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रविवार, 29 जुलाई 2018

शत्रुता खत्म करने के लिए नरसिंह स्तुति का जाप करें

                         श्री नरसिंह स्तुति
(इस मंत्र का नित्य जप करने से शत्रु का नाश होता है व दुष्ट की दुष्टता खत्म हो जाती है,)

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां ध्यायन्तु भुतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी॥

अथार्त्- समग्र विश्व का कल्याण हो, दुष्ट भी प्रसन्न हो जाएं (दुष्टों की दुष्टता समाप्त होकर उनमें साधुता का उदय हो, क्योंकि जब तक वह दुष्टता की आग में जलते रहेंगे तब तक प्रसन्न कैसे रह सकते हैं?) सभी प्राणी परस्पर एक दूसरे के कल्याण का चिंतन करें। हमारा मन शुभ संकल्प करने वाला हो और हे इंद्रियातीत भगवान नृसिंह! हमारी निष्काम बुद्धि निरंतर आप में ही लगी रहे।

अगर आप संस्कृत में इसका जाप नहीं कर सकते, तो आप हिंदी में अनुवाद के द्वारा भी स्तुतिं  भी कर सकते हैं। आपकी भाषा कोई भी हो ईश्वर सब समझ जाते हैं इसलिए केवल हृदय से प्रार्थना कीजिए।

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय-3 का शेष

            श्रीमद् भागवत गीता (हिंदी में अध्याय 3 का शेष)
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा- वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, , समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥
 हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में ना तो कुछ कर्तव्य है और ना कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है । तो भी मैं क्रम में ही बरतता हूं॥२२॥
 क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् में सावधान हो कर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥२३॥
इसलिए यदि मैं कर्म ना करूं, तो यह सब मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएं और मैं सडंक्रता का करने वाला होंऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥२४॥
 हे भारत! कर्म में आसक्त से अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करें॥२५॥
 परमात्मा के स्वरुप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अथार्त कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न ना करें । किंतु स्वंय शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाएं॥२६॥
 वास्तव में संपूर्ण करम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अंहकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं करता हूं' ऐसा मानता है॥२७॥
 परंतु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग( त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पांच महाभूत और मन, बुद्धि  अहंकार तथा पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और शब्द आदि पांच विषय इन सबके समुदाय का नाम' गुण विभाग' है और इनकी परंपरा  की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है) के तत्वों को जानने वाला ज्ञान योगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझ कर उनमें आसक्त नहीं होता॥२८॥
प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करें ॥२९॥
मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्तद्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध कर ॥३०॥
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा युक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥३१॥
 परंतु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हुए मेरी इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं उन मूर्खों को तो तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ॥३२॥
 सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी और प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? ॥३३॥
इंद्रिय- इंद्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपी हुई स्थित है। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु है॥३४॥
 अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म को देने वाला है॥३५॥
                          अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भांति किस से प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ॥३६॥
                                श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अथार्त   भोगों से कभी ना अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ॥३७॥
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मेल से दर्पण ढका हुआ होता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है ,वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका  रहता है॥३८॥
 और यह अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वेरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है॥३९॥
 इंद्रियां, मन और बुद्धि यह सब इसके वास स्थान  कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ॥४०॥इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥४१॥
 इंद्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सुक्षम कहते हैं; इन इंद्रियों पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है॥४२॥
 इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात  सुक्ष्म, बलवान और अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाला॥४३॥
ऊँ तत्सत श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद तृतीय अध्याय 

