हैं। हे पार्वती पति! हे परम सुजान! सेवा करने पर आप सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं। आप कल्पवृक्ष के समान मुंह मांगा फल देने वाले उदार हैं। आप कामदेव के शत्रु हैं। अतः हे कृपा निधान! तुलसीदास को श्री राम के चरणों की प्रीति दीजिये।।

सूर्य स्तुति( विनय पत्रिका)

 


हे दीनदयालु भगवान सूर्य! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं। आप पाले और अंधकार रूपी हाथियों को मारने वाले वनराज सिंह है। किरणों की माला पहने रहते हैं। दोष, दुख, दुराचार और रोगों को भस्म कर डालते हैं। रात के बिछड़े हुए चकवा चकवीयों को मिलाकर प्रसन्न करने वाले, कमल को खिलाने वाले तथा समस्त लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं। तेज,प्रताप, रूप और रस कि आप खानि है। आप दिव्य रथ पर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लूला है। हे स्वामी! आप विष्णु, शिव और ब्रह्मा के ही रूप है। वेद पुराणों में आपकी कीर्ति जगमगा रही है। तुलसीदास आपसे श्री राम भक्ति का वर मांगता है।

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