यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                              अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले-हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर यह केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥१॥
आप मिले हुए - से वचनों से मेरी बुद्धि को मानव मोहित कर रहे हैं।इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण प्राप्त हो जाऊं ॥२॥
                             श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है उनमें से शाम के योगियों की निष्ठा * साधन के परिपक्व अवस्था अथार्थ पराकाष्ठा का नाम निष्ठा है) ज्ञानयोग से*( माया से उत्पन्न हुए संपूर्ण गुणों के गुण में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी  परमात्मा में एक ही भाव से स्थित रहने का नाम ज्ञान योग है। इसी को सन्यास, सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) योगियों की निष्ठा कर्मयोग से( फल और आसक्ति को त्यागकर भगवत आज्ञा अनुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धिसे कर्म करने का नाम निष्काम कर्म योग है। इसी को बुद्धि योग, कर्म योग  मत कर्रम आदि नामो से कहा गया है ।)) होती है ॥३॥
मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योग निष्ठा को प्राप्त होता है। और ना कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्नियनिष्ठा को प्राप्त होता है॥४॥
निसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बि
ना कर्म किए नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा प्रवेश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ॥५॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से मन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी अथार्त दम्भी भी कहा जाता है॥६॥
 किन्तु हे अर्जुन !जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनास्क्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मों का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है॥७॥
 तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर ;क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥८॥
 यज्ञ के निर्मित्त किए हुए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंथता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर ॥९॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रच कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृर्द्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित भोग प्रदान करने वाला हों॥१०॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों का उन्नत करें  इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥११॥
यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छितभोग तो निश्चय ही देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है वह चोर ही है॥१२॥
 यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो  पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्ना पकाते हैं, वह तो पाप को ही खाते हैं ॥१३॥संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होने वाले हैं। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥१४-१५॥
 हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अथार्त अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायू पुरुष व्यर्थ ही जीता है ॥१६॥
परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ॥१७॥
उस महापुरुष को इस विश्व में ना तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और ना कर्मों के ना करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचित मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता ॥१८॥
इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है॥१९॥
 जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित करम द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥
शेष कल:
जय श्री राधे

सोमवार, 23 जुलाई 2018

क्रोध करने से अपने आप को कैसे रोकें

                             क्रोध करने से बचे
                                    अक्रोध

प्रभु कृपा से बुद्धि शुद्ध सात्विक रहे। परस्पर प्रेम बनाए रहें। किसी से कोई भूल हो तो उसे क्षमा करें। हम जानते हैं कि यह थोड़ा मुश्किल है, पर असम्भव नहीं, जिस पर भी क्रोध आ रहा है, उसके पास से कुछ समय के लिए दूर हो जाए, एक लम्बी  गहरी साँस ले, फिर अपने आप को समझा दे, क्रोध ना करें। जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है, उसकी हानि नहीं होती है । जो क्रोध करता है उसी का रक्त जलता है। क्रोध करने से बुद्धि का नाश होता है ।विकास की गति मंद हो जाती है। क्रोध से हिंसा के और बदला लेने के भावों का उदय होता है। भाव से कर्म बनता है,कर्म को भोगने के लिए और फिर जन्म । बार-बार जन्म मरण होता है। जन्म लेना है, सत्संग भजन के लिए , बदला चुकाने के लिए नहीं। इसलिए शांत रहे। जब आप भजन कीर्तन में रम जाएंगे तो धीरे - धीरे मन शांत होने लगेगा, बस कोशिश करो कि हमेशा मन में प्रभु का स्मरण चलता रहें। जय श्री राधे

प्रभु की कृपा कैसे बरसती है ,और कब बरसती हैं

                  प्रभु की कृपा सभी पर हमेशा बरसती रहती है


  दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव - मनुष्य सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ में सब की कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें। भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया और सद्बुद्धि प्राप्त की। सद्बुद्धि बनी रहे इसी बात की तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है। अपने वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता, प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है
( दादा गुरु महाराज जी मलूक पीठ वृंदावन के मुख से

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता हिंदी में(अध्याय 2 का शेष)

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2


या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥

जय -पराजय, लाभ लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा ;इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥३८॥

 हे पार्थ !यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अथाार्त सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥ ३९॥

 इस कर्मयोग में आरंभ का अथार्त बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल स्वरुप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥४०॥

 हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है ;किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्य की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है॥४१॥

 हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय में हो रहे हैं, जो कर्फमल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वह अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अथार्त दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली तथा भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है,उस वाणी द्वारा जिन का चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्कामिका बुध्दि नहीं होती॥४२॥

 हे अर्जुन! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष शोक आदि द्वन्दों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योग - क्षेमको न चाहने वाला और स्वाधीन अंतकरण वाला हो॥४५॥
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है ॥४६॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति ना हो ॥४७॥

हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है॥४८॥

 इस समत्व रूप बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू सम बुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ आथार्त बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ;क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है॥४९॥

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अथार्त उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अथार्त कर्म बंधन से छूटने का उपाय है ॥५०॥
क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर, जन्म रूप बंधन से मुक्त हो, निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भागों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ॥५२॥

भांति- भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर  ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अथार्त तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ॥५३॥
                                अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
                               श्रीभगवानुवाच
 श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,ष सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है॥५६॥
 जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त हो कर ना प्रसन्न होता है ,और ना द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥५७॥

और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही जब वह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥५८॥
इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिति प्रज्ञ पुरुष की तो आस्क्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है॥५९॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश ना होने के कारण यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।॥६०॥
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥६१॥
 विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उस विषयों में आ सक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अथार्त ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥६३॥
 परंतु अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विश्व में विचरण करता हुआ अंतकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥६४॥ अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है॥६५॥
 न जीते हुए मन और इंद्रियां वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंत:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है॥६६॥
 क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है ,वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥६७॥
 इसलिए हे महाबाहों! जिस पुरुष की इंद्रियां, इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥६८॥संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान हैं ,उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्वों को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान हैं ॥६९॥
जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में उसको विचलित ना करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब लोग जिस स्थिति प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥७०॥
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित ,अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता  है, वही शांति को प्राप्त होता है, अथार्त वह शांति को प्राप्त है॥७१॥
 हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है॥७२॥
 ओम तत्सत श्रीमद् भागवत गीता  श्री कृष्ण अर्जुन संवाद द्वितीय अध्याय पूर्ण

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2

                           ॐ परमातम्ने नम:



कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य को जीवन में एक बार गीताजी का पाठ जरूर करना चाहिए और अगर वह सरल भाषा में उपलब्ध हो तो उसका लाभ जरूर उठाना चाहिए
                      अथ द्वितीय अध्याय
                        संजय उवाच
संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोक युक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१॥
                  श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि ना तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, ना स्वर्ग को देने वाला है, और ना कीर्तन को करने वाला है ॥२॥
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो ,तुझ में यह उचित नहीं जान पड़ती ।हे परंतु! हृदय की दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥३॥
                       अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हेअरिसूदन!वे दोनों ही पूजनीय हैं ॥४॥
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को ना मार कर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूं; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥५॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और ना करना - इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वह जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वह ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥६॥
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए ;क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिए आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिए॥७॥
 क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामी बने को प्राप्त हो कर भी मैं इस उपाय को नहीं देखता हूं ,जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शौक को दूर कर सकें॥८॥
                                   संजय उवाच
संजय बोले - हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान से' युद्ध नहीं करूंगा' यह स्पष्ट कह कर चुप हो गए॥९॥
 हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हंसते हुए- से यह वचन बोले ॥१०॥
                         श्री भगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचन को कहता है ;परंतु जिन के प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिन के प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते॥११॥
 न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और ना ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥१२॥
जैसे जीवात्मा को इस देह में बालकपन ,जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ॥१३॥
हे कुंतीपुत्र! सर्दी ,गर्मी और सुख -दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति विनाशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ॥१४॥
क्योंकि हे पूरूश्रेष्ठ! दुख- सुख को समान समझने वाले जिस स्त्री - पुरुष को यह इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते वह मोक्ष के योग्य होता है॥१५॥
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव नहीं है इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥१६॥
 नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत - दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥१७॥
इस नाश रहित, अप्रमेय, नित्य स्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥१८॥
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते ;क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है ॥१९॥
यह आत्मा किसी काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
 हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष आत्मा को नाश रहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किस को मारता है? ॥२१॥
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुरानी शरीरों को त्याग कर दूसरे नहीं शरीरों को प्राप्त होता है॥२२॥
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती॥२३॥
 क्योंकि यह आत्मा अच्छेध है ,यह आत्मा अदाह्य, अक्लेध निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है ॥२४॥
यह आत्मा अव्यक्त है यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे है अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तुम शौक करने को योग्य नहीं होअथार्त तुझे शौक करना उचित नही हैं॥२५॥
 किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ॥२६॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस से भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है॥२७॥
 हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ।केवल बीच में ही प्रकट हैं फिर ऐसी स्थिति में क्यों शोक करना है ?॥२८॥
कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष है इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता॥२९॥
 हे अर्जुन !यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य
( जिसका वध नहीं किया जा सके) है इस कारण संपूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है ॥३०॥
तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथार्त तूझे भय नहीं करना चाहिए ;क्योंकि क्षत्रियों के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई भी कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥३१॥
 हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं ॥३२॥
किंतु यदि तू इस धर्म युद्ध  को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पापको प्राप्त होगा ॥३३॥
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥३४॥
और जिन की दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ॥३५॥
तेरे वेरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से ना कहने योग्य वचन भी कहेंगे उससे अधिक दु:ख और क्या होगा?॥३६॥
शेष कल-