बुधवार, 25 जुलाई 2018

सूर्य देव की उपासना -आदित्य हृदय स्त्रोत हिंदी में

                     सूर्य देव की उपासना -आदित्य हृदय स्त्रोत हिंदी में

                                  ॥श्री हरि॥


२१जून को सूर्य गृहण है इस दिन इसका पाठ करना चाहिए।इसके बाद ॐ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात"का जाप करना चाहिए।
'उधर श्री रामचंद्र जी युद्ध से थक कर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आए थे श्री राम के पास जाकर बोले' ॥१-२॥
'सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्त्रोत सुनो। वत्स इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे। इस गोपनीय स्त्रोत का नाम है 'आदित्यहृदय'। यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्त्रोत है। संपूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है'॥३-५॥
' भगवान सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित (रश्मिमान् )है। यह नित्य उदय होने वाले (समुधन) देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका [रश्मिमते नमः, समुधते नम:,देवासुर नमस्कृताय
नमः, वैवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन मंत्रों के द्वारा] पूजन करो। 'संपूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। यह तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। यह ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित संपूर्ण लोकों का पालन करते हैं। यही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कंध, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनी कुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण  ऋतुओको प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज है। इन्हीं के नाम आदित्य (अदिति पुत्र) सविता, (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरण वाले)  पूषा( पोषण करने वाले ), गभस्तिमान (प्रकाशमान)  सुव्रणसदृश, भानु, (प्रकाशक) हिरण्यरेता, (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीच), दिवाकर( रात्रि का अंधकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले) हरिदश्व( दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्त्राची (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति(सात घोड़े वाले), मरीचमान्( किरणों से सुशोभित), तिम्रोमंथन (अंधकार का नाश करने वाले), शंभू (कल्याण के उद्गम स्थान)  त्वष्टा( भक्तों का दुख दूर करने वाले अथवा जगत का सहार करने वाले), मार्तण्डक (ब्रह्मांड को जीवन प्रदान करने वाले)  अंशुमान (किरण धारण करने वाले)  हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करनेवाले), अहस्कर (दिनकर), रवि (सब की स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले)  अदिति पुत्र, शंख (आनंदस्वरूप एंव व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी  (अंधकार को दूर करने वाले), ऋग, यजु, और सामवेद के पार गामी, घनवृष्टी( घनी वृष्टि के कारण) , अपां मित्र( जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथी प्लवंगम( आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी( घाम उत्पन्न करने वाले), मंडली (किरण समूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल( भूरे रंग वाले)  सर्वतापन( सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्व सरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंग), वाले सर्वभवोद्भव (सब की उत्पत्ति के कारण) नक्षत्र, ग्रह, और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले)  तेजस्वी में भी अति तेजस्वी तथा  द्वादशात्मा(बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं। इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्य देव! आपको नमस्कार है। '॥६-१५
' पूर्णागिरि- उदयाचल तथा पश्चिमगिरी - अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणो ( ग्रहों और तारों) - के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है। आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जूते रहते हैं। आप को बारंबार नमस्कार हैं। सहस्त्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है आपको नमस्कार हैं। उग्र(अभक्तों के लिए भयंकर), वीर (शक्ति संपन्न) और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलो को विकसित करने वाले, प्रचंड तेज धारी मार्तंड को प्रणाम है। (परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्य मंडल आपका ही तेज हैं, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आप का ही स्वरुप है, आप रौद्र रूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप अज्ञान और अंधकार के नाशक, जडता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय  है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले  संपूर्ण जोतियों के स्वामी और देव स्वरूपं हैं ;आपको नमस्कार है। आपकी प्रभा तपाये हुए स्वर्ण के समान हैं, आप हरी (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं ;तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगतं के साक्षी हैं; आपको नमस्कार है`॥१६-२१
'रघुनंदन! यह भगवान सूर्य ही संपूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। यह ही अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं। यह सब भूतों में अंतर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। यह ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं। (यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता  यज्ञ और यज्ञों के फल भी यही है। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएं होती हैं, उन सब का फल देने में यही पूर्ण समर्थ है। राघव! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्य देव का कीर्तन करता है  , उसे दुख नहीं भोगना पड़ता । इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इस देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का 3 बार जप करने से कोई भी युद्ध में विजय प्राप्त कर सकता है। महाबाहो  तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त जी जैसे आए थे, उसी प्रकार चले गए ॥२२-२७॥
'उनका उपदेश सुनकर महा तेजस्वी श्री रामचंद्र जी का शौक दूर हो गया उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध चित्त से आदित्य हृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठा कर रावण की ओर देखा और उत्साह पूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न्न करके रावण के वध का निश्चय किया। उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्ष पूर्वक कहा- रघुनंदन! अब जल्दी करो '॥२८-३१॥
वाल्मीकि रामायण से प्रस्तुत
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 3

                              अर्जुन ने कहा
अर्जुन बोले-हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर यह केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥१॥
आप मिले हुए - से वचनों से मेरी बुद्धि को मानव मोहित कर रहे हैं।इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण प्राप्त हो जाऊं ॥२॥
                             श्रीभगवानुवाच
श्री भगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है उनमें से शाम के योगियों की निष्ठा * साधन के परिपक्व अवस्था अथार्थ पराकाष्ठा का नाम निष्ठा है) ज्ञानयोग से*( माया से उत्पन्न हुए संपूर्ण गुणों के गुण में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाली संपूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी  परमात्मा में एक ही भाव से स्थित रहने का नाम ज्ञान योग है। इसी को सन्यास, सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) योगियों की निष्ठा कर्मयोग से( फल और आसक्ति को त्यागकर भगवत आज्ञा अनुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धिसे कर्म करने का नाम निष्काम कर्म योग है। इसी को बुद्धि योग, कर्म योग  मत कर्रम आदि नामो से कहा गया है ।)) होती है ॥३॥
मनुष्य ना तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योग निष्ठा को प्राप्त होता है। और ना कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्नियनिष्ठा को प्राप्त होता है॥४॥
निसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बि
ना कर्म किए नहीं रहता ;क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा प्रवेश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ॥५॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से मन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी अथार्त दम्भी भी कहा जाता है॥६॥
 किन्तु हे अर्जुन !जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनास्क्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मों का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है॥७॥
 तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर ;क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर - निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥८॥
 यज्ञ के निर्मित्त किए हुए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंथता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर ॥९॥
प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रच कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृर्द्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित भोग प्रदान करने वाला हों॥१०॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों का उन्नत करें  इस प्रकार निस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥११॥
यज्ञ के द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छितभोग तो निश्चय ही देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है वह चोर ही है॥१२॥
 यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो  पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्ना पकाते हैं, वह तो पाप को ही खाते हैं ॥१३॥संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्म से उत्पन्न होने वाले हैं। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर ब्रह्म परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥१४-१५॥
 हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अथार्त अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायू पुरुष व्यर्थ ही जीता है ॥१६॥
परंतु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ॥१७॥
उस महापुरुष को इस विश्व में ना तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और ना कर्मों के ना करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचित मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता ॥१८॥
इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है॥१९॥
 जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित करम द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥
शेष कल:
जय श्री राधे

सोमवार, 23 जुलाई 2018

क्रोध करने से अपने आप को कैसे रोकें

                             क्रोध करने से बचे
                                    अक्रोध

प्रभु कृपा से बुद्धि शुद्ध सात्विक रहे। परस्पर प्रेम बनाए रहें। किसी से कोई भूल हो तो उसे क्षमा करें। हम जानते हैं कि यह थोड़ा मुश्किल है, पर असम्भव नहीं, जिस पर भी क्रोध आ रहा है, उसके पास से कुछ समय के लिए दूर हो जाए, एक लम्बी  गहरी साँस ले, फिर अपने आप को समझा दे, क्रोध ना करें। जिसके ऊपर क्रोध किया जाता है, उसकी हानि नहीं होती है । जो क्रोध करता है उसी का रक्त जलता है। क्रोध करने से बुद्धि का नाश होता है ।विकास की गति मंद हो जाती है। क्रोध से हिंसा के और बदला लेने के भावों का उदय होता है। भाव से कर्म बनता है,कर्म को भोगने के लिए और फिर जन्म । बार-बार जन्म मरण होता है। जन्म लेना है, सत्संग भजन के लिए , बदला चुकाने के लिए नहीं। इसलिए शांत रहे। जब आप भजन कीर्तन में रम जाएंगे तो धीरे - धीरे मन शांत होने लगेगा, बस कोशिश करो कि हमेशा मन में प्रभु का स्मरण चलता रहें। जय श्री राधे

प्रभु की कृपा कैसे बरसती है ,और कब बरसती हैं

                  प्रभु की कृपा सभी पर हमेशा बरसती रहती है


  दयामय प्रभु की कृपा सभी पर सदा बरसती रहती है। अन्यथा जीव - मनुष्य सुख की सांस नहीं ले सकता है। तीर्थ में सब की कामनाएं पूर्ण होती हैं। प्रभु एक ना एक कष्ट चिंता इसलिए देते हैं कि प्राणी हमारा स्मरण करें। भक्तों का जीवन चरित्र प्रेरणादायक रहता है। हर भक्त ने भगवान का चिंतन और विश्वास करके भगवान को पाया और सद्बुद्धि प्राप्त की। सद्बुद्धि बनी रहे इसी बात की तो आवश्यकता है। इससे प्राणियों के प्रति प्रेम बना रहता है। अपने वर्णाश्रम के कर्तव्य को यदि सच्चाई के साथ पालन किया जाए तो इसी से प्रभु संतुष्ट हो जाते हैं। मन की प्रसन्नता, प्रभु की कृपा का अनुभव कराती है
( दादा गुरु महाराज जी मलूक पीठ वृंदावन के मुख से

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

श्रीमद्भागवत गीता हिंदी में(अध्याय 2 का शेष)

                 श्रीमद् भागवत गीता हिंदी में अध्याय 2


या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥

जय -पराजय, लाभ लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा ;इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥३८॥

 हे पार्थ !यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्म योग के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभांति त्याग देगा अथाार्त सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥ ३९॥

 इस कर्मयोग में आरंभ का अथार्त बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल स्वरुप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्युरूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥४०॥

 हे अर्जुन! इस कर्म योग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है ;किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्य की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती है॥४१॥

 हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय में हो रहे हैं, जो कर्फमल के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वह अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अथार्त दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली तथा भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है,उस वाणी द्वारा जिन का चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्या में अत्यंत आसक्त है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्कामिका बुध्दि नहीं होती॥४२॥

 हे अर्जुन! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष शोक आदि द्वन्दों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित, योग - क्षेमको न चाहने वाला और स्वाधीन अंतकरण वाला हो॥४५॥
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है ॥४६॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति ना हो ॥४७॥

हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है॥४८॥

 इस समत्व रूप बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू सम बुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ आथार्त बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर ;क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है॥४९॥

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अथार्त उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अथार्त कर्म बंधन से छूटने का उपाय है ॥५०॥
क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर, जन्म रूप बंधन से मुक्त हो, निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥

जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भागों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ॥५२॥

भांति- भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर  ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अथार्त तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ॥५३॥
                                अर्जुन उवाच
 अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
                               श्रीभगवानुवाच
 श्री भगवान बोले - हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,ष सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग,भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है॥५६॥
 जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त हो कर ना प्रसन्न होता है ,और ना द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥५७॥

और कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही जब वह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥५८॥
इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थिति प्रज्ञ पुरुष की तो आस्क्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है॥५९॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश ना होने के कारण यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।॥६०॥
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती है, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥६१॥
 विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उस विषयों में आ सक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में  विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है ,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अथार्त ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥६३॥
 परंतु अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विश्व में विचरण करता हुआ अंतकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥६४॥ अंत:करण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्म योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है॥६५॥
 न जीते हुए मन और इंद्रियां वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंत:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है॥६६॥
 क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है ,वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥६७॥
 इसलिए हे महाबाहों! जिस पुरुष की इंद्रियां, इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥६८॥संपूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान हैं ,उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानंद की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्वों को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान हैं ॥६९॥
जैसे नाना नदियों के जल सब और से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में उसको विचलित ना करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब लोग जिस स्थिति प्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥७०॥
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित ,अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता  है, वही शांति को प्राप्त होता है, अथार्त वह शांति को प्राप्त है॥७१॥
 हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है॥७२॥
 ओम तत्सत श्रीमद् भागवत गीता  श्री कृष्ण अर्जुन संवाद द्वितीय अध्याय पूर्ण

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