बुधवार, 18 जुलाई 2018

श्रीमद भगवत गीता हिंदी में अध्याय 1 का शेष( पार्ट 2)

                           श्रीमद्भागवत गीता(प्रथम अध्याय)

अर्जुन ने कहा- हे राजन! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बांधकर डटे हुए धृतराष्ट्र संबंधियों को देखकर,उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठा कर हृषीकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा - हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।। 20-21।।
 और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक उसे खड़ा रखिए ।।22।।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।। 23।।
संजय ने कहा
 संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्री कृष्ण चंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार का कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कोंरवों देख।। 24-25।।
 इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ- चाचा को, दादा- परदादा को, गुरु को  मामा को, भाइयों को, पुत्रों को, पोत्रों को तथा मित्रों को, ससुर  को भी देखा।। 26-27
उन उपस्थित संपूर्ण बंधुओं को देखकर वह कुंती पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।। 27
अर्जुन बोले- हे कृष्ण !युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुंह सुखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंपन एवं रोमांच हो रहा है।। 28-29
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।।30
हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।। 31।।
 हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं ना राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे लोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?।।32।।
 हमें जिनके लिए राज्य, भोग  सुखआदि अभीष्ट हैं, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।  33।।
गुरुजन, ताऊ, चाचा, लड़के और उसी प्रकार दादा, मामा,  ससुर, पुत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं।। 34।।
 हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता.; फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?।।35।।
 यह जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ?इन आतताइयों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।।36।।
अतएव हे माधव !अपने ही बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।। 37।।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए यह लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोस्तों और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?।। 38-39
 कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40।।
 हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय!  स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।। 41।।
वर्णसं‍कर कुलघाटियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही होता है।लुप्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले अथार्थ श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।। 42।।
इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घाटियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।।43।।
यह जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्य का अनिश्चित काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हम सुनते आए हैं ।। 44।।
हां !शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं।। 45।।
यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना ना करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।। 46।।
संजय बोले -रणभूमि में शोक से उदास मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए।। 47।।
ॐ तत्सत श्री कृष्ण अर्जुन संवाद का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण 
( यह श्रीमद्भागवत गीता श्लोक अर्थ सहित महातम्य हिंदी अनुवाद मैं गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा रचित में से पढ़कर आप सबके समक्ष लिख रही हूं) जय श्री राधे

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता (हिन्दी में) अध्याय 1

                         श्री गीता जी की महिमा


वास्तव में श्रीमद्भागवत गीता का महात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने के लिए किसी की भी सामर्थ्य नहीं है क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है। इस में संपूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुंदर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है, परंतु उसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता है प्रतिदिन नए-नए भाव उत्पन्न होते रहते हैं। भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता रूप एक ऐसा अनूपमेय शास्त्र कहा है जिसमें एक भी शब्द  सदुपदेश से खाली नहीं है। श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि गीता सुगीता करने योग्य है। अतः श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं भगवान विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है
                      प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र कह रहे हैं - हे संजय धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?।।1

संजय ने कहा - उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।  2
 हे आचार्य आपकी बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।। 3
इस सेना में बड़े-बड़े धनुष वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सत्यकि और विराट तथा महा रथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशी राज पुरूजित, कुंतिभोज और मनुष्य में श्रेष्ठ शेब्‍य, पराक्रमी युद्धा मन्यु तथा बलवान उत्तमोजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु एवं द्रोपदी के पांचों पुत्र, यह सभी महारथी हैं।। 4-6।।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान है, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उन को बतलाता हूँ।। 7।।
आप - द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजय कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा विकर्ण और सोम दत्त का पुत्र भूरिश्रवा।। 8।।
और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाला बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब के सब युद्ध में चतुर है।।9।।
भीष्म पितामह द्वारा रचित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजय है और भीम द्वारा रचित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।। 10।।
 इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।। 11।।
कोरवा में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया।।12।।
इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नर्सिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।
इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।। 14।.
श्री कृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक ,अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पोणडर्म नामक महा शंख बजाया। ।15।।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंत विजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाय।। 16।।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रोपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सभी ने, हे राजन् ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाय।। 17-18।।
और उन भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धृतराष्ट्रअर्थात आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिए। ।19।।
 शेष कल:

Featured Post

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

                    गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र   भावार्थ के साथ गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक ...